भारतीय जनता पार्टी ने मुस्लिम समाज में तीन बार तलाक कह पति द्वारा पत्नी से संबंध विच्छेद कर लेने की प्रथा के खिलाफ एक अभियान छेड़ा हुआ है जो अत्यंत काबिले तारीफ है। मुस्लिम धर्म गुरूओं द्वारा यह कहना कि यह उनके धार्मिक कानूनों के मामले में हस्तक्षेप है उसी तरह की बात है जब किसी घर के अंदर किसी प्रताड़ित की जाने वाली महिला के रिश्तेदार कहें कि यह उनके घर का आंतरिक मामला है। जिस तरह से किसी घर के अंदर किसी महिला को प्रताड़ित होने नहीं दिया जा सकता उसी तरह मुस्लिम समाज की महिलाओं को उनके पतियों द्वारा तीन बार तलाक कहने के खतरे के साथ नहीं छोड़ा जा सकता। चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम दोनों समाजों में पितृसत्तात्मक सोच हावी है जो अपनी जन्मी और अजन्मी लड़ियों के प्रति काफी क्रूर रवैया अपनाती है।
भारत में लिंग अनुपात 940 है जबकि हमारे पड़ोसी बंग्लादेश में यह 997 है। यानी भारत में कन्या भ्रूण हत्या एक बड़ी समस्या है। बच्चों का अपहरण कर उन्हें वेश्यावृत्ति अथवा भीख मांगने के काम में लगाना भी बड़ी समस्याएं हैं। ये गैर-कानूनी काम दिन-दहाड़े होते हैं। यह बात समझ से परे है कि कन्या भू्रण हत्या अथवा बच्चों को देह व्यापार में ढकेलने अथवा भिखमंगा बनाने के मुद्दों को छोड़ तीन बार तलाक के मुद्दे को इतनी महत्व क्यों दिया जा रहा है? क्या जो लोग इन अन्य मुद्दों पर चुप हैं वे इन अपराधों के लिए जिम्मेदार नहीं?
प्रधान मंत्री को पूरा हक है कि वे मुस्लिम महिलाओं के प्रति सहानुभूति रखते हुए उनके साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएं। कुछ मुस्लिम महिलाएं इस बात से काफी खुश हैं कि कोई दल और वह भी उसका प्रधान मंत्री पहली बार इतने स्पष्ट रूप से तीन बार तलाक कहने की प्रथा के खिलाफ भूमिका ले रहा है। परन्तु जैसे प्रधान मंत्री को मुस्लिम महिलाओं के हक की बात उठाने का अधिकार है उसी तरह कोई उनकी पत्नी जशोदाबेन के अधिकारों की बात भी उठा सकता है, जो बिना तलाक के पिछले करीब पांच दशकों से एकल महिला का जीवन जीने को मजबूर हैं।
ऊपर दिए गए तर्क के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह नरेन्द्र मोदी का निजी मामला है। अमरीका में जब कोई सार्वजनिक जीवन में आता है तो उसके पारिवारिक मामलों पर खुली चर्चा होती है। आम अमरीकी नागरिक जो अपने पारिवारिक मामले में हस्तक्षेप नहीं चाहता अपने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार से अपेक्षा करता है कि उसका पारिवारिक जीवन स्वच्छ होगा। यदि किसी की कोई कमजारी पकड़ी जाती है तो उसकी उम्मीदवारी तक खतरे में पड़ जाती है।
नरेन्द्र मोदी पहले कह चुके हैं कि उन्होंने सार्वजनिक कार्य करने के लिए पारिवारिक जीवन का त्याग किया। यह बात सही है कि वे शादी के बाद सन्यास लेकर हिमालय चले गए थे किंतु यह भी हकीकत है कि वे तीन वर्षों बाद वापस आए और फिर अपने एक चाचा के व्यवसाय में लग गए। यदि जशोदाबेन के दृष्टिकोण से चीजों को देखा जाए तो जिसे वे त्याग कह रहे हैं उसे पारिवारिक जिम्मेदारियों से भागना भी कहा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी में भी सामान्य इंसानों जैसी कमजोरियां हैं। उन्होंने वह महंगा कोट पहना जिसपर उनका नाम कई बार लिखा हुआ था या अपने प्रधान मंत्रित्व काल के प्रारम्भिक दो वर्षों में हरेक विदेश यात्रा पर विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ सेल्फी खींचते थे। जाहिर है कि अपने त्याग से वे सांसरिक चीजों से ऊपर नहीं उठे हैं।
दूसरी तरफ जशोदाबेन के मन में उनके प्रति अभी भावना शेष है और उन्होंने कहा है कि उपयुक्त समय आने पर वे उनसे मिलेंगी। इन दोंनो के बीच यदि किसी ने त्याग किया है तो वह जशोदाबेन ने, क्योंकि अलग होने के निर्णय पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था। यह निर्णय तो उनके ऊपर थोप दिया गया। नरेन्द्र मोदी कह सकते हैं कि शादी का ही निर्णय उनके ऊपर थोपा गया। किंतु भारतीय समाज में तो ज्यादातर शादियां ऐसे ही होती हैं। मां-पिता की राय से जोड़ी बनाई जाती है और शादी के बाद युगल ये अपेक्षा की जाती है कि वे पारिवार व समाज की अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे और दाम्पत्य जीवन के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करेंगे। क्या यह भारतीय संस्कृति नहीं है?
