नई दिल्ली। मिर्चपुर में सात साल पहले हुए जातीय हिंसा का दंश लोग अभी तक झेल रहे हैं। सरकार के आश्वासन के बावजूद इन पीड़ितों को सुरक्षित आशियाने की तलाश है। मिर्चपुर में साल 2010 में अपरकास्ट के लोगों ने दलित बस्ती को आग के हवाले कर दिया था। जिसमें दो दलित जिंदा जल गए थे। इस घटना के बाद गांव के सैकड़ों दलित परिवार विस्थापित हो गए। इनमें से 60 दलित परिवार हिसार बॉर्डर के पास तंबुओं में रह रहे हैं।

साल 2010 के जातीय दंगों की आंच में झुलसे सोनिया और उनके पति की कहानी किसी से अलहदा नहीं है। सोनिया और उनके पति सुशील ग्रेजुएट हैं और रोजी रोटी की जद्दोजहद में एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते हैं। उन्होंने अपने और अपने बच्चों के लिए भविष्य के लिए आशाजनक सपने देखे थे। अब पति-पत्नी अपनी 6 साल की बेटी और 4 साल के बेटे के साथ टेंट में गुजर बसर कर रहे हैं। सुशील और उनकी पत्नी सोनिया दो जून की रोटी के लिए दिहाड़ी करने पर मजबूर हैं।
मिर्चपुर में 21 फरवरी 2010 को जाटों ने उनके घर में पोलियो से पीड़ित एक बच्ची और उनके पिता को जान से मार दिया था। जाटों की दर्दनाक प्रताड़ना के चलते पीड़ित घर के सदस्यों ने गांव छोड़ दिया था। 60 दलित परिवारों के साथ विषम परिस्थितियों में फार्म हाउस के किनारे जिंदगी काट सुशील और सोनिया सात साल से राहत और पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं।
दलित युवक राजसिंह के मुताबिक, हम जानवरों से भी बदतर जिंदगी जी रहे हैं, गांव में हमारा पक्का मकान है, हम इन तंबुओं में जीवन गुजार रहे हैं जहां पानी, बिजली, और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। मॉनसून के दौरान स्थिति भयावह हो जाती है, पूरा एरिया तालाब में तब्दील हो जाता है। हमें आये दिन संघर्ष करना पड़ता है। वहीं रुक्मिणी का कहना है, यहां महिलाओं की स्थिति और भी खराब है एकांत नाम की कोई चीज़ नहीं है।
जातीय उन्माद का दंश झेल रहे सुभाष का कहना है, स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से कई दफा बुनियादी सुविधाओं की कमी के बारे में बताया, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। बहुत नेताओं ने यहां आकर मुफ्त में राशन और गैस कनेक्शन देने का वादा किया। लेकिन 4 या 5 परिवारों को ही गैस कनेक्शन नसीब हुए हैं। बहुत जद्दोजहद करने पर स्थानीय अधिकारी हफ्ते में एक या दो दिन पानी की व्यवस्था करते हैं जिसका उपयोग हम खाना बनाने, पीने और कपड़े धोने के लिए करते हैं।
सात साल पहले करीब दो सौ दलित परिवारों ने जाट समुदाय की दरिंदगी के चलते मिर्चपुर गांव छोड़ दिया था। उनमें से 60 दलित परिवारों को स्थानीय नेता वेदपाल तंवर ने शहर के किनारे अपने फॉर्म हाउस के पास रहने के लिए जगह दी थी। जबकि कई परिवार अलग-अलग जगहों पर पलायन कर गए। मिर्चपुर में हाल ही में हुए जातीय हिंसा से ये दलित परिवार सहमें हुए हैं।
राजेश का कहना है, त्रासदी बीते सात साल हो गए फिर भी हम दर्दनाक जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। घटना के बाद हमने गांव छोड़ दिया और फॉर्महाउस के किनारे रहने लगे। अपरकास्ट लोगों के भय से हमारे बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला नहीं मिला। हिंसा के बाद बहुत से बच्चे स्कूल छोड़ने पर बाध्य हुए। हम आज भी बाहर अकेले नहीं जाते हैं हमारे साथ भेदभाव किया जाता है, हम में से अधिकतर लोग दैनिक मजदूरी करते हैं। हमारे बारे में जानकर अपरकास्ट के लोग काम नहीं देते हैं।
हरियाणा में सरकारों के कई आश्वासनों के बावजूद इन दलित परिवारों को राहत और पुर्नवास का इंतजार है। चंदर सिंह के मुताबिक, सरकार और अनुसूचित जाति/ जनजाति आयोग भी लोगों को आशियाना दिलाने में असफल रहे हैं। मिर्चपुर दंगों के पीड़ितों का केस लड़ रहे एडवोकेट रजत कालसन का कहना है, पीड़ित परिवार गांव के बाहर राहत और पुनर्वास की मांग कर रहे हैं वे वापस गांव लौटना नहीं चाहते। उन्होंने कहा, बीजेपी और कांग्रेस की सरकार सुप्रीम कोर्ट को बता चुकी हैं कि दलित परिवारों की यह मांग संभव नहीं है।
