दिल्ली के अखबारों में आज पहले पन्ने पर खबर है कि पश्चिम बंगाल में जूनियर डॉक्टर के आंदोलन के समर्थन में दिल्ली के डॉक्टर हड़ताल करेंगे। यह हड़ताल क्यों हुई और वास्तविक स्थिति क्या है यह पाठकों को ना बताया जाएगा ना उनकी दिलचस्पी होगी पर जिस ढंग से हालात यहां तक पहुंचे हैं उससे स्पष्ट है कि रणनीति सही चल रही है। और डॉक्टर की हड़ताल से जो लोग परेशान होंगे उनके दिमाग में पश्चिम बंगाल सरकार के प्रति नाराजगी होगी जबकि वास्तविक स्थिति उन्हें बताई ही नहीं गई है और बताया भी जाए तो उनकी परेशानी कम नहीं होगी। दूसरी ओर, यह स्थिति और खबर - एक रणनीति के अनुसार बढ़ती लग रही है।
आपको याद होगा, 12 जून को मैंने लिखा था, वैसे तो कोलकाता की खबरों (या अखबार) की तुलना दिल्ली के अखबारों से करने का कोई मतलब नहीं है पर आजकल बंगाल में राजनीति हो रही है और मामला जरा गर्म चल रहा है। मैंने पहले भी लिखा है कि कोलकाता में भाजपा की लड़ाई दिल्ली के अखबारों में लड़ी जाए तो लाभ देशभर में मिलेगा। और ऐसा हो भी चुका है। इसलिए कोलकाता की खबरें दिल्ली के अखबारों में रहती हैं। प्यार से रहती हैं और पहले पन्ने पर भी नजर आती हैं। कौन सी और कैसे ये आप जानते हैं। जब बताने की जरूरत होगी मैं बताउंगा भी। इस लिहाज से कोलकाता की खबर जिसे टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर छापा है दिल्ली में छप सकती थी। आज कुछ और खबरें छपी हैं पर ये वाली नहीं। आप पहले पन्ने के लिए खबरों के चुनाव की मंशा समझिए।
खबर के मुताबिक कोलकाता के एनआरएस मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल में एक बुजुर्ग मरीज की मौत के बाद चिकित्सकों पर हुए बर्बर हमले से पूरे राज्य के मेडिकल कॉलेज में स्वास्थ्य सेवाएं बंद हो गईं। चिकित्सकों पर हमले की गुंडई को एक नेता ने भड़काने की कोशिश की और एनआरएस अस्पताल तो बंद ही हो गया। खबर से लगता है कि वो नेता भाजपा के मुकुल राय हो सकते हैं। यह खबर दिल्ली के दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। हो सकती थी। पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में हड़ताल की यह खबर दिल्ली के अखबारों में लगभग नहीं छपी। जरूरी भी नहीं है लेकिन ऐसा तब होता जब बंगाल की दूसरी इससे कम महत्वपूर्ण खबरें नहीं छप रही होतीं। कोलकाता की राजनीतिक खबरें छप रही हैं। ऐसी घटनाओं की रिपोर्टिंग हो रही है जो इसीलिए घट रही हैं।
इसे समझने वाले लोगों की संख्या बहुत कम होगी और ज्यादादर लोगों को इसमें भाजपा का संघर्ष दिखाई देगा। संघर्ष है भी पर इसके प्रचार के लिए अखबारों का उपयोग किया जा रहा है। अखबार अपने पाठकों को सिर्फ खबर नहीं दे रहे, उनका उपयोग किया जा रहा है। मुमकिन है, उन्हें इसकी समझ भी नहीं हो और राजनीतिक खबरों को प्राथमिकता देने की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण हो रहा हो। दिल्ली के अखबारों में बंगाल के जूनियर डॉक्टर की हड़ताल की खबर नहीं छपी। दूसरी खबरों से यह दिखाया गया कि राज्य सरकार मनमानी कर रही है। और दिल्ली के रेजीडेंट डॉक्टर कोलकाता के साथियों के समर्थन में कूद पड़े। अगर उन्हें वास्तविकता पता होती तो मुमकिन है ऐसा नहीं होता और निश्चित रूप से पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ दल भाजपा का मुकाबला उसी की शैली में करने में कमजोर है।
