'लिंचिस्तान': अमेरिका के स्याह इतिहास से मोदी के न्यू इंडिया तक

Written by सुभाष गाताडे | Published on: September 12, 2019
.....दक्षिण के दरख्त़ एक अजीब फल देते हैं
पत्तों पर खून और जड़ में खून,
दक्षिण की हवाओं में झूलते अश्वेत शरीर
चिनार के पेड़ों से लटकते विचित्र फल

(Southern trees bear a strange fruit,

Blood on the leaves and blood at the root,

Black bodies swinging in the southern breeze,

Strange fruit hanging from the poplar trees.)

 

‘लिंचिंग’/बिना वैध निर्णय के मार डालना/ यह लब्ज अमेरिकी इतिहास के एक स्याह दौर की यादें ताज़ा करता है। वर्ष 1877 से 1950 के दरमियान श्वेत वर्चस्ववादी गिरोहों ने लगभग 4,000 अफ्रीकी अमेरिकियों की इसी तरह हत्या की जबकि सरकार और पुलिस ने ऐसी घटनाओं की पूरी तरह अनदेखी की। जेम्स बाल्डविन, जिनका निबंध संग्रह ‘डार्क डेज’ इस विकसित होती हिंसा का शब्दांकन करता है, लिखते हैं, ‘भीड़ कभी स्वायत्त नहीं होती। वह सत्ता में बैठे लोगों की वास्तविक इच्छा को पूरा करती है। वर्ष 1888 में श्वेत वर्चस्ववादियों ने किसी कुएं से पानी पीने के लिए सात अफ्रीकी अमेरिकियों की हत्या की, जो उनके हिसाब से सिर्फ, ‘श्वेतों के लिए’ था। बाल्डविन उस कहानी को दोहराते हैं और लिखते हैं, ‘‘इन मासूमों का खून अलाबामा राज्य के हाथों पर लगा है जिसने राज्य की इच्छा की पूर्ति के लिए इन झुंडों को सड़कों पर उतार दिया।’

ऊपर जिस गीत की पंक्तियां दोहरायी गयी हैं वह ‘स्टेज फ्रूट’ (Strange Fruit) नामक बेहद मशहूर गीत का हिस्सा है जिसे कम्युनिस्ट कलाकार अबेल मीरोपोल (Abel Meeropol) ने लिखा था और बिली हॉलिडे  (Billie Holiday) ने गाया था।

भारत की लिंचिंग भी अमेरिका के दक्षिणी हिस्से से बहुत दूर नहीं खड़ी है। इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में भीड़ द्वारा मारे जाने की ऐसी घटनाओं में जो अचानक तेजी देखी गयी उसका ताल्लुक भारत की सियासत और समाज में बहुसंख्यकवादी ताकतों के उभार से जुड़ा है। हत्याओं के इस सिलसिले की सबसे पहली कोशिश दरअसल मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के बमुश्किल पन्द्रह दिनों के अन्दर दिखाई दी थी। मोहसिन मोहम्मद शेख / उम्र 28 साल / वह इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मैनेजर के तौर पर काम कर रहा था। 4 जून 2014 को जब पुणे में अपने दोस्त के साथ घर लौट रहा था तब हिन्दु राष्ट्र सेना- जिसकी अगुआई धनंजय देसाई नामक शख्स कर रहा है- के साथ जुड़े गिरोह ने उसका रास्ता रोका और उसे हॉकी स्टिक्स से मारना शुरू किया। यह बाद में उजागर हुआ कि हमलावर कथित तौर पर मोहसिन शेख के किसी फेसबुक पोस्ट से आहत हुए थे। उसकी वहीं मौत हो गई। मोदी के अगुआई वाले भारत में वह सबसे पहली साम्प्रदायिक आधार पर निशाना बना कर की गयी हत्या थी।

पुलिस की फाइलों में हिन्दु राष्ट्र सेना के विवादास्पद रेकॉर्ड होने के बावजूद, और इस हकीक़त के बावजूद कि महाराष्ट्र सरकार ने कभी इस समूह पर पाबन्दी लगाने की सोची थी, उच्च न्यायालय की न्यायाधीश म्रदुला भाटकर ने, मोहसिन शेख की हत्या के तीन आरोपियों को जमानत दे दी। न्यायाधीश ने जो आदेश दिया वह गौरतलब है....

