निशानची बहसों के दौर में!

Published on: 02-14-2016
 

14 अगस्त 2015 को आसिया अन्दराबी ने पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस मनाया और लश्कर-ए-तय्यबा के आतंकवादियों को फ़ोन पर सम्बोधित भी किया, तब तो ऐसा कोई हंगामा नहीं हुआ. आठ महीने पहले जम्मू में भिंडरावाले का 'शहीदी दिवस' मनाने के लिए पोस्टर लगाना देशद्रोह नहीं था क्या? तब वहाँ ख़ालिस्तान और पाकिस्तान समर्थक नारे भी लगे. क्या वह देशद्रोह नहीं था? दोनों ही घटनाओं के समय जम्मू-कश्मीर में 'राष्ट्रवादी' बीजेपी सरकार में शामिल थी.


वसन्त आ गया है. मौसम सुहाना है. लेकिन देश तप रहा है. मन तप रहे हैं. तपतपाये हुए हैं. तपतपाये जा रहे हैं. पूरा देश मानो टीवी की डिबेट और फ़ेसबुक की टाइमलाइन हो गया हो! टीवी में स्क्रीन पर लपलपाती आग की लपटें और खाँचों में कटी और बँटी खिड़कियों से चीख़ते, दहाड़ते, तिलमिलाते, दाँत किटकिटाते चेहरे! और फ़ेसबुकी चक्रव्यूह में सतत, अनवरत युद्धरत तुरतिया-फुरतिया निष्कर्षों की भावातिरेक में डूबी, अकुलाई, उन्मत्त अक्षौहिणी सेनाएँ.

Controversy on Sedition Charges against JNU Students over Afzal Guru Event
मुद्दों पर मुद्दे, ऊपर मुद्दे, नीचे मुद्दे

कोई बहस कहीं पहुँचती नहीं, बस आग लगा कर, ज़हर फैला कर मर जाती है. अगला दिन, अगली बहस, अगला मुद्दा और फिर वही हाथापाई, झिंझोड़ा-झिंझोड़ी. अभी इन पंक्तियों को लिखते ही लिखते व्हाट्सएप पर लेखिका और स्तम्भकार शीबा असलम फ़हमी की एक चुटकी मिली. वह लिखती हैं, "मुद्दे के एक ऊपर मुद्दा, मुद्दे के एक नीचे मुद्दा, कौन-सा होगा राष्ट्रीय मुद्दा, कौन-सा होगा भूलना मुद्दा!"

निशाना बनाने के लिए मुद्दे
कौन-सा मुद्दा भूला जाये या भुला दिया जाये या देख कर न देखा जाये और कौन-सा मुद्दा उठाया जाये, न भी हो तो भी किस मुद्दे की काट के लिए सही-ग़लत झूठा-सच्चा क्या उछाल दिया जाये, क्या बहस की जाये और क्या न की जाये! और बहस क्यों की जाये, किसको निशाने पर लाने के लिए की जाये! अन्तिम सत्य यही है. निशाना! बहस इसलिए नहीं की जा रही है कि वह ज़रूरी मुद्दा है, बल्कि बहस इसलिए की जा रही है कि उससे किसे निशाना बनाया जाये! किस मुद्दे को निशाना बनाया जाये!

जो सवाल किसी को उत्तेजित नहीं करते
तो हम निशानची बहसों के दौर में है. बहस मुद्दों पर नहीं हो रही है, बल्कि मुद्दों को निशाना बनाने के लिए हो रही है! दिलचस्प नज़ारा है. देश के सामने असली मुद्दे क्या हैं, और जो मुद्दे हैं, वह क्यों हैं, और वह मुद्दे हल हो गये होते तो देश आज कहाँ होता, किसे फ़िक्र है इसकी? वरना देश में इस पर हाहाकार मच गया होता कि देश के सरकारी बैंकों के एक लाख चौदह हज़ार करोड़ रुपये कैसे डूब गये. और जो अभी नहीं डूबे, वह डूबने के कगार पर हैं. बैंकों की एक-तिहाई पूँजी अमीर क़र्ज़ों और विकास के नये मॉडल की भेंट चढ़ चुकी है. श्रीमान जी, यह किसका पैसा है, जो डूब गया? क्यों डूब गया? कौन ज़िम्मेदार है इसका? कोई जाँच होनी चाहिए इसकी? कोई जेल जायेगा इसके लिए? यह किसकी जेब थी, जो कट गयी? इतना पैसा न डूबा होता तो किसके काम आता? ये सवाल किसी को उत्तेजित नहीं करते और इन सवालों में किसी की दिलचस्पी नहीं है, न सरकार की, न विपक्ष की. क्योंकि बरसों से यह मिलीभगत

