'नीरज' की कविताओं का खुमार आसानी से उतरता ही नही

Written by Girish Malviya | Published on: July 20, 2018
जिसमें इन्सान के दिल की न हो धडकन 'नीरज'
शायरी तो है वो अख़बार के कतरन की तरह.



जब चले जाएँगे हम लौट के सावन की तरह
याद आयेंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह

वाकई नीरज बहुत याद आओगे , साल भर पहले एक संस्मरण लिखा था आज उनकी मृत्यु पर फिर याद आया...

'इंदौर एक जमाने मे अपने कवि सम्मेलनों के लिए मशहूर था....... अब वह बात नही रही ...........उस जमाने मे इंदौर का श्रमिक क्षेत्र मे इतनी अधिक साइकिल हुआ करती थी क़ि मिल के हूटर बजने पर साइकिलों की रेलमपेल से रास्ते जाम हो जाते थे,............और रातो मे मिलो की खाली पड़ी जमीनो पर कवि सम्मेलनों की भीड़ पसर जाया करती थी..........

पुरे मैदान पर थोड़ी थोड़ी दूरी पर चोंगे कसे जाते, और ऊँचे खम्बो पर हेलोजन बाँध दी जाती,........चना जोर गरम और दानों को गरम करती हंडियो को लेकर चलते फिरते दुकानदार मैदान पकड़ लेते,.........कलाली देर रात तक खुली रहती थी,काफी ऊँचा मंच सजाया जाता ताकि दूर दूर से लोग अपने प्रिय कवियों को देख सके,..............किसी बड़े सेठ को आयोजक बना कर उसका स्वागत सत्कार कर दिया जाता और थोड़ी बहुत राजनीति की औपचारिकता निभा कर कवि सम्मेलन शुरू हो जाता.................

स्थानीय कवियों को शुरुआत मे ही निपटा लिया जाता था फिर कवियत्रियों की बारी आती उस जमाने की कवियत्रिया खूब गाढ़ा मेकअप कर के स्टेज पर आती,कनखियों से एक दूसरे को देखते हुए मंच पर बैठे कवि जोर जोर से महिला कवियत्रियों की कविता पर बहुत खूब बहुत खूब कहते रहते, ........भीड़ कसमसाने लगती तो संचालनकर्ता हास्यकवियो को आगे भेज देते,.............धीरे धीरे मजमा जमने लगता,............रात जवान होने लगती कवियों के स्वर तेज और तेज होने लगते,और अध्दे पव्वे की बोतलें नैपथ्य में निपटाई जाती .................

उन दिनों मंचीय कवियों की बहुत इज्जत हुआ करती थी,पर उन कवियों मे एक अमिताभ बच्चन हुआ करते थे उन्हें कवियों का अमिताभ इसलिए कहा क्योंक़ि, उन्हें सबसे आखिर के लिए बचा कर रखा जाता था ...............सब जानते थे क़ि उनको सुनते ही भीड़ हिरन हो जायेगी इसलिए देर रात को लगभग आखिर मे उनकी लगभग खड़खड़ाती हुई सी आवाज गूंजती और भीड़ का शोर अचानक थम जाता, और सिर्फ एक ही आवाज उस ख़ामोशी पर तारी हो जाती जिसका नाम गोपाल दास नीरज था................

कहते है कि नीरज ने होश मे कभी कविता नहीं सुनाई, पर यह भी सच है क़ि सुनाने वाला ही नहीं खुद सुनने वाला भी उनकी कविता के नशे मे झूम जाया करता था जिन कानो नीरज के उस दौर की कविताए इस अंदाज मे सुनी है उन कानो से उसका नशा आज तक नही उतरा........
फरमाइशें होती क़ि "कारवाँ" सुनाइये ..............और फिर वह हल्का सा तरन्नुम लिए एक हस्की आवाज गूंजती और लोग उनींदे से जाग जाते .......

स्वप्न झरे फूल से
मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे!

ओर धीरे धीरे कविता अपने क्लाइमेक्स पर पुहचती

माँग भर चली कि एक जब नयी-नयी किरण
ढोलकें धुनुक उठीं ठुमुक उठे चरण-चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन

(दुल्हन चली दुल्हन चली' पर जो शोर बरपा होता कि बस, आज भी वो शोर कानो में गूंजता है.....)

गाँव सब उमड़ पडा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भारी
गाज एक वह गिरी
पुंछ गया सिन्दूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से
दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे

उसके बाद बस नीरज को ही लोग सुनते रहते और फरमाइशों के दौर चलते रहते

भोर के 4 बजे श्रमिक क्षेत्र से जुड़े मोहल्लों में साइकिल की खटर पटर गूंजती और घर के सामने आकर साइकिल के स्टैंड की आवाज खडाक सी जोर से आती और चर्र करते हुए किवाड़ खोलते हुए महिलाएं पुछती आज बहुत देर लगा दी तो पुरुष कहते .....कुछ नही जरा नीरज को सुनने रुक गए थे..............

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