जशोदाबेन ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत सरकार से यह जानने की कोशिश की कि प्रधान मंत्री की पत्नी के रूप में उनके क्या अधिकार हैं तथा उनको सुरक्षा उपलब्ध कराने के आदेश की प्रति उन्होंने मांगी। किंतु उन्हें कोई भी सूचना नहीं दी गई। मजेदार बात यह है कि वे सूचनाएं मांग रही थीं जशोदाबेन नरेन्द्रभाई मोदी के नाम से और अधिकारियों के जवाब आ रहे थे जशोदाबेन चिमनभाई मोदी के नाम पर। चिमनभाई उनके पिता का नाम है। जशोदाबेन ने जब विदेश से अपने रिश्तेदारों द्वारा आमंत्रण भेजे जाने पर पासपोर्ट बनवाने हेतु आवेदन दिया तो उनका आवेदन अस्वीकृत हो गया क्योंकि वे अपना विवाह प्रमाण पत्र अथवा पति की ओर से शपथपत्र नहीं दाखिल कर पाईं। क्या यह उनके पति की जिम्मेदारी नहीं थी कि उन्हें सूचनाएं और पासपोर्ट उपलब्ध कराया जाता? जशोदाबेन को तो एक आम नागरिक के रूप में भी अपने अधिकार नहीं मिले। उनके अधिकारों के लिए कौन खड़ा होगा? दूरदर्शन के एक अधिकारी ने जब उनसे साक्षात्कार को प्रसारित किया तो उसका तबदला अहमदाबाद से पोर्ट ब्लेयर, जहां अंग्रेज काले पानी की सजा के लिए भेजते थे, कर दिया गया।
यानी सरकार ने जशोदाबेन का काम तो किया नहीं, जिसने उनकी मदद करने की कोशिश की उस अधिकारी को सजा दे डाली। क्या नरेन्द्र मोदी जशोदाबेन से डरते हैं? यदि नहीं तो उन्हें जशोदाबेन द्वारा मांगी गई जानकारी व उनका पासपोर्ट उनको दिलवाना चाहिए। वे कोई बहुत बड़ी चीजें नहीं मांग रही हैं। जशोदाबेन की तुलना गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा, तुलसी दास की पत्नी रत्नावली या फिर सावित्री, सीता और शकुंतला से की जाती है जिन्होंने अपने पतियों के लिए त्याग किया। हम कोई पौराणिक युग में नहीं रह रहे। धर्म या धर्मगं्रथों के आधार पर इस तरह के कड़े फैसलों को जायज नहीं ठहराया जा सकता। जिस तरह इस्लाम के नाम पर तीन बार तलाक कहने की प्रथा को उचित नहीं माना जा सकता उसी तरह नरेन्द्र मोदी का यशोदाबेन से सम्बंध विच्छेद भी सही नहीं ठहराया जा सकता।
हम उम्मीद करेंगे कि प्रधान मंत्री अपनी गल्ती को सुधारते हुए जशोदाबेन के साथ रहना शुरू करेंगे। बल्कि उन्हें तो अपनी मां को भी साथ ही रखना चाहिए। देर से ही सही नरेन्द्र मोदी को पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारियां वहन करनी चाहिएं। इससे उनका कोई नुकसान तो होगा नहीं, हो सकता है उनके ऊपर अच्छा ही प्रभाव पड़े। उदाहरण के लिए यदि वे कश्मीर की समस्या का कोई हल नहीं निकाल पा रहे तो जशोदाबेन से राय विमर्श कर हो सकता है कोई उपाय सूझे।
पिछले महिला दिवस पर कुछ महिलाओं ने भी वाराणसी में प्रदर्शन कर नरेन्द्र मोदी से मांग की थी कि वे जशोदाबेन के साथ न्याय करें। यदि वे जशोदाबेन के साथ अपने सम्बंधों पर पुनर्विचार नहीं करते तो यह कैसे माना जाएगा कि उनकी मुस्लिम महिलाओं के प्रति सहानुभूति मात्र दिखावा नहीं है। यह देश चाहता है कि उसका प्रधान मंत्री अपने साथ ईमानदारी करे और जिन मूल्यों की वह बात कर रहा है उन्हें अपने जीवन में भी जिए। कौन मानेगा कि जो व्यक्ति अपनी पत्नी के प्रति इतना कठोर हो सकता है वह दूसरी पीड़ित महिलाओं के प्रति संवेदनशील होगा?
