भारत के सभी दक्षिणपंथी वर्चस्ववादियों की एक आम विशेषता है, बेतुकी कल्पना और संकीर्ण विचार। इसका सटीक उदाहरण राष्ट्रीय स्वयं सेवक (RSS) द्वारा छापी गई यह पुस्तिका है। यह भारत के कुछ सम्मानित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार रक्षकों को बदनाम करने के अभियान का हिस्सा है। यह कुटिल प्रयास कुछ बेबुनियाद काल्पनिक कहानियों पर आधारित है।
जयपुर स्थित विश्व संवाद केंद्र द्वारा छापी गई इन पुस्तकों को २०/- रुपये में बेचा जा रहा है। इस पुस्तक में 15 निबंध शामिल है, जिन्हें मकरंद परांजपे, विवेक अग्निहोत्री, डॉ नीलम महेंद्र व अन्य जाने माने अफ़वाह फैलाने की आदत से मजबूर लोगों द्वारा लिखा गया है। ऐसा लगता है कि इन निबंधों को पहले ही कहीं छापा जा चुका है और पुस्तक में सिर्फ उन्हें संकलित कर के प्रस्तुत किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि इस पुस्तिका का विमोचन अक्तूबर 2018 में RSS प्रमुख मोहन भागवत द्वारा, राजस्थान के नागौर में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में, पहले ही हो चुका है।
मनघड़ंत अफ़वाहों का संकलन
आशीष कुमार ‘अंशु’ के द्वारा प्रथम अध्याय लिखा गया है। इस लेख में उन्होंने बताया है कि कैसे अगस्त, 2008 में बिहार बाढ़ की कवरेज के दौरान उनकी मुलाक़ात नेपाल के एक अज्ञात नाम के माओवादी से हुई थी। उनके नेपाल दौरे पर (नेपाल के कुसहा बाँध के टूटने पर यह बाद आई थी ) वह माओवादी उनका पथप्रदर्शक बना था। उस अजनबी माओवादी ने उन्हें बताया कि दिल्ली से कुछ लोग भारत सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए माओवादियों के गुट की तलाश कर रहे हैं, जिनका नाम यदि सामने आ जाए तो सभी अचंभित हो सकते हैं। जब मानवाधिकार रक्षकों के घरों पर छापामारी और उनकी गिरफ़्तारी हुई तो आशीष कुमार को अजनबी नेपाली माओवादी की कही बात याद आई, और वे निष्कर्ष पर पहुंचे कि हो न हो वे लोग यही "अर्बन नक्सल" हैं।
इस लेख में आशीष कुमार ने बिना किसी सबूत के कई दावे किए हैं। उन्होंने लेख में सिर्फ सालों पहले एक अज्ञात नाम के माओवादी से हुई मुलाक़ात और वर्तमान में उस मुलाकात से अपना निष्कर्ष निकाल कर प्रस्तुत किया है! आशीष कुमार ने आगे यह लिखा कि जिस क्षण सरकार किसी भी एक शहरी नक्सली के खिलाफ सख्त कदम लेगी, उसी समय उनका नेटवर्क जंतर-मंतर से कॉन्स्टिट्यूशन क्लब तक पूरी तरह से सक्रिय हो जाएगा। देश की राजधानी के ये वो दो स्थान हैं, जहाँ लोग मतभेद या असहमति व्यक्त करने के लिए एकजुट होते हैं। उन्होंने मेधा पाटकर, बिनायक सेन, सोनी सोरी, अरुंधती रॉय पर बिना किसी प्रमाण के नक्सलियों का समर्थन करने का आरोप लगाया। ऐसा लगता है कि इस लेख का उद्देश्य ही इन सामाजिक कार्यकर्ताओं को देश की शांति और संस्कृति के विरोधी के तौर पर दर्शाना है, जिससे इनके योगदान को कलंकित किया जा सके।
पुस्तिका के अगले अध्याय में अजय सेटिआ ने नक्सल स्लीपर सेल्स पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है, जिस में लेखक ने ‘स्लीपर सेल्स’ शब्द के स्थान पर ‘स्लीपिंग सेल्स’ का उपयोग किया है। उन्होंने वरवर राव,सुधीर धवले, सुधा भारद्वाज, सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत और रोना विल्सन पर ऐसे स्लीपर सेल्स का सदस्य होने का आरोप लगाया है। साथ ही, अब तक स्वामी अग्निवेश के गिरफ़्तार न होने को लेकर नाराज़गी भी जताई है। इतना ही नहीं, उन्होंने कांग्रेस पर भी राजनीतिक समर्थन की लालच में नक्सलियों के लिए नरम रुख रखने का आरोप लगाया है। इसके बाद उन्होंने विपक्ष की ओर रुझान रखने वाले पत्रकारों और शिक्षकों को नक्सल समर्थक बताया और छत्तीसगढ़, झारखंड व आंध्र प्रदेश में नक्सलियों द्वारा की गई हिंसा का समर्थन करने का आरोप लगाया है। इस तरह के गंभीर आरोपों को बिना किसी तर्क या सबूत के बड़ी ही सरलता से लगाना, मानो इस मनघड़ंत अफवाहों की संग्रहित पुस्तिका की परिचालन प्रक्रिया ही है।