दूसरी ओर, दिल्ली में खबर नहीं छपने का असर हुआ और यहां के रेजीडेंट डॉक्टर की हड़ताल अपना ‘काम’ (ममता बनर्जी की छवि बिगाड़ने और कानून व्यवस्था की खराब स्थिति का माहौल बनाने का) करेगी। इसके साथ यह महत्वपूर्ण नहीं रह गया है कि हड़ताल की शुरुआत कब और कैसे हुई। सच पूछिए तो इसकी जरूरत भी नहीं है पर ‘काम’ हो रहा है। मैं अखबारों की भूमिका और उसमें घटतौली के ऐसे ही मामलों को उजागर करना चाहता हूं। दिल्ली के अस्पतालों में अगर डॉक्टर हड़ताल पर हैं तो उसकी खबर छपेगी ही और इसलिए यह खबर किस अखबार में है और किसमें पहले पन्ने पर - यह देखने का कोई मतलब नहीं है। और मेरा मकसद भी वह नहीं है। इसलिए, द टेलीग्राफ की खबर से यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि बंगाल में चल रहे चिकित्सकों के आंदोलन की स्थिति क्या है।
इस संबंध में टेलीग्राफ की खबर का शीर्षक है, शॉक ट्रीटमेंट (बिजले के झटके जैसा उपचार)। दीदी की थेरापी से गुस्सा; रात होने पर उम्मीद। इसके साथ प्रकाशित तस्वीर में दिखाया गया है कि एक कर्मचारी बरद्वान मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल के इमरजेंसी वार्ड में लगे ताले को हथौड़े से तोड़ रहा है। खबर कहती है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एसएसकेएम हॉस्पीटल पहुंच गईं। जूनियर डॉक्टर्स को अपनी हड़ताल वापस लेने या बाहर कर दिए जाने का सामना करने के लिए तैयार रहने का चार घंटे का अल्टीमेटम दिया। इसपर सभी पक्ष राज्य सरकार द्वारा संचालित बंगाल सरकार के मेडिकल कॉलेज में आपातकालीन सेवाएं शुरू करने के तरीके तलाशते नजर आ रहे हैं। उन्होंने कहा, जो लोग यह सब कर रहे हैं उन्हें कोई शर्म नहीं है। मैं इसकी निन्दा करती हूं।
ये बाहरी लोग है। बाहर से लोग आ रहे हैं और हमले कर रहे हैं। सख्त कार्रवाई करते हुए उन्होंने लोगों से अस्पताल, हॉस्टल खाली करने के लिए कहा और स्पष्ट निर्देश दिया है कि अस्पताल में सिर्फ मरीज और वो डॉक्टर रहेंगे जो काम करेंगे। बाकी कोई नहीं। जूनियर डॉक्टर्स ने इसके जवाब में शर्म-शर्म के नारे लगाए और कहा, हमें न्याय चाहिए। मुख्यमंत्री ने युवाओं को चुनौती दी - अपने नेता को बुलाइए जो भी आपका नेता हो, मैं उन्हें देखूं तो। कहने की जरूरत नहीं है कि इस मामले में मुख्यमंत्री की कार्रवाई जरूरत के अनुसार है और राजनीतिक मामले से राजनीतिक ढंग से निपटना है। पर अखबारों की रिपोर्टिंग से क्या माहौल बनता है यह अलग बात है।
टेलीग्राफ ने लिखा है कि ममता की नाराजगी का यह असर हुआ है कि बंगाल के दूसरे अस्पतालों के कई चिकित्सकों ने या तो इस्तीफा दे दिया है या विरोध में इस्तीफा देने की घोषणा की है। इसका असर दिल्ली तक हुआ और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने शुक्रवार को अखिल भारतीय विरोध दिवस की घोषणा की है। उधर, ममता बनर्जी ने बार-बार जोर देकर कहा कि मरीजों की दशा देखकर वे कार्रवाई की चेतावनी देने के लिए मजबूर हैं। इसका असर भी हुआ है। बरद्वान मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल का इमरजेंसी वार्ड ताला तोड़कर खोल दिया गया। मंगलवार से प्रभावित एसएसकेएम का इमरजेंसी वार्ड पुलिस द्वारा खोल दिया गया। पर विरोध कर रहे इंटर्न इमरजेंसी वार्ड से अलग रहे। तथा देर रात तक अपनी हड़ताल तोड़ने से मना करते रहे। राज्यपाल केशरी नाथ त्रिपाठी ने जूनियर डॉक्टर्स से काम पर वापस आने की अपनील की है। अखबार ने लिखा है कि देर रात जब कोलकाता सोने गया तो कई तरह की उम्मीद और चिन्ता थी। आप देखिए, टेलीग्राफ ने जिस खबर को शॉक ट्रीटमेंट कहा है उसे आपके अखबार ने कैसे पेश किया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)