(ये आलेख 'डेमोक्रेसीया' से लिया गया है। लेखक मैग्सेसे अवॉर्ड से सम्मानित हैं और सामाजिक-राजनीतिक मामलों पर लिखते हैं।)
भारत में लिंग अनुपात 940 है जबकि हमारे पड़ोसी बंग्लादेश में यह 997 है। यानी भारत में कन्या भ्रूण हत्या एक बड़ी समस्या है। बच्चों का अपहरण कर उन्हें वेश्यावृत्ति अथवा भीख मांगने के काम में लगाना भी बड़ी समस्याएं हैं। ये गैर-कानूनी काम दिन-दहाड़े होते हैं। यह बात समझ से परे है कि कन्या भू्रण हत्या अथवा बच्चों को देह व्यापार में ढकेलने अथवा भिखमंगा बनाने के मुद्दों को छोड़ तीन बार तलाक के मुद्दे को इतनी महत्व क्यों दिया जा रहा है? क्या जो लोग इन अन्य मुद्दों पर चुप हैं वे इन अपराधों के लिए जिम्मेदार नहीं?
प्रधान मंत्री को पूरा हक है कि वे मुस्लिम महिलाओं के प्रति सहानुभूति रखते हुए उनके साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएं। कुछ मुस्लिम महिलाएं इस बात से काफी खुश हैं कि कोई दल और वह भी उसका प्रधान मंत्री पहली बार इतने स्पष्ट रूप से तीन बार तलाक कहने की प्रथा के खिलाफ भूमिका ले रहा है। परन्तु जैसे प्रधान मंत्री को मुस्लिम महिलाओं के हक की बात उठाने का अधिकार है उसी तरह कोई उनकी पत्नी जशोदाबेन के अधिकारों की बात भी उठा सकता है, जो बिना तलाक के पिछले करीब पांच दशकों से एकल महिला का जीवन जीने को मजबूर हैं।
ऊपर दिए गए तर्क के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह नरेन्द्र मोदी का निजी मामला है। अमरीका में जब कोई सार्वजनिक जीवन में आता है तो उसके पारिवारिक मामलों पर खुली चर्चा होती है। आम अमरीकी नागरिक जो अपने पारिवारिक मामले में हस्तक्षेप नहीं चाहता अपने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार से अपेक्षा करता है कि उसका पारिवारिक जीवन स्वच्छ होगा। यदि किसी की कोई कमजारी पकड़ी जाती है तो उसकी उम्मीदवारी तक खतरे में पड़ जाती है।
नरेन्द्र मोदी पहले कह चुके हैं कि उन्होंने सार्वजनिक कार्य करने के लिए पारिवारिक जीवन का त्याग किया। यह बात सही है कि वे शादी के बाद सन्यास लेकर हिमालय चले गए थे किंतु यह भी हकीकत है कि वे तीन वर्षों बाद वापस आए और फिर अपने एक चाचा के व्यवसाय में लग गए। यदि जशोदाबेन के दृष्टिकोण से चीजों को देखा जाए तो जिसे वे त्याग कह रहे हैं उसे पारिवारिक जिम्मेदारियों से भागना भी कहा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी में भी सामान्य इंसानों जैसी कमजोरियां हैं। उन्होंने वह महंगा कोट पहना जिसपर उनका नाम कई बार लिखा हुआ था या अपने प्रधान मंत्रित्व काल के प्रारम्भिक दो वर्षों में हरेक विदेश यात्रा पर विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ सेल्फी खींचते थे। जाहिर है कि अपने त्याग से वे सांसरिक चीजों से ऊपर नहीं उठे हैं।
दूसरी तरफ जशोदाबेन के मन में उनके प्रति अभी भावना शेष है और उन्होंने कहा है कि उपयुक्त समय आने पर वे उनसे मिलेंगी। इन दोंनो के बीच यदि किसी ने त्याग किया है तो वह जशोदाबेन ने, क्योंकि अलग होने के निर्णय पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था। यह निर्णय तो उनके ऊपर थोप दिया गया। नरेन्द्र मोदी कह सकते हैं कि शादी का ही निर्णय उनके ऊपर थोपा गया। किंतु भारतीय समाज में तो ज्यादातर शादियां ऐसे ही होती हैं। मां-पिता की राय से जोड़ी बनाई जाती है और शादी के बाद युगल ये अपेक्षा की जाती है कि वे पारिवार व समाज की अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे और दाम्पत्य जीवन के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करेंगे। क्या यह भारतीय संस्कृति नहीं है?