आवेदक/अभियुक्तों की निरपराध मृतक मोहसिन से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी, जिससे वह प्रेरित हुए थे। मृतक का दोष यही था कि वह दूसरे धर्म से जुड़ा था। मैं इस पहलू को आवेदक/ अभियुक्त के पक्ष में समझती हूं। इसके अलावा, आवेदक/अभियुक्त का कोई पहले का आपराधिक रेकॉर्ड भी नहीं रहा है और ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म के नाम पर उन्हें उकसाया गया और उन्होंने ये हत्या की है। इस परिस्थिति में मैं उनकी जमानत याचिका स्वीकार करती हूं।

दूसरे शब्दों में कहें तो अगर कोई व्यक्ति दूसरे को निजी दुश्मनी के आधार पर मार देता है तो यह उससे भी बुरा है कि कोई किसी को धार्मिक आधार पर खत्म करे। अगर हम न्यायाधीश भाटकर के तर्कों को इस्तेमाल करें तो जो धर्म के नाम पर हत्या करे उसके साथ हत्या के अन्य मामलों की तुलना में अधिक नरमी से पेश आना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय इस फैसले को बर्दाश्त नहीं कर सका। उसका कहना था कि उच्च न्यायालय का निर्णय किसी ‘समुदाय के प्रति या खिलाफ पूर्वाग्रह से रंगा था।’ उसने मुंबई उच्च अदालत के फैसले को खारिज किया। सडांध नीचे तक पहुंची है, यहां तक कि उच्च न्यायालय का जज भी यह नज़रिया अपनाता है कि धर्म के नाम पर हत्या इतनी भयंकर और गैरकानूनी नहीं होती।

लिंचिंग/बिना वैध निर्णय के मार डालने का यह सिलसिला व्यक्तिगत कार्रवाई के तौर पर - जहां एक व्यक्ति दूसरे को मारता है - शुरू नहीं हुआ बल्कि एक सामूहिक हिंसा के तौर पर शुरू हुआ- जहां झुंड धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, ट्रांसजेण्डर व्यक्तियों और विभिन्न किस्म के वंचित व्यक्तियों को निशाना बनाते हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसे ‘अन्य’ समझा जाए वह हमले का शिकार हो सकता था। प्रोफेसर संजय सुब्रहमण्यम, जो कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, संयुक्त राज्य अमेरिका में पढ़ाते हैं, उन्होंने इंडियन एक्स्प्रेस को बताया कि इन स्वयंभू हिंसक गिरोहों को यह मालूम रहता है कि उनका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा और उनकी हरकतों के प्रति उच्च पदस्थ अधिकारियों की सहमति है।

पहले जनहिंसा की संगठित कार्रवाइयां दोहराव के स्वरूप में सामने आती थीं और उसका एक पैटर्न आप ढूंढ सकते थे। मिसाल के तौर पर, प्रदर्शनों पर हमला होता था या हिंसा की घटनाएं सार्वजनिक उत्सवों के दिनों के साथ जुड़ी होती थीं। यह स्थिति मुगलों के वक्त़ में भी थी। इसके पश्चात, आज़ादी के बाद के दिनों में, आम तौर पर शहरी, संगठित किस्म की हिंसा देखने को मिलती थी, जहां विभिन्न राजनीतिक पार्टियां उत्पीड़कों को संरक्षण देती दिखती थीं।

जनहिंसा (mass violence) के पहले के चरण और मौजूदा चरण में भी और फर्क करने की जरूरत है। प्रोफेसर सुब्रहमण्यम ने आगे जोड़ा....

लेकिन आज जो हम देख रहे हैं वह किसी एक चरण में नहीं हो रहा है, आज की तारीख में कम संख्या में लोग हमलों का शिकार हो रहे हैं और वह भी विकेन्द्रीक्रत है, जिसे छोटे समूहों द्वारा सभी जगह अंजाम दिया जा रहा है। इन समूहों को या तो यह बताया गया है या इसकी कल्पना करने के लिए कहा गया है कि उन्हें इसी ढंग से सक्रिय रहना है। इसके अलावा, घटना को अंजाम देने के बाद, उच्चपदस्थ पदों पर तैनात कोई उन्हें इसके विपरीत कुछ नहीं कह रहा है। इसके अलावा यह हिंसा आकांक्षामूलक भी है। विचित्र बात यह है कि मुजरिम चाहते हैं कि इस घटना का सभी को पता चले। आखिर, कुछ लोग जो इसमें जुड़े हैं, वह इसका वीडियोटेप भी तैयार करते दिखते हैं। वे इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि यह सूचना वितरित हो रही है, जिसका मकसद अल्पसंख्यकों से अपेक्षित सामाजिक व्यवहार को लेकर एक चेतावनी, जारी करना है, एक संकेत देना है। यह सूचना एक तरह से उनके लिए नियंत्राणमूलक उपकरण के तौर पर भी उपस्थित होती है। यह ऐसी हिंसा है जो किसी दिन यहां तो किसी दिन वहां प्रगट हो सकती है। वह कभी भी जनहिंसा की शक्ल धारण नहीं करती बल्कि ऐसे जमीनी स्तर पर जुड़े संगठनों के अस्तित्व पर आधारित होती है, जो ऐसी कार्रवाई पर यकीन करते हैं तथा एक हद तक व्यवहार की नकल करते हैं। इस तरह भले ही वह विकेन्द्रीक्रत हो, लेकिन उसका व्यापक सन्दर्भ मौजूद रहता है।