पुस्तिका के अध्ययन के दौरान कई बार बॉलीवुड फिल्मों का ध्यान आने लगा। ठीक उन्हीं फिल्मों की तरह पुस्तक में बेबुनियाद बातों को रोमांचित रूप से प्रकट करने का प्रयास किया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर लेखक ने कहा कि JNU नक्सली गतिविधियों का अड्डा बन गया है और उसे कट्टरपंथी मुस्लिमों व आतंकवादियों का समर्थन प्राप्त है। लेखक ने आगे यह भी कहा कि ‘ऐसे लोग ही भीमा-कोरेगांव की घटना के लिए जिम्मेदार हैं, और जिस तरह से राजीव गाँधी जी की हत्या हुई थी, एकदम वैसे ही प्रधानमंत्री मोदी जी को भी मारने का षडयंत्र रचा जा रहा है। हालांकि, यह सभी को पता है कि राजीव गाँधी जी को मारने वाला एक आत्मघाती हमलावर था, जो श्री लंका के LTTE गुट का सदस्य था।
अर्बन नक्सल, महाषड्यंत्र का एक हथकंडा
‘अर्बन नक्सल’ शब्द के जन्म-दाता विवेक अग्निहोत्री ने अपने लेख में यह समझाने की कोशिश की है कि कैसे नक्सल समर्थक पुलिस फ़ोर्स, प्रशासनिक विभाग, सिविल सेवा व अन्य महत्वपूर्ण जगहों पर घुसपैठ कर रहे हैं। उन्होंने यह भी बताने की कोशिश की, कि कैसे कोई भी पत्रकार या किसान या अधिवक्ता या शिक्षक या कलाकार शहरी नक्सल हो सकता है। इस प्रकार से उन्होंने अपनी विचारधारा से सहमत न होने वालों के खिलाफ़ संदेह और नफ़रत भड़काने का प्रयास किया है। साथ ही, वैचारिक विरोधियों पर राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप भी लगा दिया है।
“साज़िश के सूत्रधार” नाम के एक अध्याय में वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़ेरेइरा, गौतम नवलखा, वरनॉन गोंज़ाल्वेस, आनंद तेलतुंबडे, फादर स्टान स्वामी और सूज़न अब्राहम को देश के विरुद्ध मुख्य षड्यंत्रकारी के तौर पर बताया गया है। सबसे दिलचस्पी की बात यह है कि ज्योतिरादित्य नमक लेखक द्वारा लिखे इस लेख को दैनिक जागरण में पहले ही छापा जा चुका है, जिसमें उन्होंने इन लोगों के बहुमूल्य योगदान की चर्चा की है। लगता है, पुस्तिका में लेख के संकलनकर्ताओं ने सिर्फ शीर्षक देख कर ही लेख शामिल कर लिया है।
ऐसे ही “बड़ी हैसियत वाले नक्सली समर्थक” नाम के एक अध्याय में भीमा कोरेगांव घटना में दलितों पर हुए हमले में संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे की भागीदारी को नकार दिया गया है। लेखक ने कहा कि उन दोनों पर लगाए गए आरोप झूठे हैं व हिंदुत्व से जुड़ा कोई भी संगठन इस घटना में शामिल नहीं था। इसके बजाय लेखक ने पुलिस को मुख्य आरोपी का पता लगाने के लिए कबीर कला मंच (KKM) के घरों पर छापे मारने की हिदायत दी है। पुस्तिका में आगे कुछ ओर ऐसे बेबुनियाद दावे किए गए हैं, जिन्हें बल देने लिए यह तथ्य प्रस्तुत किया कि शक के घेरे में होने के कारण KKM के खिलाफ UPA के शासन के दौरान ही जांच हो रही थी।