जशोदाबेन ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत सरकार से यह जानने की कोशिश की कि प्रधान मंत्री की पत्नी के रूप में उनके क्या अधिकार हैं तथा उनको सुरक्षा उपलब्ध कराने के आदेश की प्रति उन्होंने मांगी। किंतु उन्हें कोई भी सूचना नहीं दी गई। मजेदार बात यह है कि वे सूचनाएं मांग रही थीं जशोदाबेन नरेन्द्रभाई मोदी के नाम से और अधिकारियों के जवाब आ रहे थे जशोदाबेन चिमनभाई मोदी के नाम पर। चिमनभाई उनके पिता का नाम है। जशोदाबेन ने जब विदेश से अपने रिश्तेदारों द्वारा आमंत्रण भेजे जाने पर पासपोर्ट बनवाने हेतु आवेदन दिया तो उनका आवेदन अस्वीकृत हो गया क्योंकि वे अपना विवाह प्रमाण पत्र अथवा पति की ओर से शपथपत्र नहीं दाखिल कर पाईं। क्या यह उनके पति की जिम्मेदारी नहीं थी कि उन्हें सूचनाएं और पासपोर्ट उपलब्ध कराया जाता? जशोदाबेन को तो एक आम नागरिक के रूप में भी अपने अधिकार नहीं मिले। उनके अधिकारों के लिए कौन खड़ा होगा? दूरदर्शन के एक अधिकारी ने जब उनसे साक्षात्कार को प्रसारित किया तो उसका तबदला अहमदाबाद से पोर्ट ब्लेयर, जहां अंग्रेज काले पानी की सजा के लिए भेजते थे, कर दिया गया।
यानी सरकार ने जशोदाबेन का काम तो किया नहीं, जिसने उनकी मदद करने की कोशिश की उस अधिकारी को सजा दे डाली। क्या नरेन्द्र मोदी जशोदाबेन से डरते हैं? यदि नहीं तो उन्हें जशोदाबेन द्वारा मांगी गई जानकारी व उनका पासपोर्ट उनको दिलवाना चाहिए। वे कोई बहुत बड़ी चीजें नहीं मांग रही हैं। जशोदाबेन की तुलना गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा, तुलसी दास की पत्नी रत्नावली या फिर सावित्री, सीता और शकुंतला से की जाती है जिन्होंने अपने पतियों के लिए त्याग किया। हम कोई पौराणिक युग में नहीं रह रहे। धर्म या धर्मगं्रथों के आधार पर इस तरह के कड़े फैसलों को जायज नहीं ठहराया जा सकता। जिस तरह इस्लाम के नाम पर तीन बार तलाक कहने की प्रथा को उचित नहीं माना जा सकता उसी तरह नरेन्द्र मोदी का यशोदाबेन से सम्बंध विच्छेद भी सही नहीं ठहराया जा सकता।
हम उम्मीद करेंगे कि प्रधान मंत्री अपनी गल्ती को सुधारते हुए जशोदाबेन के साथ रहना शुरू करेंगे। बल्कि उन्हें तो अपनी मां को भी साथ ही रखना चाहिए। देर से ही सही नरेन्द्र मोदी को पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारियां वहन करनी चाहिएं। इससे उनका कोई नुकसान तो होगा नहीं, हो सकता है उनके ऊपर अच्छा ही प्रभाव पड़े। उदाहरण के लिए यदि वे कश्मीर की समस्या का कोई हल नहीं निकाल पा रहे तो जशोदाबेन से राय विमर्श कर हो सकता है कोई उपाय सूझे।
पिछले महिला दिवस पर कुछ महिलाओं ने भी वाराणसी में प्रदर्शन कर नरेन्द्र मोदी से मांग की थी कि वे जशोदाबेन के साथ न्याय करें। यदि वे जशोदाबेन के साथ अपने सम्बंधों पर पुनर्विचार नहीं करते तो यह कैसे माना जाएगा कि उनकी मुस्लिम महिलाओं के प्रति सहानुभूति मात्र दिखावा नहीं है। यह देश चाहता है कि उसका प्रधान मंत्री अपने साथ ईमानदारी करे और जिन मूल्यों की वह बात कर रहा है उन्हें अपने जीवन में भी जिए। कौन मानेगा कि जो व्यक्ति अपनी पत्नी के प्रति इतना कठोर हो सकता है वह दूसरी पीड़ित महिलाओं के प्रति संवेदनशील होगा?
(ये आलेख 'डेमोक्रेसीया' से लिया गया है। लेखक मैग्सेसे अवॉर्ड से सम्मानित हैं और सामाजिक-राजनीतिक मामलों पर लिखते हैं।)
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