लूट चल रही थी और चलती रहेगी!
अमीर क़र्ज़ लेकर गड़पें, ग़रीब क़र्ज़ लेकर मरें!किसानों की आत्महत्याएँ लगातार जारी हैं. यह सिलसिला काँग्रेसी सरकार वाले कर्नाटक और बीजेपी सरकार वाले महाराष्ट्र समेत उन सभी राज्यों में बदस्तूर जारी हैं, जहाँ पिछले बीस वर्षों से किसान लगातार आत्महत्याएँ कर रहे हैं. क्यों कर रहे हैं, यह भी सबको पता है. आर्थिक उदारवाद ने किसानों को कंगाल कर दिया. विकास के शहरी मॉडल से पैदा हुए नये लम्पट मध्य वर्ग को क्यों चिन्ता हो किसानों के मरने की? इसलिए देश की राजधानी के बीचोंबीच एक राजनीतिक दल की रैली में एक किसान की आत्महत्या पर राजनीति तो ख़ूब होती है, फ़ेसबुकिया विलाप भी ख़ूब होता है, लेकिन कहीं कोई गम्भीर विमर्श हुआ क्या कि किसानों को क़र्ज़ से कैसे उबारा जाये, उन्हें आत्महत्याएँ करने से कैसे बचाया जाये? अमीर क़र्ज़ ले कर गड़प गये, कोई फ़िक्र नहीं. ग़रीब किसान क़र्ज़ से लगातार मरता है तो मरे, कोई फ़िक्र नहीं.

निशाने पर जेएनयू
तो किसानों की आत्महत्या पर फ़िक्र क्यों हो? आत्महत्या पर तो यह मध्यवर्ग फ़तवा जारी करता है कि आत्महत्या तो कायर लोग करते हैं! रोहित वेमुला कायर था या दलित नहीं था, ऐसे क्रूर और बेशर्म तर्क जो समाज गढ़ रहा हो, उससे और किस विमर्श की उम्मीद की जा सकती है? राष्ट्रवाद अब एक नया मुद्दा है. जहाँ हर विरोधी राषट्रविरोधी हो जाता है. हैदराबाद से शुरू हो कर राष्ट्रवाद की बहस अब जेएनयू पहुँच चुकी है. फ़िलहाल जेएनयू निशाने पर है, क्योंकि वहाँ कुछ छात्रों ने Afzal Guru और 'कश्मीर की आज़ादी' को लेकर भारत-विरोधी नारे लगाये थे. बेहद निन्दनीय घटना है. देश का कोई नागरिक उसका समर्थन नहीं कर सकता. कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, और इस बात को न मानना भारत के संविधान का विरोध करना है, इसमें किसे सन्देह है. लेकिन ख़तरनाक यह है, जैसा रंग उसे देने की कोशिश की जा रही है. असली मुद्दा यह है.

Is JNU being targeted over Afzal Guru event because it is considered a fort of Left Wing Politics?
यही शोर आसिया अन्दराबी पर क्यों नहीं मचा?

कश्मीर में अलगाववादी उपद्रवी तत्त्वों द्वारा पाकिस्तानी झंडे फहराये जाने की घटनाएँ अकसर होती रहती हैं. अभी पिछले साल जुलाई और अगस्त में भी वहाँ ऐसी घटनाएँ हुईं, तब तो बीजेपी वहाँ सत्ता में ही थी. 14 अगस्त 2015 को पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस के दिन दुख़्तरान-ए-मिल्लत की प्रमुख आसिया अन्दराबी (Asiya Andrabi) ने ख़ुद पाकिस्तान का झंडा फहराया और अख़बारों की रिपोर्ट के मुताबिक़ लाहौर में लश्कर-ए-तय्यबा (Lashkar-e-Taiba) के आतंकवादियों को फ़ोन पर सम्बोधित भी किया.  इस पर तो कोई देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज नहीं हुआ! जम्मू-कश्मीर सरकार में शामिल बीजेपी रस्मी आपत्ति जता कर चुप बैठ गयी. आश्चर्य है न! फिर आज इतना हंगामा क्यों हो रहा है? क्या इसलिए कि यह घटना जेएनयू में हुई? अगर यही घटना जेएनयू के बजाय कश्मीर घाटी में होती तो क्या बिलकुल यही प्रतिक्रिया हो रही होती, जो जेएनयू के कारण हो रही है? और जेएनयू को अगर वामपंथ का गढ़ न समझा जाता, तो भी क्या यही प्रतिक्रिया होती? शायद नहीं. तो निशाने पर कौन है? क्या असली निशाने पर वामपंथी नहीं हैं? और क्या यह खीझ रोहित वेमुला मामले के कारण और ज़्यादा नहीं बढ़ गयी है?

