नथूराम गोडसे. यही सही और असली नाम है, नाथू राम गोडसे का. वैसे उनके बचपन का नाम “रामचन्द्र” था. संयोग देखिए, बापू के अंतिम शब्द भी “हे राम” थे. अब गोडसे भारत के पहले हिन्दू आतंकी थे या नहीं या कि वे आतंकी थे या कि सिर्फ एक हत्यारे, इस पर अंतहीन बहस हो रही है, हो सकती है. इससे थोडा अलग बात करते है. वैसे मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि एक विचार को हिंसक तरीके से पराजित करने की हर कोशिश आतंकवाद ही है और गांधी इस सदी के सबसे बडे विचारों में से एक हैं.
तो बात ये है कि गोडसे एक पत्रकार थे. उनके अखबार का नाम था “हिन्दू राष्ट्र”. पुणे से निकलता था. गोडसे की अस्थियां अब भी पुणे में सुरक्षित रखी है. उनकी इच्छा के मुताबिक उसका विसर्जन तभी होगा जब सिन्धु नदी भारत में मिल जाए और फिर से अखंड भारत का निर्माण हो जाए.
तो अखंड भारत की कामना रखने वाले, सिर्फ हिन्दू-हिन्दुत्व की चिंता करने वाले एक संपादक के अखबार का कंटेट क्या रहा होगा, इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है. वैसे भी नाथूराम गोडसे का अदालत में दिया अंतिम बयान पढिए, तो गांधी वध के वे जो भी कारण गिनाते हैं, उससे ये कहीं नहीं लगता कि गांधी की हत्या किसी सिरफिरे इंसान ने की है. बल्कि एक ऐसे इंसान ने की, जो भलीभांति एक विचार को अपने भीतर इतना अधिक आत्मसात कर चुका था, कि वह अपने से अलग विचार को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकता था.
खुद उनकी भतीजी हिमानी सावरकर भी मानती रही हैं कि नाथू राम गोडसे एक समझदार और अपने शहर के सम्मानित (संपादक होने के भी नाते) व्यक्ति थे और वे मानते थे कि भारत विभाजन के कारण हिन्दुओं पर जो अत्याचार हुआ, उसके सबसे बडे जिम्मेवार गांधी हैं. खुद गोडसे ने भी अपने बयान में कहा है कि चूंकि इस अपराध के लिए गांधी को सजा देने के लिए भारत में कोई कानून नहीं है, इसलिए मैंने खुद उन्हें सजा देने का निर्णय लिया.
ध्यान दीजिए, उपरोक्त सभी पंक्तियों को मौजूदा दौर की पत्रकारिता और संपादकों से जोडते हुए, नाथू राम गोडसे की पत्रकारिता के सन्दर्भ में देखने की कोशिश करेंगे तो आप तब के पत्रकार गोडसे और अब के पत्रकार “गोडसे” में काफी हद तक समानता पाएंगे. मसलन, कश्मीर की हिंसा बनाम पूर्वोत्तर की हिंसा बनाम नक्सल हिंसा. हिंसा के इन विभिन्न प्रकारों का विश्लेषण करते आज के संपादकों को सुनिए. अगर आप अपने भीतर रत्ती भर भी संवेदनशीलता या समझदारी रखते हैं तो आप समझ जाएंगे कि “हिन्दू राष्ट्र” के संपादक गोडसे और आज के टीवी चैनलों के संपादकों की विचारधारा में क्या समानता है.
अंत में, सिर्फ इतना कि गोडसे ने गांधी को मारा. ये महज एक घटना है. दरअसल, तब एक विचार ने एक विचार को मारने की कोशिश की थी. अच्छी बात ये रही कि गोडसे का विचार सिर्फ गांधी के शरीर को ही मार पाया. गांधी का विचार आत्मा की तरह नश्वर है. सदियों-सदियों तक जिन्दा रहेगा.
लेकिन, जिस गांधी की विचार की हत्या उस वक्त का पत्रकार गोडसे नहीं कर पाया...उसे आज के पत्रकार गोडसे बहुत ही सुनियोजित तरीके से मारने की कोशिश कर रहे हैं...आज के नाथू राम गोडसे से डरिए...1948 का गोडसे तो उसी दिन खत्म हो चुका था, जिस दिन उसने एक विचार की हत्या के लिए हिंसा का सहारा लिया...लेकिन आज के गोडसे बहुत शातिर है...वे हिंसा नहीं...अपनी घृणित मानसिकता और बिकी हुई आत्मा से गांधी की हत्या कर रहे है....
