आज देश की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेत्री सावित्रीबाई फुले का जन्म दिन है। इसे लेकर विगत एक सप्ताह से सोशल मीडिया में उस बहुजन समाज के जागरूक लोगों के मध्य भारी उन्माद है जो उन्हें अब राष्ट्रमाता के ख़िताब से नवाज रहा है। सोशल मीडिया से पता चलता है कि आज के दिन देश के कोने-कोने में भारी उत्साह के साथ बहुजनों की राष्ट्रमाता की जयंती मनाई जाएगी। इसके लिए निश्चय ही हमें मान्यवर कांशीराम का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने इतिहास की कब्र में दफ़न किये गए बहुजन नायक/नायिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को सामने ला कर समाज परिवर्तनकामी लोगों को प्रेरणा का सामान मुहैया कराया, जिनमें सावित्रीबाई फुले भी एक हैं, जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के नायगांव नमक छोटे से गांव में जन्मीं व 10 मार्च 1897 को पुणे में परिनिवृत हुईं सावित्रीबाई फुले ने उन्नीसवीं सदी में महिला शिक्षा की शुरुआत के रूप में घोर ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को सीधी चुनौती देने का काम किया था। उन्नीसवीं सदी में यह काम उन्होंने तब किया जब छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह व शुद्रतिशुद्रों व महिलाओं की शिक्षा निषेध जैसी सामाजिक बुराइयां किसी प्रदेश विशेष में ही सीमित न होकर संपूर्ण भारत में फैली हुई थीं। महाराष्ट्र के महान समाज सुधारक, विधवा पुनर्विवाह आंदोलन के तथा स्त्री शिक्षा समानता के अगुआ महात्मा ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई ने अपने पति के सामाजिक कार्यों में न केवल हाथ बंटाया बल्कि अनेक बार उनका मार्ग-दर्शन भी किया।
दरअसल अशिक्षा को दलित,पिछड़ों और महिलाओं की गुलामी के प्रधान कारण के रूप में उपलब्धि करनेवाले जोतोराव फुले ने वंचितों में शिक्षा प्रसार एवं शिक्षा को ‘ऊपर’ से ‘नीचे’के विपरीत नीचे से ऊपर ले जाने की जो परिकल्पना की उसी क्रम में भारत की पहली अध्यापिका का उदय हुआ। स्मरण रहे अंग्रेजों अपनी सार्वजनीन शिक्षा नीति के शुद्रतिशूद्रों के लिए भी शिक्षा के दरवाजे जरुर मुक्त किये, पर उसमें एक दोष था जिसके लिए जिम्मेवार लार्ड मैकाले जैसे शिक्षा-मसीहा भी रहे। मैकाले ने जो शिक्षा सम्बन्धी अपना ऐतिहासिक सिद्धांत प्रस्तुत किया था उसमें व्यवस्था यह थी कि शिक्षा पहले समाज के उच्च वर्ग को दी जानी चाहिए। समाज के उच्च वर्ग को शिक्षा मिलने के पश्चात्, वहां से झरते हुए निम्न वर्ग की ओर जाएगी। निम्न वर्ग को शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं। समाज के उच्च वर्ग को शिक्षा देने के पश्चात् अपने आप शिक्षा का प्रसार निम्न वर्ग की ओर हो जायेगा। पहाड़ से नीचे की ओर आते पानी की तरह शिक्षा का प्रसार होगा।’ फुले ने ऊपर से नीचे की शिक्षा के इस सिद्धांत को ख़ारिज करते हुए शिक्षा प्रसार का अभियान अपने घर ही शुरू किया।
पहले प्रयास के रूप में महात्मा फुले ने अपने खेत में आम के वृक्ष के नीचे विद्यालय शुरु किया। यही स्त्री शिक्षा की सबसे पहली प्रयोगशाला भी थी, जिसमें उनके दूर के रिश्ते की विधवा बुआ सगुणाबाई क्षीरसागर व सावित्रीबाई विद्यार्थी थीं। उन्होंने खेत की मिट्टी में टहनियों की कलम बनाकर शिक्षा लेना प्रारंभ किया। दोनों ने मराठी उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन दिनों पुणे में मिशेल नामक एक ब्रिटिश मिशनरी महिला नॉर्मल स्कुल चलती थीं। जोतीराव ने वहीं सावित्रीबाई और सगुणा को तीसरी कक्षा में दाखिल करवा दिया जहाँ से दोनों ने अध्यापन कार्य का भी प्रशिक्षण लिया। फिर तो शुरू हुआ हिन्दू-धर्म-संस्कृति के खिलाफ अभूतपूर्व विद्रोह।
