कौन जीतेगा? इस सवाल का जवाब नतीजा आने से पहले क्यों जान लेना चाहते हैं? इस सवाल ने पूरे चुनाव को एक सवाल में समेट कर रख दिया है। मुद्दों की तो बात नहीं हैं। वो टीवी और अख़बारों के कवरेज़ में होते हैं मगर किसी कोने में सजावट की तरह। चुनाव से पहले के सर्वे में भी हार और जीत के सवाल होते हैं। सब कुछ वॉक्स पॉप है। कहीं का सवाल, कहीं का जवाब है। हर सवाल मनोरंजक जवाब की चाह में होता है। एक सरकार कैसे काम करती है, इसकी समीक्षा ही समाप्त हो गई है। अभी जिसकी सरकार बनेगी तो ऐसी ख़बरें उछलेंगी कि शिक्षा मंत्री कौन बनेगा, स्वास्थ्य किसे मिलेगा, मत्स्य पालन किससे जिम्मे जाएगा मगर चुनाव आता है तो कोई इनके मंत्रालयों के कामकाज को पूछता तक नहीं है। इसतरह से हम हर चुनाव में सवालों को संकुचित करते जा रहे हैं।
नतीजा यह होता है कि टीवी के चुनावी दर्शकों को पता नहीं होता कि राज्य के दूसरे हिस्से का दर्शक जो बोल रहा है, वो वाक़ई में हक़ीक़त है या नहीं। टीवी ने ख़ासतौर से यही तरीक़ा बना लिया है। सारे फार्मेट एक वाक्स पॉप से सौ वॉक्स पॉप के लिए बने हैं। टीवी जनता को ही जनता से काटता है। वह एक नए तरह के अनुभव को उसके ऊपर थोप देता है। चुनाव की जो हवा बनती है वो जनता की हवा से अलग होती है। जनता भी कई तरह की होती है। कुछ लोग रिपोर्टर या टीवी सेट के घेरे में नहीं होते हैं। वो परिधि पर होते हैं। जिन्हें बोलना नहीं आता मगर चाहते हैं कि कोई बोले। टीवी उनका विकल्प बनकर आता है। उनकी बात बोलने के लिए नहीं, बल्कि अपनी बात थोपने के लिए।
हम इतने बड़े लोक- अभ्यास से बस इतना ही जानना चाहते हैं? सिर्फ कौन जीतेगा? उसमें भी सवालों की विविधता समाप्त है। हर उम्मीदवार एक अलग स्थिति में लड़ रहा होता है। टीवी ने इन संदर्भों को छोड़ ही दिया है। अब रिपोर्टर की जगह गाँव गाँव में रिसर्चर घूम रहे हैं। उनके बीच रहते हैं। समझते हैं। वही रिपोर्टर चार दिन बाद टीवी में एक्सपर्ट बनकर आ जाता है। टीवी का काम मुफ़्त में हो जाता है और वह एक माध्यम के रूप में प्रासंगिक बना रहता है। मैंने टीवी पर एक भी चुनावी कवरेज नहीं देखा। अपने सहयोगियों की दो चार रिपोर्ट को छोड़ दें तो मन नहीं किया कि बैठ कर देखा जाए। लाखों रुपये ख़र्च कर दो वॉक्स पॉप ढूँढे जा रहे हैं। किसी को अस्पताल या स्कूल में भी झाँक आना था। कैमरे से देख आना था कि गाँव के भीतर कैसा दिखता है। आपको लग सकता है कि वॉक्स पॉप विविधता ला रहा है लेकिन ध्यान से देखिए तो पता चलेगा कि इसका अतिरेक जनता को अ-जनता बना रहा है।
मुझे टीवी के चुनावी कवरेज़ को लेकर बहुत समस्या होती है। मेहनत के नाम पर पसीना बहता है। उससे सड़क नहीं बनती दिखती है। एग्जिट पोल देखकर लगा कि टीवी स्टूडियो में अय्याशी छाई हो। यह सब दिन एंकर के प्रासंगिक होने का होता है। उनके ट्विटर पर जाकर देखिए। जैसे जहाज़ उड़ाने वाले हो। इनमें से किसी एक की स्टोरी आपको न तो याद होगी और न ढंग की स्टोरी की होगी। जब आप गाजे-बाजे के साथ जाते है तो उसका आउटकम क्या है? कोई मीडिया समीक्षक भी नहीं है जो वाक़ई इसकी गंभीर समीक्षा कर दे। अख़बारों की समीक्षा भी दोयम दर्जे की होती है। तो टीवी के ज़रिए लोकतंत्र का फालतूकरण हो रहा है। सतही बनाया जा रहा है। जनता को सूचना से काट देना ही लोकतंत्र का सतहीकरण है। एक गंभीर चुनाव को टीवी फ़न में बदलता है। मनोरंजन में।