आपको याद होगा, 12 जून को मैंने लिखा था, वैसे तो कोलकाता की खबरों (या अखबार) की तुलना दिल्ली के अखबारों से करने का कोई मतलब नहीं है पर आजकल बंगाल में राजनीति हो रही है और मामला जरा गर्म चल रहा है। मैंने पहले भी लिखा है कि कोलकाता में भाजपा की लड़ाई दिल्ली के अखबारों में लड़ी जाए तो लाभ देशभर में मिलेगा। और ऐसा हो भी चुका है। इसलिए कोलकाता की खबरें दिल्ली के अखबारों में रहती हैं। प्यार से रहती हैं और पहले पन्ने पर भी नजर आती हैं। कौन सी और कैसे ये आप जानते हैं। जब बताने की जरूरत होगी मैं बताउंगा भी। इस लिहाज से कोलकाता की खबर जिसे टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर छापा है दिल्ली में छप सकती थी। आज कुछ और खबरें छपी हैं पर ये वाली नहीं। आप पहले पन्ने के लिए खबरों के चुनाव की मंशा समझिए।
खबर के मुताबिक कोलकाता के एनआरएस मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल में एक बुजुर्ग मरीज की मौत के बाद चिकित्सकों पर हुए बर्बर हमले से पूरे राज्य के मेडिकल कॉलेज में स्वास्थ्य सेवाएं बंद हो गईं। चिकित्सकों पर हमले की गुंडई को एक नेता ने भड़काने की कोशिश की और एनआरएस अस्पताल तो बंद ही हो गया। खबर से लगता है कि वो नेता भाजपा के मुकुल राय हो सकते हैं। यह खबर दिल्ली के दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। हो सकती थी। पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में हड़ताल की यह खबर दिल्ली के अखबारों में लगभग नहीं छपी। जरूरी भी नहीं है लेकिन ऐसा तब होता जब बंगाल की दूसरी इससे कम महत्वपूर्ण खबरें नहीं छप रही होतीं। कोलकाता की राजनीतिक खबरें छप रही हैं। ऐसी घटनाओं की रिपोर्टिंग हो रही है जो इसीलिए घट रही हैं।
इसे समझने वाले लोगों की संख्या बहुत कम होगी और ज्यादादर लोगों को इसमें भाजपा का संघर्ष दिखाई देगा। संघर्ष है भी पर इसके प्रचार के लिए अखबारों का उपयोग किया जा रहा है। अखबार अपने पाठकों को सिर्फ खबर नहीं दे रहे, उनका उपयोग किया जा रहा है। मुमकिन है, उन्हें इसकी समझ भी नहीं हो और राजनीतिक खबरों को प्राथमिकता देने की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण हो रहा हो। दिल्ली के अखबारों में बंगाल के जूनियर डॉक्टर की हड़ताल की खबर नहीं छपी। दूसरी खबरों से यह दिखाया गया कि राज्य सरकार मनमानी कर रही है। और दिल्ली के रेजीडेंट डॉक्टर कोलकाता के साथियों के समर्थन में कूद पड़े। अगर उन्हें वास्तविकता पता होती तो मुमकिन है ऐसा नहीं होता और निश्चित रूप से पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ दल भाजपा का मुकाबला उसी की शैली में करने में कमजोर है।