पुस्तिका के एक दूसरे अध्याय में JNU के छात्र आंदोलन, भीमा कोरेगांव हिंसा और बुद्धिजीवियों के खिलाफ हुई अन्य घटनाओं का उल्लेख करते हुए इसी तरह से बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। पुस्तिका में जैसे-जैसे पन्ने पलटते जाते हैं, वैसे-वैसे बुद्धिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं पर लगाए गए आरोप और गहरे होने लगते हैं। एक लेखक ने तो बड़े ही बेतुके तर्क रखते हुए कहा कि, चीन भारत को गुलाम बनाने के लिए अर्बन नक्सल का सहारा ले रहा है, और माओवादी ममता बैनर्जी को श्रम केंद्र भेज देंगे तथा कांग्रेस और अन्य विपक्ष के सदस्यों को गोली मार कर समाप्त कर देंगे। एक अन्य लेखक ने कहा कि माओवाद अहम् के सिवा कुछ नहीं है और इसका समाधान निकालने के लिए हमें हमारे पूर्वजों के पुराने दिनों में लौटना होगा।
एक अन्य लेख में तूतुकुड़ी में वेदांता स्टरलाइट कॉपर यूनिट के खिलाफ विरोध प्रदर्शन को दंगे का रूप देने के लिए नक्सलियों और यहाँ तक कि ईसाई गिरिजाघरों को जिम्मेदार ठहराया गया है। स्वामी अग्निवेश को बदनाम करने के लिए तो एक पूरा अध्याय समर्पित कर दिया है, उनके भगवाधारी सन्यासी के वेश में, गुप्त रूप से ईसाई होने का बेतुका दावा किया गया है! ऐसे ही "JNU मे पनपती पंखुड़ीयाँ" शीर्षक के एक अन्य अपमानजनक अध्याय में JNU की एक युवा महिला छात्रा को निशाना बनाया गया है। युवती व उसके परिवार को अपमानित करने की मंशा से अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया है।
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से इस तरह के वर्चस्ववादी संगठनों द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचार, कुछ व्यक्तियों के खिलाफ उन्माद का एक सार्वजनिक माहौल बनाने में एक उपयोगी उपकरण का काम करते हैं। यह सभी जानते हैं कि शासन के मुख्य अंग आरएसएस के नियंत्रण में है, और वे जोर जबरदस्ती अपनी मनमानी कर रहे हैं, जैसे 2014 (मोदी 1.0) के बाद हमने देखा, ठीक वैसे ही 2019 (मोदी 2.0), संवैधानिक मूल्यों और मानव अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध लोगों के अस्तित्व के लिए एक खतरों भरा समय है।
जयपुर स्थित विश्व संवाद केंद्र द्वारा छापी गई इन पुस्तकों को २०/- रुपये में बेचा जा रहा है। इस पुस्तक में 15 निबंध शामिल है, जिन्हें मकरंद परांजपे, विवेक अग्निहोत्री, डॉ नीलम महेंद्र व अन्य जाने माने अफ़वाह फैलाने की आदत से मजबूर लोगों द्वारा लिखा गया है। ऐसा लगता है कि इन निबंधों को पहले ही कहीं छापा जा चुका है और पुस्तक में सिर्फ उन्हें संकलित कर के प्रस्तुत किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि इस पुस्तिका का विमोचन अक्तूबर 2018 में RSS प्रमुख मोहन भागवत द्वारा, राजस्थान के नागौर में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में, पहले ही हो चुका है।
मनघड़ंत अफ़वाहों का संकलन
आशीष कुमार ‘अंशु’ के द्वारा प्रथम अध्याय लिखा गया है। इस लेख में उन्होंने बताया है कि कैसे अगस्त, 2008 में बिहार बाढ़ की कवरेज के दौरान उनकी मुलाक़ात नेपाल के एक अज्ञात नाम के माओवादी से हुई थी। उनके नेपाल दौरे पर (नेपाल के कुसहा बाँध के टूटने पर यह बाद आई थी ) वह माओवादी उनका पथप्रदर्शक बना था। उस अजनबी माओवादी ने उन्हें बताया कि दिल्ली से कुछ लोग भारत सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए माओवादियों के गुट की तलाश कर रहे हैं, जिनका नाम यदि सामने आ जाए तो सभी अचंभित हो सकते हैं। जब मानवाधिकार रक्षकों के घरों पर छापामारी और उनकी गिरफ़्तारी हुई तो आशीष कुमार को अजनबी नेपाली माओवादी की कही बात याद आई, और वे निष्कर्ष पर पहुंचे कि हो न हो वे लोग यही "अर्बन नक्सल" हैं।