न्यूज़ चैनल लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सतही बनाकर उसके असर को ख़त्म कर देते हैं। अगर चुनाव की संस्था जनता के बीच ही ख़त्म कर दी जाए तो समाज में भीड़ और भगदड़ का ही रोल होगा। रिपोर्टिंग बंद हो गई है। जिस एंकर को आप स्टार मानते हैं दरअसल वो टीवी का आवारा चेहरा है। हर तरह के संदर्भों और सूचनाओं से कटा हुए यह एंकर जनता को भी अपने जैसा बनाता है। जनता का वह तबक़ा जो इनके दर्शन क्षेत्र में आता है। आपको ऐसा टीवी मुबारक।
नतीजा यह होता है कि टीवी के चुनावी दर्शकों को पता नहीं होता कि राज्य के दूसरे हिस्से का दर्शक जो बोल रहा है, वो वाक़ई में हक़ीक़त है या नहीं। टीवी ने ख़ासतौर से यही तरीक़ा बना लिया है। सारे फार्मेट एक वाक्स पॉप से सौ वॉक्स पॉप के लिए बने हैं। टीवी जनता को ही जनता से काटता है। वह एक नए तरह के अनुभव को उसके ऊपर थोप देता है। चुनाव की जो हवा बनती है वो जनता की हवा से अलग होती है। जनता भी कई तरह की होती है। कुछ लोग रिपोर्टर या टीवी सेट के घेरे में नहीं होते हैं। वो परिधि पर होते हैं। जिन्हें बोलना नहीं आता मगर चाहते हैं कि कोई बोले। टीवी उनका विकल्प बनकर आता है। उनकी बात बोलने के लिए नहीं, बल्कि अपनी बात थोपने के लिए।
हम इतने बड़े लोक- अभ्यास से बस इतना ही जानना चाहते हैं? सिर्फ कौन जीतेगा? उसमें भी सवालों की विविधता समाप्त है। हर उम्मीदवार एक अलग स्थिति में लड़ रहा होता है। टीवी ने इन संदर्भों को छोड़ ही दिया है। अब रिपोर्टर की जगह गाँव गाँव में रिसर्चर घूम रहे हैं। उनके बीच रहते हैं। समझते हैं। वही रिपोर्टर चार दिन बाद टीवी में एक्सपर्ट बनकर आ जाता है। टीवी का काम मुफ़्त में हो जाता है और वह एक माध्यम के रूप में प्रासंगिक बना रहता है। मैंने टीवी पर एक भी चुनावी कवरेज नहीं देखा। अपने सहयोगियों की दो चार रिपोर्ट को छोड़ दें तो मन नहीं किया कि बैठ कर देखा जाए। लाखों रुपये ख़र्च कर दो वॉक्स पॉप ढूँढे जा रहे हैं। किसी को अस्पताल या स्कूल में भी झाँक आना था। कैमरे से देख आना था कि गाँव के भीतर कैसा दिखता है। आपको लग सकता है कि वॉक्स पॉप विविधता ला रहा है लेकिन ध्यान से देखिए तो पता चलेगा कि इसका अतिरेक जनता को अ-जनता बना रहा है।
मुझे टीवी के चुनावी कवरेज़ को लेकर बहुत समस्या होती है। मेहनत के नाम पर पसीना बहता है। उससे सड़क नहीं बनती दिखती है। एग्जिट पोल देखकर लगा कि टीवी स्टूडियो में अय्याशी छाई हो। यह सब दिन एंकर के प्रासंगिक होने का होता है। उनके ट्विटर पर जाकर देखिए। जैसे जहाज़ उड़ाने वाले हो। इनमें से किसी एक की स्टोरी आपको न तो याद होगी और न ढंग की स्टोरी की होगी। जब आप गाजे-बाजे के साथ जाते है तो उसका आउटकम क्या है? कोई मीडिया समीक्षक भी नहीं है जो वाक़ई इसकी गंभीर समीक्षा कर दे। अख़बारों की समीक्षा भी दोयम दर्जे की होती है। तो टीवी के ज़रिए लोकतंत्र का फालतूकरण हो रहा है। सतही बनाया जा रहा है। जनता को सूचना से काट देना ही लोकतंत्र का सतहीकरण है। एक गंभीर चुनाव को टीवी फ़न में बदलता है। मनोरंजन में।
न्यूज़ चैनल लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सतही बनाकर उसके असर को ख़त्म कर देते हैं। अगर चुनाव की संस्था जनता के बीच ही ख़त्म कर दी जाए तो समाज में भीड़ और भगदड़ का ही रोल होगा। रिपोर्टिंग बंद हो गई है। जिस एंकर को आप स्टार मानते हैं दरअसल वो टीवी का आवारा चेहरा है। हर तरह के संदर्भों और सूचनाओं से कटा हुए यह एंकर जनता को भी अपने जैसा बनाता है। जनता का वह तबक़ा जो इनके दर्शन क्षेत्र में आता है। आपको ऐसा टीवी मुबारक।