Courtesy: National Dastak

साल 2010 के जातीय दंगों की आंच में झुलसे सोनिया और उनके पति की कहानी किसी से अलहदा नहीं है। सोनिया और उनके पति सुशील ग्रेजुएट हैं और रोजी रोटी की जद्दोजहद में एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते हैं। उन्होंने अपने और अपने बच्चों के लिए भविष्य के लिए आशाजनक सपने देखे थे। अब पति-पत्नी अपनी 6 साल की बेटी और 4 साल के बेटे के साथ टेंट में गुजर बसर कर रहे हैं। सुशील और उनकी पत्नी सोनिया दो जून की रोटी के लिए दिहाड़ी करने पर मजबूर हैं।
मिर्चपुर में 21 फरवरी 2010 को जाटों ने उनके घर में पोलियो से पीड़ित एक बच्ची और उनके पिता को जान से मार दिया था। जाटों की दर्दनाक प्रताड़ना के चलते पीड़ित घर के सदस्यों ने गांव छोड़ दिया था। 60 दलित परिवारों के साथ विषम परिस्थितियों में फार्म हाउस के किनारे जिंदगी काट सुशील और सोनिया सात साल से राहत और पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं।
दलित युवक राजसिंह के मुताबिक, हम जानवरों से भी बदतर जिंदगी जी रहे हैं, गांव में हमारा पक्का मकान है, हम इन तंबुओं में जीवन गुजार रहे हैं जहां पानी, बिजली, और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। मॉनसून के दौरान स्थिति भयावह हो जाती है, पूरा एरिया तालाब में तब्दील हो जाता है। हमें आये दिन संघर्ष करना पड़ता है। वहीं रुक्मिणी का कहना है, यहां महिलाओं की स्थिति और भी खराब है एकांत नाम की कोई चीज़ नहीं है।
जातीय उन्माद का दंश झेल रहे सुभाष का कहना है, स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से कई दफा बुनियादी सुविधाओं की कमी के बारे में बताया, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। बहुत नेताओं ने यहां आकर मुफ्त में राशन और गैस कनेक्शन देने का वादा किया। लेकिन 4 या 5 परिवारों को ही गैस कनेक्शन नसीब हुए हैं। बहुत जद्दोजहद करने पर स्थानीय अधिकारी हफ्ते में एक या दो दिन पानी की व्यवस्था करते हैं जिसका उपयोग हम खाना बनाने, पीने और कपड़े धोने के लिए करते हैं।
सात साल पहले करीब दो सौ दलित परिवारों ने जाट समुदाय की दरिंदगी के चलते मिर्चपुर गांव छोड़ दिया था। उनमें से 60 दलित परिवारों को स्थानीय नेता वेदपाल तंवर ने शहर के किनारे अपने फॉर्म हाउस के पास रहने के लिए जगह दी थी। जबकि कई परिवार अलग-अलग जगहों पर पलायन कर गए। मिर्चपुर में हाल ही में हुए जातीय हिंसा से ये दलित परिवार सहमें हुए हैं।
राजेश का कहना है, त्रासदी बीते सात साल हो गए फिर भी हम दर्दनाक जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। घटना के बाद हमने गांव छोड़ दिया और फॉर्महाउस के किनारे रहने लगे। अपरकास्ट लोगों के भय से हमारे बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला नहीं मिला। हिंसा के बाद बहुत से बच्चे स्कूल छोड़ने पर बाध्य हुए। हम आज भी बाहर अकेले नहीं जाते हैं हमारे साथ भेदभाव किया जाता है, हम में से अधिकतर लोग दैनिक मजदूरी करते हैं। हमारे बारे में जानकर अपरकास्ट के लोग काम नहीं देते हैं।
हरियाणा में सरकारों के कई आश्वासनों के बावजूद इन दलित परिवारों को राहत और पुर्नवास का इंतजार है। चंदर सिंह के मुताबिक, सरकार और अनुसूचित जाति/ जनजाति आयोग भी लोगों को आशियाना दिलाने में असफल रहे हैं। मिर्चपुर दंगों के पीड़ितों का केस लड़ रहे एडवोकेट रजत कालसन का कहना है, पीड़ित परिवार गांव के बाहर राहत और पुनर्वास की मांग कर रहे हैं वे वापस गांव लौटना नहीं चाहते। उन्होंने कहा, बीजेपी और कांग्रेस की सरकार सुप्रीम कोर्ट को बता चुकी हैं कि दलित परिवारों की यह मांग संभव नहीं है।
Courtesy: National Dastak