इस लेख में आशीष कुमार ने बिना किसी सबूत के कई दावे किए हैं। उन्होंने लेख में सिर्फ सालों पहले एक अज्ञात नाम के माओवादी से हुई मुलाक़ात और वर्तमान में उस मुलाकात से अपना निष्कर्ष निकाल कर प्रस्तुत किया है! आशीष कुमार ने आगे यह लिखा कि जिस क्षण सरकार किसी भी एक शहरी नक्सली के खिलाफ सख्त कदम लेगी, उसी समय उनका नेटवर्क जंतर-मंतर से कॉन्स्टिट्यूशन क्लब तक पूरी तरह से सक्रिय हो जाएगा। देश की राजधानी के ये वो दो स्थान हैं, जहाँ लोग मतभेद या असहमति व्यक्त करने के लिए एकजुट होते हैं। उन्होंने मेधा पाटकर, बिनायक सेन, सोनी सोरी, अरुंधती रॉय पर बिना किसी प्रमाण के नक्सलियों का समर्थन करने का आरोप लगाया। ऐसा लगता है कि इस लेख का उद्देश्य ही इन सामाजिक कार्यकर्ताओं को देश की शांति और संस्कृति के विरोधी के तौर पर दर्शाना है, जिससे इनके योगदान को कलंकित किया जा सके।
पुस्तिका के अगले अध्याय में अजय सेटिआ ने नक्सल स्लीपर सेल्स पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है, जिस में लेखक ने ‘स्लीपर सेल्स’ शब्द के स्थान पर ‘स्लीपिंग सेल्स’ का उपयोग किया है। उन्होंने वरवर राव,सुधीर धवले, सुधा भारद्वाज, सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत और रोना विल्सन पर ऐसे स्लीपर सेल्स का सदस्य होने का आरोप लगाया है। साथ ही, अब तक स्वामी अग्निवेश के गिरफ़्तार न होने को लेकर नाराज़गी भी जताई है। इतना ही नहीं, उन्होंने कांग्रेस पर भी राजनीतिक समर्थन की लालच में नक्सलियों के लिए नरम रुख रखने का आरोप लगाया है। इसके बाद उन्होंने विपक्ष की ओर रुझान रखने वाले पत्रकारों और शिक्षकों को नक्सल समर्थक बताया और छत्तीसगढ़, झारखंड व आंध्र प्रदेश में नक्सलियों द्वारा की गई हिंसा का समर्थन करने का आरोप लगाया है। इस तरह के गंभीर आरोपों को बिना किसी तर्क या सबूत के बड़ी ही सरलता से लगाना, मानो इस मनघड़ंत अफवाहों की संग्रहित पुस्तिका की परिचालन प्रक्रिया ही है।
पुस्तिका के अध्ययन के दौरान कई बार बॉलीवुड फिल्मों का ध्यान आने लगा। ठीक उन्हीं फिल्मों की तरह पुस्तक में बेबुनियाद बातों को रोमांचित रूप से प्रकट करने का प्रयास किया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर लेखक ने कहा कि JNU नक्सली गतिविधियों का अड्डा बन गया है और उसे कट्टरपंथी मुस्लिमों व आतंकवादियों का समर्थन प्राप्त है। लेखक ने आगे यह भी कहा कि ‘ऐसे लोग ही भीमा-कोरेगांव की घटना के लिए जिम्मेदार हैं, और जिस तरह से राजीव गाँधी जी की हत्या हुई थी, एकदम वैसे ही प्रधानमंत्री मोदी जी को भी मारने का षडयंत्र रचा जा रहा है। हालांकि, यह सभी को पता है कि राजीव गाँधी जी को मारने वाला एक आत्मघाती हमलावर था, जो श्री लंका के LTTE गुट का सदस्य था।
अर्बन नक्सल, महाषड्यंत्र का एक हथकंडा
‘अर्बन नक्सल’ शब्द के जन्म-दाता विवेक अग्निहोत्री ने अपने लेख में यह समझाने की कोशिश की है कि कैसे नक्सल समर्थक पुलिस फ़ोर्स, प्रशासनिक विभाग, सिविल सेवा व अन्य महत्वपूर्ण जगहों पर घुसपैठ कर रहे हैं। उन्होंने यह भी बताने की कोशिश की, कि कैसे कोई भी पत्रकार या किसान या अधिवक्ता या शिक्षक या कलाकार शहरी नक्सल हो सकता है। इस प्रकार से उन्होंने अपनी विचारधारा से सहमत न होने वालों के खिलाफ़ संदेह और नफ़रत भड़काने का प्रयास किया है। साथ ही, वैचारिक विरोधियों पर राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप भी लगा दिया है।