जिस हिन्दू धर्म –संस्कृति का गौरव गान कर हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया चलाई जा रही है उसका एक अन्यतम वैशिष्ट्य ज्ञान-संकोचन रहा है, जिसका शिकार शुद्रातिशूद्र और नारी बने। इन्हें ज्ञान क्षेत्र से इसलिए दूर रखा गया था की ज्ञान हासिल करने के बाद ये दैविक-दासत्व (डिवाइन-स्लेवरी) से मुक्त हो जाते और डिवाइन-स्लेवरी से मुक्त होने का मतलब उन मुट्ठी भर शोषकों के चंगुल से मुक्ति होना था जिन्होंने धार्मिक शिक्षा के जरिये सदियों से शक्ति के तमाम स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक) पर एकाधिकार कायम कर रखा था। जोतीराव इस एकाधिकार को तोडना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1 जनवरी,1848 को पुणे में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की, जो बौद्धोत्तर भारत में किसी भारतीय द्वारा स्थापित पहला विद्यालय था। सावित्रीबाई फुले ने इसी विद्यालय में शिक्षिका बन कर आधुनिक भारत की पहली अध्यापिका बनने का गौरव हासिल किया। इस विद्यालय की सफलता से उत्साहित हो कर फुले दंपत्ति ने 15 मई ,1848 को पुणे की अछूत बस्ती में अस्पृश्य लडके-लड़कियों के लिए भारत के इतिहास में पहली बार विद्यालय की स्थापना की। थोड़े ही अन्तराल में इन्होंने पुणे, उसके निकटवर्ती गाँव में 18 स्कूल स्थापित कर दिए। चूंकि शिक्षा के एकाधिकारी ब्राह्मणों ने शुद्रातिशूद्रों और महिलाओं के शिक्षा ग्रहण व दान को धर्मविरोधी आचरण घोषित कर रखा था इसलिए इस शिक्षा रूपी धर्मविरोधी कार्य से फुले दंपति को दूर करने के लिए धर्म के ठेकेदारों ने जोरदार अभियान शुरू किया।
जब सावित्रीबाई फुले स्कूल के लिए निकलतीं ,वे लोग उनपर गोबर-पत्थर फेंकते और भद्दी-भद्दी गालियाँ देते। लेकिन लम्बे समय तक यह कार्य करके भी जब वे सफल नहीं हुए तो शिकायत फुले के पिता तक पहुंचाए। पुणे के धर्माधिकारियों का विरोध इतना प्रबल था कि उनके पिता को कहना पड़ा ,या तो अपना स्कूल चलाओ या मेरा घर छोडो। फुले दंपति ने गृह-निष्कासन वरण किया। इस निराश्रित दंपति को पनाह दिया उस्मान शेख ने। फुले ने अपने कारवां में शेख साहब की पत्नी बीबी फातिमा शेख को भी शामिल कर अध्यापन का प्रशिक्षण दिलाया। फिर अछूतों के एक स्कूल में अध्यापन का दायित्व सौंप कर फातिमा शेख को उन्नीसवीं सदी की पहली मुस्लिम शिक्षिका बनने का अवसर मुहैया कराया।
भारत में जोतीराव तथा सावि़त्री बाई ने शुद्र एवं स्त्री शिक्षा का आंरभ करके नये युग की नींव रखी। इसलिये ये दोनों युगपुरुष और युगस्त्री का गौरव पाने के अधिकारी हुए। दोनों ने मिलकर 24 सितम्बर ,1873 को ‘सत्यशोधक समाज‘ की स्थापना की। उनकी बनाई हुई संस्था ‘सत्यशोधक समाज‘ ने शुद्रातिशूद्रों और महिलाओं में शिक्षा प्रसार सहित समाज सुधार के अन्य कामों में ऐतिहासिक योगदान किया।सत्यशोधक समाज की ‘तीसरे वार्षिक समारोह ‘की रपट 24 सितम्बर, 1876 को पेश की गयी जिसमें कहा गया था-‘शुद्रातिशूद्रों में शिक्षा के प्रति रूचि नहीं है। उनमें शिक्षा के प्रति रूचि होनी चाहिए। उनके बच्चे बुरे बच्चों की संगत में पड़कर रास्तों पर तमाशा आदि देखने और खेलने में में अपना समय गंवाते हैं। उन्हें इस तरह की बुरी आदत से न लगे और वे प्रत्येक दिन समय पर पाठशाला में जाएं तथा उनको समय पर घर वापस लाने के लिए सत्यशोधक समाज ने एक पट्टेवाला पांच रूपये प्रतिमाह पर 11 जनवरी से 11 मई तक रखा।
