पिछले कुछ दिनों में कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। साहब ने नौ किलोमीटर लंबी सड़क का उद्घाटन किया, पेट्रोल एक दिन एक पैसा सस्ता हुआ, डब्बू अंकल का गोविंदा वाला डांस वायरल हुआ, एक महिला ने भूख से फिर दम तोड़ दिया, दलितों के कई जगह घर जलाए गए, मध्यप्रदेश में एक बूढ़े किसान ने खेत में ही दम तोड़ दिया।
Image: Hindustan Times
अब इनमें सबसे महत्वपूर्ण बातें देखी जाएं तो महिला का भूख से मरना, दलितों का घर जला देना और किसान का दम तोड़ देना है पर महत्वपूर्ण चर्चा का विषय इन तीन बातों के अलावा अन्य रहीं।
इन घटनाओं से समाज पर क्या फर्क पड़ा ? साहब उद्घाटन करके निकल गए। उन्हें जो TRP चाहिए थी उन्होंने बटोर ली। आज वे टूटी सड़क के गड्ढे भर दिए जाने पर उसका उद्घाटन कर दें तो भी भक्ति में डूबी जनता वाह मोदी जी वाह कहकर उन्हें आंखों पर बिठाएगी। उनपर तंज कसा जाए कि मोदी जी ने बहुत छोटी सड़क का उद्घाटन किया है, यह उनके पद और गरिमा को शोभा नहीं देता तो भक्ति में डूबी जनता कराह उठेगी, चीखते हुए कहेगी- पिछले साठ साल आप कहाँ थे ?
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अब इनमें सबसे महत्वपूर्ण बातें देखी जाएं तो महिला का भूख से मरना, दलितों का घर जला देना और किसान का दम तोड़ देना है पर महत्वपूर्ण चर्चा का विषय इन तीन बातों के अलावा अन्य रहीं।
इन घटनाओं से समाज पर क्या फर्क पड़ा ? साहब उद्घाटन करके निकल गए। उन्हें जो TRP चाहिए थी उन्होंने बटोर ली। आज वे टूटी सड़क के गड्ढे भर दिए जाने पर उसका उद्घाटन कर दें तो भी भक्ति में डूबी जनता वाह मोदी जी वाह कहकर उन्हें आंखों पर बिठाएगी। उनपर तंज कसा जाए कि मोदी जी ने बहुत छोटी सड़क का उद्घाटन किया है, यह उनके पद और गरिमा को शोभा नहीं देता तो भक्ति में डूबी जनता कराह उठेगी, चीखते हुए कहेगी- पिछले साठ साल आप कहाँ थे ?
पेट्रोल एक पैसा सस्ता हुआ तो उससे क्या दहेज में बुलट या वेस्पा मांगने का चलन कम हो गया ? ऐसे व्यक्ति जो दिनभर मेहनत करते तो शाम को घर का चूल्हा जलता वे भी दहेज में मोटरसाइकिल से कम की डिमांड नहीं कर रहे। भारतीय समाज मे लड़के का बाप होने का यही तो सुख है।
इन चीजों की आलोचना और चर्चा से समाज मे कोई फर्क नहीं पड़ता। ये महज मौज के लिए हैं। जैसे डब्बू अंकल का गोविंदा वाला डांस।
चर्चा तो जमकर इस बात की होनी चाहिए थी कि आज़ादी के 70 साल बाद भी दलितों के ही घर क्यों फूंके जाते ? गोदामों में दानें सड़ रहे हैं तो कोई भूख से कैसे मर जा रहा है ?
आजकल एक विज्ञापन खूब आ रहा TV रेडियो पर- एक सज्जन आकर पूछते हैं, क्या आपके परिजनों ने यूरिया के लिए लाठियाँ खाई हैं ? फिर वे बताते हैं कि उनके परिजनों ने खाई हैं वह भी महज यूरिया के लिए। फिर वे सरकार की तारीफ में कहते हैं- लेकिन अब समय बदल गया है, देश मे भरपूर यूरिया मिल रही है। किसान सम्मान के साथ खुशी खुशी किसानी कर रहा है। विज्ञापन में वह व्यक्ति आगे बताता है कि पिछले अड़तालीस महीनों में मोदी जी ने सब बदलकर रख दिया है।
मैं पूछता हूँ, सरकार को विज्ञापन बनाने वाली एजेंसी को या आल इंडिया रेडियो को पिछले साल दिल्ली में तमिलनाडु के किसान धरना देते वक्त मूत्र पीते हुए नहीं दिखाई दिए ? नासिक से चलकर मुम्बई पहुंचने वाले किसानों के तलवे में फूटे हुए छाले नहीं दिखाई दिए ? या ये लोग पिछले कुछ दिनों से देश भर में हो रहे किसान आंदोलन क्यों नहीं देख पा रहे ?
जब सबकुछ सही हो गया है तो ये लोग आंदोलन क्यों कर रहे हैं ? जवाब मांगो तो कुछ नया मार्किट में आ जाता है। पिछले दिनों हुए किसान आंदोलन को प्रणव मुखर्जी का आरएसएस की सभा मे जाना खा गया।
रणनीति तो यही होती है कि प्रमुख मुद्दों को छोटे छोटे इंटरटेन्मेंट वाले मुद्दे लाकर विरोधियों का ध्यान डाइवर्ट कर दिया जाए यदि ऐसा नहीं होता तो पिछले सप्ताह चर्चा में प्रणव मुखर्जी और संघ नहीं MP में खेत मे दम तोड़ देने वाला बूढ़ा किसान होता।