“साज़िश के सूत्रधार” नाम के एक अध्याय में वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़ेरेइरा, गौतम नवलखा, वरनॉन गोंज़ाल्वेस, आनंद तेलतुंबडे, फादर स्टान स्वामी और सूज़न अब्राहम को देश के विरुद्ध मुख्य षड्यंत्रकारी के तौर पर बताया गया है। सबसे दिलचस्पी की बात यह है कि ज्योतिरादित्य नमक लेखक द्वारा लिखे इस लेख को दैनिक जागरण में पहले ही छापा जा चुका है, जिसमें उन्होंने इन लोगों के बहुमूल्य योगदान की चर्चा की है। लगता है, पुस्तिका में लेख के संकलनकर्ताओं ने सिर्फ शीर्षक देख कर ही लेख शामिल कर लिया है।
ऐसे ही “बड़ी हैसियत वाले नक्सली समर्थक” नाम के एक अध्याय में भीमा कोरेगांव घटना में दलितों पर हुए हमले में संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे की भागीदारी को नकार दिया गया है। लेखक ने कहा कि उन दोनों पर लगाए गए आरोप झूठे हैं व हिंदुत्व से जुड़ा कोई भी संगठन इस घटना में शामिल नहीं था। इसके बजाय लेखक ने पुलिस को मुख्य आरोपी का पता लगाने के लिए कबीर कला मंच (KKM) के घरों पर छापे मारने की हिदायत दी है। पुस्तिका में आगे कुछ ओर ऐसे बेबुनियाद दावे किए गए हैं, जिन्हें बल देने लिए यह तथ्य प्रस्तुत किया कि शक के घेरे में होने के कारण KKM के खिलाफ UPA के शासन के दौरान ही जांच हो रही थी।
पुस्तिका के एक दूसरे अध्याय में JNU के छात्र आंदोलन, भीमा कोरेगांव हिंसा और बुद्धिजीवियों के खिलाफ हुई अन्य घटनाओं का उल्लेख करते हुए इसी तरह से बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। पुस्तिका में जैसे-जैसे पन्ने पलटते जाते हैं, वैसे-वैसे बुद्धिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं पर लगाए गए आरोप और गहरे होने लगते हैं। एक लेखक ने तो बड़े ही बेतुके तर्क रखते हुए कहा कि, चीन भारत को गुलाम बनाने के लिए अर्बन नक्सल का सहारा ले रहा है, और माओवादी ममता बैनर्जी को श्रम केंद्र भेज देंगे तथा कांग्रेस और अन्य विपक्ष के सदस्यों को गोली मार कर समाप्त कर देंगे। एक अन्य लेखक ने कहा कि माओवाद अहम् के सिवा कुछ नहीं है और इसका समाधान निकालने के लिए हमें हमारे पूर्वजों के पुराने दिनों में लौटना होगा।
एक अन्य लेख में तूतुकुड़ी में वेदांता स्टरलाइट कॉपर यूनिट के खिलाफ विरोध प्रदर्शन को दंगे का रूप देने के लिए नक्सलियों और यहाँ तक कि ईसाई गिरिजाघरों को जिम्मेदार ठहराया गया है। स्वामी अग्निवेश को बदनाम करने के लिए तो एक पूरा अध्याय समर्पित कर दिया है, उनके भगवाधारी सन्यासी के वेश में, गुप्त रूप से ईसाई होने का बेतुका दावा किया गया है! ऐसे ही "JNU मे पनपती पंखुड़ीयाँ" शीर्षक के एक अन्य अपमानजनक अध्याय में JNU की एक युवा महिला छात्रा को निशाना बनाया गया है। युवती व उसके परिवार को अपमानित करने की मंशा से अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया है।
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से इस तरह के वर्चस्ववादी संगठनों द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचार, कुछ व्यक्तियों के खिलाफ उन्माद का एक सार्वजनिक माहौल बनाने में एक उपयोगी उपकरण का काम करते हैं। यह सभी जानते हैं कि शासन के मुख्य अंग आरएसएस के नियंत्रण में है, और वे जोर जबरदस्ती अपनी मनमानी कर रहे हैं, जैसे 2014 (मोदी 1.0) के बाद हमने देखा, ठीक वैसे ही 2019 (मोदी 2.0), संवैधानिक मूल्यों और मानव अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध लोगों के अस्तित्व के लिए एक खतरों भरा समय है।