दूसरी ओर, दिल्ली में खबर नहीं छपने का असर हुआ और यहां के रेजीडेंट डॉक्टर की हड़ताल अपना ‘काम’ (ममता बनर्जी की छवि बिगाड़ने और कानून व्यवस्था की खराब स्थिति का माहौल बनाने का) करेगी। इसके साथ यह महत्वपूर्ण नहीं रह गया है कि हड़ताल की शुरुआत कब और कैसे हुई। सच पूछिए तो इसकी जरूरत भी नहीं है पर ‘काम’ हो रहा है। मैं अखबारों की भूमिका और उसमें घटतौली के ऐसे ही मामलों को उजागर करना चाहता हूं। दिल्ली के अस्पतालों में अगर डॉक्टर हड़ताल पर हैं तो उसकी खबर छपेगी ही और इसलिए यह खबर किस अखबार में है और किसमें पहले पन्ने पर - यह देखने का कोई मतलब नहीं है। और मेरा मकसद भी वह नहीं है। इसलिए, द टेलीग्राफ की खबर से यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि बंगाल में चल रहे चिकित्सकों के आंदोलन की स्थिति क्या है।
इस संबंध में टेलीग्राफ की खबर का शीर्षक है, शॉक ट्रीटमेंट (बिजले के झटके जैसा उपचार)। दीदी की थेरापी से गुस्सा; रात होने पर उम्मीद। इसके साथ प्रकाशित तस्वीर में दिखाया गया है कि एक कर्मचारी बरद्वान मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल के इमरजेंसी वार्ड में लगे ताले को हथौड़े से तोड़ रहा है। खबर कहती है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एसएसकेएम हॉस्पीटल पहुंच गईं। जूनियर डॉक्टर्स को अपनी हड़ताल वापस लेने या बाहर कर दिए जाने का सामना करने के लिए तैयार रहने का चार घंटे का अल्टीमेटम दिया। इसपर सभी पक्ष राज्य सरकार द्वारा संचालित बंगाल सरकार के मेडिकल कॉलेज में आपातकालीन सेवाएं शुरू करने के तरीके तलाशते नजर आ रहे हैं। उन्होंने कहा, जो लोग यह सब कर रहे हैं उन्हें कोई शर्म नहीं है। मैं इसकी निन्दा करती हूं।
ये बाहरी लोग है। बाहर से लोग आ रहे हैं और हमले कर रहे हैं। सख्त कार्रवाई करते हुए उन्होंने लोगों से अस्पताल, हॉस्टल खाली करने के लिए कहा और स्पष्ट निर्देश दिया है कि अस्पताल में सिर्फ मरीज और वो डॉक्टर रहेंगे जो काम करेंगे। बाकी कोई नहीं। जूनियर डॉक्टर्स ने इसके जवाब में शर्म-शर्म के नारे लगाए और कहा, हमें न्याय चाहिए। मुख्यमंत्री ने युवाओं को चुनौती दी - अपने नेता को बुलाइए जो भी आपका नेता हो, मैं उन्हें देखूं तो। कहने की जरूरत नहीं है कि इस मामले में मुख्यमंत्री की कार्रवाई जरूरत के अनुसार है और राजनीतिक मामले से राजनीतिक ढंग से निपटना है। पर अखबारों की रिपोर्टिंग से क्या माहौल बनता है यह अलग बात है।
टेलीग्राफ ने लिखा है कि ममता की नाराजगी का यह असर हुआ है कि बंगाल के दूसरे अस्पतालों के कई चिकित्सकों ने या तो इस्तीफा दे दिया है या विरोध में इस्तीफा देने की घोषणा की है। इसका असर दिल्ली तक हुआ और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने शुक्रवार को अखिल भारतीय विरोध दिवस की घोषणा की है। उधर, ममता बनर्जी ने बार-बार जोर देकर कहा कि मरीजों की दशा देखकर वे कार्रवाई की चेतावनी देने के लिए मजबूर हैं। इसका असर भी हुआ है। बरद्वान मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल का इमरजेंसी वार्ड ताला तोड़कर खोल दिया गया। मंगलवार से प्रभावित एसएसकेएम का इमरजेंसी वार्ड पुलिस द्वारा खोल दिया गया। पर विरोध कर रहे इंटर्न इमरजेंसी वार्ड से अलग रहे। तथा देर रात तक अपनी हड़ताल तोड़ने से मना करते रहे। राज्यपाल केशरी नाथ त्रिपाठी ने जूनियर डॉक्टर्स से काम पर वापस आने की अपनील की है। अखबार ने लिखा है कि देर रात जब कोलकाता सोने गया तो कई तरह की उम्मीद और चिन्ता थी। आप देखिए, टेलीग्राफ ने जिस खबर को शॉक ट्रीटमेंट कहा है उसे आपके अखबार ने कैसे पेश किया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)