शूद्रों के जो बच्चे इंजीनियरिंग कालेज में जाते थे, उनमें गरीब बच्चों को मुफ्त प्रवेश मिले ,इसके लिए वहां के प्रिंसिपल के समक्ष समाज की ओर से निवेदन प्रस्तुत किया गया था। परिणामस्वरूप कॉलेज के प्रिंसिपल साहब ने दो-तीन बच्चों को नि:शुल्क प्रवेश दिया था। जो गरीब मा-बाप अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते थे, उनके लिए प्रतिमाह पांच रूपये सत्यशोधक समाज ने खर्च करने का प्रस्ताव पास किया था। देहात के बच्चों को भी शिक्षा मिलनी चाहिए, इसके लिए समाज की ओर से पाठशालाओं की स्थापना की गयी।’
महात्मा जोतीराव फुले की मृत्यु सन् 1890 में हुई। तब सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज के जरिये उनके अधूरे कार्यों को आगे बढाया। सावित्रीबाई की मृत्यु 10 मार्च 1897 को प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान हुई। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से धन्य बहुजन भारत उन्हें अब राष्ट्रमाता के रूप में याद करता है।
दरअसल अशिक्षा को दलित,पिछड़ों और महिलाओं की गुलामी के प्रधान कारण के रूप में उपलब्धि करनेवाले जोतोराव फुले ने वंचितों में शिक्षा प्रसार एवं शिक्षा को ‘ऊपर’ से ‘नीचे’के विपरीत नीचे से ऊपर ले जाने की जो परिकल्पना की उसी क्रम में भारत की पहली अध्यापिका का उदय हुआ। स्मरण रहे अंग्रेजों अपनी सार्वजनीन शिक्षा नीति के शुद्रतिशूद्रों के लिए भी शिक्षा के दरवाजे जरुर मुक्त किये, पर उसमें एक दोष था जिसके लिए जिम्मेवार लार्ड मैकाले जैसे शिक्षा-मसीहा भी रहे। मैकाले ने जो शिक्षा सम्बन्धी अपना ऐतिहासिक सिद्धांत प्रस्तुत किया था उसमें व्यवस्था यह थी कि शिक्षा पहले समाज के उच्च वर्ग को दी जानी चाहिए। समाज के उच्च वर्ग को शिक्षा मिलने के पश्चात्, वहां से झरते हुए निम्न वर्ग की ओर जाएगी। निम्न वर्ग को शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं। समाज के उच्च वर्ग को शिक्षा देने के पश्चात् अपने आप शिक्षा का प्रसार निम्न वर्ग की ओर हो जायेगा। पहाड़ से नीचे की ओर आते पानी की तरह शिक्षा का प्रसार होगा।’ फुले ने ऊपर से नीचे की शिक्षा के इस सिद्धांत को ख़ारिज करते हुए शिक्षा प्रसार का अभियान अपने घर ही शुरू किया।
पहले प्रयास के रूप में महात्मा फुले ने अपने खेत में आम के वृक्ष के नीचे विद्यालय शुरु किया। यही स्त्री शिक्षा की सबसे पहली प्रयोगशाला भी थी, जिसमें उनके दूर के रिश्ते की विधवा बुआ सगुणाबाई क्षीरसागर व सावित्रीबाई विद्यार्थी थीं। उन्होंने खेत की मिट्टी में टहनियों की कलम बनाकर शिक्षा लेना प्रारंभ किया। दोनों ने मराठी उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन दिनों पुणे में मिशेल नामक एक ब्रिटिश मिशनरी महिला नॉर्मल स्कुल चलती थीं। जोतीराव ने वहीं सावित्रीबाई और सगुणा को तीसरी कक्षा में दाखिल करवा दिया जहाँ से दोनों ने अध्यापन कार्य का भी प्रशिक्षण लिया। फिर तो शुरू हुआ हिन्दू-धर्म-संस्कृति के खिलाफ अभूतपूर्व विद्रोह।
जिस हिन्दू धर्म –संस्कृति का गौरव गान कर हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया चलाई जा रही है उसका एक अन्यतम वैशिष्ट्य ज्ञान-संकोचन रहा है, जिसका शिकार शुद्रातिशूद्र और नारी बने। इन्हें ज्ञान क्षेत्र से इसलिए दूर रखा गया था की ज्ञान हासिल करने के बाद ये दैविक-दासत्व (डिवाइन-स्लेवरी) से मुक्त हो जाते और डिवाइन-स्लेवरी से मुक्त होने का मतलब उन मुट्ठी भर शोषकों के चंगुल से मुक्ति होना था जिन्होंने धार्मिक शिक्षा के जरिये सदियों से शक्ति के तमाम स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक) पर एकाधिकार कायम कर रखा था। जोतीराव इस एकाधिकार को तोडना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1 जनवरी,1848 को पुणे