भिंडरावाले का 'शहीदी दिवस' मनाना देशद्रोह नहीं है क्या?
अगर गिनती के कुछ छात्रों की ऐसी नारेबाज़ी देशद्रोह है तो आठ महीने पहले जम्मू में भिंडरावाले का 'शहीदी दिवस' मनाने के लिए पोस्टर लगाना देशद्रोह नहीं था क्या? और पुलिस के पोस्टर फाड़ देने पर क्या हंगामा हुआ, ख़ालिस्तान और पाकिस्तान समर्थक नारे भी लगे. क्या वह देशद्रोह नहीं था? उस समय भी जम्मू-कश्मीर में 'राष्ट्रवादी' बीजेपी सरकार में शामिल थी. और आपको याद ही होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने सारी की सारी पच्चीस सीटें जम्मू क्षेत्र से ही जीती थीं. तो वहाँ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के लोग 'मार डालेंगे, काट डालेंगे' के नारे लगाने क्यों नहीं पहुँचे? भिंडरावाले आतंकी था या नहीं? वह अलग ख़ालिस्तान की माँग को लेकर भारत की सरकार के विरुद्ध युद्ध कर रहा था या नहीं? अगर इन दोनों सवालों के जवाब हाँ हैं, तो उन ही लोगों को यही बहस, यही सवाल तब भी उठाना चाहिए था, जो आज राष्ट्रवाद की बहस उठा रहे हैं.

'शहीद' भिंडरावाले की याद में पंजाब सरकार के पैसे से बना स्टेडियम!
और यही नहीं, स्वर्ण मन्दिर के संग्रहालय में चले जाइए. भिंडरावाले समेत हाल फ़िलहाल तक मुठभेड़ों में मारे गये सारे 'आतंकवादी' वहाँ 'शहीद' के तौर पर गर्व से चित्रित हैं. जगह-जगह लिखा गया है कि वे भारत की सेना और पुलिस (जैसे भारत कोई दूसरा देश हो) के ख़िलाफ़ लड़ते हुए 'शहीद' हुए! वहाँ यह देशद्रोह का सवाल अब तक क्यों नहीं उठा? पंजाब में भिंडरावाले के गाँव में उसकी याद में उस सरकार के पैसे से स्टेडियम भी बना है, जिसमें 'राष्ट्रवादी' बीजेपी साझीदार है. यह किसी को अब तक दिखा नहीं! आश्चर्य है न! चलिए, अब तक नहीं दिखा, तो अब बताने पर तो देख लीजिए. आख़िर देशद्रोह की दो परिभाषाएँ, दो पैमाने तो हो नहीं सकते!

किस रास्ते पर हैं हम, कहाँ पहुँचेंगे?
विडम्बना है. दुनिया के विज्ञानी आज इस बात पर झूम रहे हैं कि उन्होंने ब्रह्मांड की गुरुत्वाकर्षण लहरों की आवाज़ पहली बार सुन ली है. विज्ञानी उत्साहित हैं कि वह ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्य जानने के कुछ और क़रीब पहुँच गये और शायद अगले कुछ वर्षों में विज्ञान ईश्वर के अस्तित्व की अवधारणा को ही ध्वस्त कर दे! और हम? गाली-गलौज और विष-वमन के एजेंडों में उलझे हैं! साफ़ दिख रहा है कि कहाँ पहुँचेंगे?

http://raagdesh.com/sedition-charges-against-jnu-students-over-afzal-gur...
स्वतंत्र स्तम्भकार. पेशे के तौर पर 35 साल से पत्रकारिता में. आठ साल तक (2004-12) टीवी टुडे नेटवर्क के चार चैनलों आज तक, हेडलाइन्स टुडे, तेज़ और दिल्ली आज तक के न्यूज़ डायरेक्टर. 1980 से 1995 तक प्रिंट पत्रकारिता में रहे और इस बीच नवभारत टाइम्स, रविवार, चौथी दुनिया में वरिष्ठ पदों पर काम किया. 13-14 साल की उम्र से किसी न किसी रूप में पत्रकारिता और लेखन में सक्रियता रही.

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