अगर आप इस गतिविज्ञान पर संदेह करते हैं, फिर एक स्टिंग आपरेशन के एक हिस्से पर गौर करना मौजूं होगा जिसे एनडीटीवी ने अंजाम दिया था और जिसका फोकस उत्तर प्रदेश के हापुड़ में मीट के व्यापारी कासिम कुरेशी के मारे जाने और समीउद्दीन को पीटने की कार्रवाई पर था। पुलिस ने युधिष्ठिर सिंह सिसोदिया को गिरफ्तार भी किया जो मुख्य अभियुक्त था। जमानत पर रिहा सिसोदिया ने एनडीटीवी के ए वैद्यनाथन से बात की, जिनके पास छिपा कैमरा था। सिसोदिया ने अदालत को बताया था कि हत्या में उसकी कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन जब वैद्यनाथन ने उस घटनाक्रम पर पूछा तब उसने कहा,

''मैंने जेलर का बताया था वे /पीडित़/ गाय को मार रहे थे, इसलिए मैंने उन्हें मारा। मेरी सेना तैयार है। अगर कोई गाय को मारता है, तो हम उसे मारेंगे और हजार बार जेल जाएंगे।'' 

भाजपा का नया इंडिया दरअसल नफरत और धर्मांधता का सामान्य हो जाना है। यह नया सामान्य एक तरह से कार्पोरेट हितों और हिन्दुत्व के कट्टरपंथियों के बीच का एक अपवित्र गठबन्धन है। वह कानून के राज को उलट देने, संस्थाओं को अन्दर से नाकाम करने, और डर के एक माहौल के निर्माण से परिभाषित होता है। भारत उम्मीद का गणतंत्र नहीं बल्कि डर का गणतंत्र बना है। आरती सेठी के उस प्रश्न की पड़ताल करना समीचीन होगा जब वह लिखती हैं कि आखिर किस तरह कुछ मौतें ‘अ-घटना’ (non-events) हो जाती हैं। उनके मन में जुनैद खान की हत्या का मसला है। इंडियन एक्सप्रेस के कौनैन शेरीफ एम फरीदाबाद के उस रेलवे स्टेशन पर लौटे ताकि यह जाना जाए कि आखिर जुनैद को मरते हुए किसने देखा था। उन्होंने पाया कि किसी ने भी नहीं देखा जब एक किशोर प्लेटफार्म नम्बर चार पर लहूलुहान पड़ा था। पत्रकार ने लिखा था कि खून के वह धब्बे अभी भी प्लेटफार्म पर ‘दिख’ रहे हैं और इसके बावजूद किसी ने कुछ नहीं देखा, न स्टेशन मास्टर ओम प्रकाश और न ही पोस्टमास्टर भगवत दयाल, जिनका दफ्तर प्लेटफार्म के उस पार है। ‘मैंने कुछ नहीं देखा’, ओम प्रकाश का कहना था। ‘मैंने कुछ नहीं देखा’ भगवत दयाल ने भी कहा। दोनों ने वही वाक्य दोहराया। यहां तक कि सीसीटीवी ने भी कुछ नहीं देखा। एक अधिकारी ने बताया कि ‘घटनास्थल के बिल्कुल सामने एक सीसीटीवी कैमरा है। वायर तोड़ दी गयी है और वह काम नहीं कर रहा है।’ सेठी उन बातों को याद करती हैं जो उसने शेरीफ एम की रिपोर्ट में पढ़ा था और लिखती हैं, 

‘और फिर उन्होंने सामूहिक तौर पर, बिना किसी आपसी सहमति के, जो उस घटनाक्रम को उन्होंने देखा था उसे न देखने का सिलसिला शुरू किया। इस घटना का सबसे डरावना पहलू यही रहा है जिस पर वह रिपोर्ट रोशनी डालती है: अनकहे की आतंकित करने वाली ताकत, लेकिन जो सामूहिक तौर पर बंधनकारी हो, हिन्दुओं के बीच यह सहमति कि किसी मुस्लिम बच्चे के मृत शरीर को न देखा जाए। उत्तर भारत के उस छोटे स्टेशन के रेलवे प्लेटफॉर्म पर हिन्दुओं ने तत्काल एक विचित्र सामाजिकता निर्मित की, लोगों के बीच एक साझा सामाजिक बंधन जो आम तौर पर एक दूसरे से परिचित नहीं थे। अजनबियों के इस परस्पर स्वीकार के बाद, इस प्लेटफॉर्म पर खड़े हिन्दुओं ने मौन की इस संहिता का पालन करना तय किया जिसके जरिए आज के भारत के रेलवे प्लेटफॉर्म पर एक मुस्लिम बच्चे की सरेआम मौत को दो सौ लोगों द्वारा देखा नहीं गया।’