में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की, जो बौद्धोत्तर भारत में किसी भारतीय द्वारा स्थापित पहला विद्यालय था। सावित्रीबाई फुले ने इसी विद्यालय में शिक्षिका बन कर आधुनिक भारत की पहली अध्यापिका बनने का गौरव हासिल किया। इस विद्यालय की सफलता से उत्साहित हो कर फुले दंपत्ति ने 15 मई ,1848 को पुणे की अछूत बस्ती में अस्पृश्य लडके-लड़कियों के लिए भारत के इतिहास में पहली बार विद्यालय की स्थापना की। थोड़े ही अन्तराल में इन्होंने पुणे, उसके निकटवर्ती गाँव में 18 स्कूल स्थापित कर दिए। चूंकि शिक्षा के एकाधिकारी ब्राह्मणों ने शुद्रातिशूद्रों और महिलाओं के शिक्षा ग्रहण व दान को धर्मविरोधी आचरण घोषित कर रखा था इसलिए इस शिक्षा रूपी धर्मविरोधी कार्य से फुले दंपति को दूर करने के लिए धर्म के ठेकेदारों ने जोरदार अभियान शुरू किया।
जब सावित्रीबाई फुले स्कूल के लिए निकलतीं ,वे लोग उनपर गोबर-पत्थर फेंकते और भद्दी-भद्दी गालियाँ देते। लेकिन लम्बे समय तक यह कार्य करके भी जब वे सफल नहीं हुए तो शिकायत फुले के पिता तक पहुंचाए। पुणे के धर्माधिकारियों का विरोध इतना प्रबल था कि उनके पिता को कहना पड़ा ,या तो अपना स्कूल चलाओ या मेरा घर छोडो। फुले दंपति ने गृह-निष्कासन वरण किया। इस निराश्रित दंपति को पनाह दिया उस्मान शेख ने। फुले ने अपने कारवां में शेख साहब की पत्नी बीबी फातिमा शेख को भी शामिल कर अध्यापन का प्रशिक्षण दिलाया। फिर अछूतों के एक स्कूल में अध्यापन का दायित्व सौंप कर फातिमा शेख को उन्नीसवीं सदी की पहली मुस्लिम शिक्षिका बनने का अवसर मुहैया कराया।
भारत में जोतीराव तथा सावि़त्री बाई ने शुद्र एवं स्त्री शिक्षा का आंरभ करके नये युग की नींव रखी। इसलिये ये दोनों युगपुरुष और युगस्त्री का गौरव पाने के अधिकारी हुए। दोनों ने मिलकर 24 सितम्बर ,1873 को ‘सत्यशोधक समाज‘ की स्थापना की। उनकी बनाई हुई संस्था ‘सत्यशोधक समाज‘ ने शुद्रातिशूद्रों और महिलाओं में शिक्षा प्रसार सहित समाज सुधार के अन्य कामों में ऐतिहासिक योगदान किया।सत्यशोधक समाज की ‘तीसरे वार्षिक समारोह ‘की रपट 24 सितम्बर, 1876 को पेश की गयी जिसमें कहा गया था-‘शुद्रातिशूद्रों में शिक्षा के प्रति रूचि नहीं है। उनमें शिक्षा के प्रति रूचि होनी चाहिए। उनके बच्चे बुरे बच्चों की संगत में पड़कर रास्तों पर तमाशा आदि देखने और खेलने में में अपना समय गंवाते हैं। उन्हें इस तरह की बुरी आदत से न लगे और वे प्रत्येक दिन समय पर पाठशाला में जाएं तथा उनको समय पर घर वापस लाने के लिए सत्यशोधक समाज ने एक पट्टेवाला पांच रूपये प्रतिमाह पर 11 जनवरी से 11 मई तक रखा।
शूद्रों के जो बच्चे इंजीनियरिंग कालेज में जाते थे, उनमें गरीब बच्चों को मुफ्त प्रवेश मिले ,इसके लिए वहां के प्रिंसिपल के समक्ष समाज की ओर से निवेदन प्रस्तुत किया गया था। परिणामस्वरूप कॉलेज के प्रिंसिपल साहब ने दो-तीन बच्चों को नि:शुल्क प्रवेश दिया था। जो गरीब मा-बाप अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते थे, उनके लिए प्रतिमाह पांच रूपये सत्यशोधक समाज ने खर्च करने का प्रस्ताव पास किया था। देहात के बच्चों को भी शिक्षा मिलनी चाहिए, इसके लिए समाज की ओर से पाठशालाओं की स्थापना की गयी।’
महात्मा जोतीराव फुले की मृत्यु सन् 1890 में हुई। तब सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज के जरिये उनके अधूरे कार्यों को आगे बढाया। सावित्रीबाई की मृत्यु 10 मार्च 1897 को प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान हुई। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से धन्य बहुजन भारत उन्हें अब राष्ट्रमाता के रूप में याद करता है।