WHO ने कोविड 19 के लिए हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का दोबारा ट्रायल शुरू करने के लिए क्यों कहा?

Published on: June 4, 2020
एक बात तो है भारत मे यदि फार्मा क्षेत्र में चल रहे भ्रष्टाचार की बात करो तो लोग आसानी से विश्वास ही नही करते। उन्हें लगता है ये बड़ा नोबेल प्रोफेशन है। कल रात एक ग़जब की खबर आयी कि WHO ने हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का COVID 19 के लिए ट्रायल फिर से शुरू करने के लिए कहा है, जबकि 10 दिन पहले ही उसने इस पर रोक लगा दी थी। WHO अब पिनोकियो बन गया है। जैसे ही झूठ बोलता है उसकी नाक गज भर लम्बी हो जाती है, फिर वो शर्मिंदा होता है।



कल शाम को ही मैने न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के बारे में आपको बताया था जिससे पता चला था कि 100 से भी ज्यादा साइंटिस्ट ने लैंसेट में छपी उस स्टडी पर सवाल खड़े किए है और लैंसेट अब बैकफुट पर है क्योंकि जिस सर्जिस्फीयर नामक जिस कम्पनी के डाटा पर यह रिपोर्ट तैयार की गई है वो पूरी रिपोर्ट बेसलेस है और उस पर मनगढ़ंत एनिलिसिस के आरोप लग रहे हैं उस पर ऐसे आरोप 23 मई को रिपोर्ट छपने के दो दिन बाद से ही शुरू हो थे लेकिन अब तक कोई सर्जिस्फीयर की तरफ से कोई पुख्ता सुबूत सामने नही आए पूरी दुनिया के विशेषज्ञ इस तरह की रिसर्च छापने की आलोचना कर रहे है लिहाजा WHO को अपना हाइड्रोक्लोरोक्विन के क्लिनिकल ट्रायल पर रोक लगाने वाला डिसीजन वापस लेना पड़ा है।

भारतीय मीडिया यह सब बातें आपको कभी नही बताता क्योंकि बिग फार्मा के भ्रष्टाचार एक्सपोज हो जाएगा। सिर्फ लैंसेट की ही बात नही है 1 मई को न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में छपी स्टडी ऑफ कोरोनावायरस पेशेंट्स भी सर्जिस्फीयर के डाटा पर आधारित थी। उसमे भी हाइड्रोक्लोरोक्विन के दुष्प्रभावों की बात की गयी।

बात यह नही है कि हाइड्रोक्लोरोक्विन कोविड 19 में काम की है या नही बात यह है कि इस तरह के आर्टिकल क्या मेडिकल जर्नल में इस तरह से बेसलेस स्टडी के दम पर छपवाए जा सकते हैं ? और उस स्टडी के बहाने WHO जैसी संस्था मनमाने निर्णय ले सकती हैं?

इस रिसर्च में केवल 4 लेखक हैं जो कोविड के 96,000 रोगियों का वैश्विक अध्ययन कर रहे हैं जो बेहद अजीब है। चिकित्सा में इस तरह के अध्ययन में आमतौर पर 50-100 लेखक (अक्सर किसी न किसी तरह के सहयोगी समूह) होते हैं। वे विभिन्न अस्पतालों के बारे में भी लगभग कोई भी जानकारी नहीं देते हैं। सिर्फ सरकारी हॉस्पिटल में कोविड का इलाज चल रहा है और इस पेपर के रिसर्चर निजी हस्पताल से डाटा लेना बता रहे हैं।

इस डेटा को "सर्जिकल परिणाम सहयोग" से आया बताया जा है, जो वास्तव में एक कंपनी है उसका नाम है सर्जिस्फीयर, जिसके सीईओ डॉ सपन देसाई दूसरे लेखक हैं। सर्जीफियर का मुख्यालय वर्तमान में पैलेटाइन, इलिनोइस में है, इलिनोइस के कुक काउंटी में कोर्ट के रिकॉर्ड से पता चलता है कि 2019 की दूसरी छमाही में दायर किए गए तीन मेडिकल कदाचार मुकदमों में देसाई का नाम है। ( यह मैं नही कह रहा हूँ साइंस mag' लिख रहा है )

इस पेपर के दूसरे सह लेखक हैं डॉ मंदीप मेहरा, जो तथाकथित रूप से बोस्टन में ब्रिघम अस्पताल में, रेमेडीसविर को बढ़ावा देने के लिए काम करते हैं।

द लैंसेट को मेडिकल प्रोफेशन के लोग बड़ा ही प्रतिष्ठित जर्नल मानते हैं लेकिन क्या आपको यह पता है कि यह दुनिया के सबसे बड़े मेडिकल प्रकाशक, एल्सेवियर ग्रुप द्वारा प्रकाशित किया जाता है, जो ओवरराइड सिंगल लेखों को बेचकर और अपने उत्पादों को बेचने के लिए फार्मा इंडस्ट्री द्वारा पूरी तरह से लिखी गई नकली वैज्ञानिक पत्रिकाओं का निर्माण करके लाभ कमाता है। ( यह भी मैं नही कह रहा हूँ 'द साइंटिस्ट' कह रहा है)

क्या आपने मुख्यधारा के मीडिया को गिलियड साइंस की दवा रेमेडिसविर पर इतने सवाल उठाते हुए कभी देखा क्या यह सच नही है कि गिलियड दुनिया में सबसे महंगी और सबसे कम प्रभावी दवाओं का उत्पादन करती है ?

राजनेताओं में भ्र्ष्टाचार अब आम बात है लेकिन क्या आपको मालूम है कि दुनिया मे सबसे ज्यादा फार्मा लॉबी ही लॉबिंग के लिए पैसा खर्च करती है इतना कि आप कल्पना भी नही।कर सकते। सबको सत्य की कसौटी पर कसा जाना चाहिए ध्यान रखिए।

"Truth is not an opinion, but a process. It cannot be voted on, but must always be questioned."

सत्य एक राय नहीं है, बल्कि एक प्रक्रिया है। इस पर मतदान नहीं किया जा सकता है, लेकिन पूछताछ हमेशा की जानी चाहिए।

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