(लेखक वरिष्ठ हैं।)
तो बात ये है कि गोडसे एक पत्रकार थे. उनके अखबार का नाम था “हिन्दू राष्ट्र”. पुणे से निकलता था. गोडसे की अस्थियां अब भी पुणे में सुरक्षित रखी है. उनकी इच्छा के मुताबिक उसका विसर्जन तभी होगा जब सिन्धु नदी भारत में मिल जाए और फिर से अखंड भारत का निर्माण हो जाए.
तो अखंड भारत की कामना रखने वाले, सिर्फ हिन्दू-हिन्दुत्व की चिंता करने वाले एक संपादक के अखबार का कंटेट क्या रहा होगा, इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है. वैसे भी नाथूराम गोडसे का अदालत में दिया अंतिम बयान पढिए, तो गांधी वध के वे जो भी कारण गिनाते हैं, उससे ये कहीं नहीं लगता कि गांधी की हत्या किसी सिरफिरे इंसान ने की है. बल्कि एक ऐसे इंसान ने की, जो भलीभांति एक विचार को अपने भीतर इतना अधिक आत्मसात कर चुका था, कि वह अपने से अलग विचार को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकता था.
खुद उनकी भतीजी हिमानी सावरकर भी मानती रही हैं कि नाथू राम गोडसे एक समझदार और अपने शहर के सम्मानित (संपादक होने के भी नाते) व्यक्ति थे और वे मानते थे कि भारत विभाजन के कारण हिन्दुओं पर जो अत्याचार हुआ, उसके सबसे बडे जिम्मेवार गांधी हैं. खुद गोडसे ने भी अपने बयान में कहा है कि चूंकि इस अपराध के लिए गांधी को सजा देने के लिए भारत में कोई कानून नहीं है, इसलिए मैंने खुद उन्हें सजा देने का निर्णय लिया.
ध्यान दीजिए, उपरोक्त सभी पंक्तियों को मौजूदा दौर की पत्रकारिता और संपादकों से जोडते हुए, नाथू राम गोडसे की पत्रकारिता के सन्दर्भ में देखने की कोशिश करेंगे तो आप तब के पत्रकार गोडसे और अब के पत्रकार “गोडसे” में काफी हद तक समानता पाएंगे. मसलन, कश्मीर की हिंसा बनाम पूर्वोत्तर की हिंसा बनाम नक्सल हिंसा. हिंसा के इन विभिन्न प्रकारों का विश्लेषण करते आज के संपादकों को सुनिए. अगर आप अपने भीतर रत्ती भर भी संवेदनशीलता या समझदारी रखते हैं तो आप समझ जाएंगे कि “हिन्दू राष्ट्र” के संपादक गोडसे और आज के टीवी चैनलों के संपादकों की विचारधारा में क्या समानता है.
अंत में, सिर्फ इतना कि गोडसे ने गांधी को मारा. ये महज एक घटना है. दरअसल, तब एक विचार ने एक विचार को मारने की कोशिश की थी. अच्छी बात ये रही कि गोडसे का विचार सिर्फ गांधी के शरीर को ही मार पाया. गांधी का विचार आत्मा की तरह नश्वर है. सदियों-सदियों तक जिन्दा रहेगा.
लेकिन, जिस गांधी की विचार की हत्या उस वक्त का पत्रकार गोडसे नहीं कर पाया...उसे आज के पत्रकार गोडसे बहुत ही सुनियोजित तरीके से मारने की कोशिश कर रहे हैं...आज के नाथू राम गोडसे से डरिए...1948 का गोडसे तो उसी दिन खत्म हो चुका था, जिस दिन उसने एक विचार की हत्या के लिए हिंसा का सहारा लिया...लेकिन आज के गोडसे बहुत शातिर है...वे हिंसा नहीं...अपनी घृणित मानसिकता और बिकी हुई आत्मा से गांधी की हत्या कर रहे है....
(लेखक वरिष्ठ हैं।)