दृष्टिहीनता की इस स्थिति के मददेनज़र, सेठी दो बातें रखती हैं,

1. भाजपाशासित भारत में हम कानून के राज के तहस नहस होने की तरफ बढ़ रहे हैं और इन इलाकों में अब झुंड का शासन कायम हो चला है। हम अब राज्य द्वारा समर्थित गुंडा राज के आतंक के दौर में है। इससे दूसरा निष्कर्ष निकलता है।
2. 22 जनवरी 2017 को, गणतंत्र अंततः समाप्त हो गया। भारत अब धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक गणतंत्र नहीं रहा बल्कि अब वह एक नस्लीय और धार्मिक बहुमत द्वारा शासित बहुसंख्यकवादी राज्य में रूपांतरित होने के कगार पर है।

जुनैद की हत्या को उस वक्त़ प्लेटफार्म पर मौजूद दो सौ लोगों ने नहीं देखा। उन्होंने उस हिंसा को नहीं देखा। उन्होंने जुनैद को नहीं देखा। इस घटना के विपरीत हम इयान ग्रिलोट / उम्र 24 साल/ की प्रतिक्रिया को देख सकते हैं, जब एक बन्दूकधारी कैन्सास /अमेरिका/ के ओलाथे के एक रेस्तरां में श्रीनिवास कुचीबोतला और आलोक मुसासानी को मारने के लिए पहुंचा। /2017/ ग्रिलोट ने बन्दूक की गोलियों की बौछार के बीच अपने आप को खड़ा किया और छाती पर गोलियां झेली ताकि हत्यारा अन्य लोगों को मार न सके। /गोलीबारी में जख्मी हुए कुचीबोटला ने बाद में दम तोड़ दिया।/ जब इयान ग्रिलोट का हीरो के तौर पर अभिनन्दन किया गया, उसने कहा, ‘मैंने बस वही किया जो कोइ भी दूसरे मनुष्य के लिए करता। यह बात मायने नहीं रखती कि वह कहां का था या उसकी नस्लीयता क्या थी। हम सभी मनुष्य हैं। मुझे लगता है कि मैंने वही किया जो स्वाभाविक तौर पर सही बात थी।’ अगर उसने कदम नही बढ़ाया होता, उसने कहा, ‘मैंने अगर हत्यारे को रोकने की कोशिश नहीं की होती तो मेरे लिए ताउम्र वह टीस बनी रहती।’

पोर्टलेण्ड, ओरेगॉन /संयुक्त राज्य अमेरिका/ में एक श्वेत आदमी ने हिजाब पहनी दो लड़कियों को देख कर नस्लवादी गालियां दी। उस ट्रेन में सवार तीन लोगों ने तत्काल हस्तक्षेप किया। दो मारे गए - रिकी जॉन बेस्ट /उम्र 53 साल/ और तालिसीन मीरडिन नामकाई मेछे /उम्र 23 साल/ तीसरा आदमी - मिका डेविड कोल फलेचर /उम्र 21 साल/ बुरी तरह जखमी हुआ। नमकाई मेछे की मां - आशा डिलीवरन्स - ने अपने बेटे के बारे में कहा, ‘पोर्टलेण्ड में दो मुस्लिम युवतियों को बचाने की कोशिश में मेरा लाडला कल गुजर गया। मेरा चमकता सितारा, मैं हमेशा तुमसे प्यार करूंगी।’

असावटी के प्लेटफार्म पर खडे़ दो सौ लोग ऐसे किसी नैतिक द्वंद से गुजरे नहीं थे, जिसने इयान ग्रिलोट को कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित किया और बेस्ट तथा नमकाई मेछे को मौत को गले लगाने की तरह बढ़ाया। ...............

/पुस्तक - मोदीनामा: हिंदुत्व का उन्माद से साभार/

पुस्तक - मोदीनामा: हिंदुत्व का उन्माद
लेखक- सुभाष गाताडे
प्रकाशन- लेफ्टवर्ड बुक्स
प्रकाशन वर्ष- जुलाई, 2019

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