देश के 73वें स्वतंत्रता दिवस पर एक अदालती फैसला न्याय की दुनिया पर एक धब्बा लगा गया. अलवर की एक अदालत ने जांच के दौरान सबूतों की कमजोर कड़ियों की वजह से पहलू खान की हत्या के छह आरोपियों को बरी कर दिया. इन सबूतों में वो वीडियो भी था, जिसमें पहलू खान पर हमला करने वालों को साफ पहचाना जा सकता था. लेकिन राज्य सरकार की ओर से लड़ रहे अभियोजन पक्ष के वकीलों ने इसकी फॉरेंसिक जांच नहीं कराई थी. इस एक अहम पहलू के आधार पर आरोपियों को बरी होने में मदद मिल गई. इस मामले में निश्चित तौर पर ऊपरी अदालतों में अपील की जाएगी और सुनवाई जिस तरह से हुई उस पर सवाल भी उठाए जाएंगे.
जहां तक आपराधिक कानूनों का सवाल है तो इस तरह की जांच और अभियोजन पक्ष के ढीले रवैये को देखते हुए ऊपरी अदालतों को निश्चित तौर पर इस मामले का नोटिस लेना होगा खास कर तब जब मामला सार्वजनिक न्याय के प्रशासन से जुड़ा हो.
यह पहला मामला नहीं है, जब अदालतों ने इस तरह के क्रूर अपराध में दोषियों को सजा देने में हिचकिचाहट दिखाई हो. लेकिन फिलहाल जिस तरह से देश के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में भीड़ की हिंसा का समर्थन किया जा रहा है उससे हालात बेहद गंभीर हो गए हैं. भारत में पिछले छह साल से मॉब लिचिंग की वारदातों का लंबा सिलसिला दिख रहा है. राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भीड़ ने जिन लोगों को मारा है उनमें से अधिकतर मुस्लिम मवेशी व्यापारी, दलित और समाज के हाशिये पर रहने वाले लोग थे.
आज हमारे संस्थानों की साख दांव पर लगी है. आखिर खतरनाक भीड़ की मानसिकता के बावजूद हमारे संस्थान न्याय दिलाने में नाकाम क्यों हैं?
बहरहाल, भारतीय अदालतोंने पहले भी ऐसे मामलों की जांच की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए अभियोजन पक्ष की जांच की खामियों पर सवाल उठाए हैं और ट्रायल कोर्ट को मौजूदा भारतीय कानून के तहत दोबारा जांच के आदेश दिए हैं.
इस तरह के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले दिए हैं, और जब-जब कमजोर अभियोजन पक्ष की ओर से इस तरह के अपराध में कमजोर जांच की गई तब-तब निचली अदालतों को उनकी भूमिका याद दिलाई गई है.
हालांकि यह भी त्रासदी ही है कि ऐसे दृष्टांतों के बारे में हमारी अदालतों के भीतर हीअब किसी तरह की व्यवस्थित और संस्थागत यादें बची नहीं रह गई हैं. लिहाजास पहलू खान की हत्या जैसे जघन्य अपराधों में सजा की निचली दरों की वजह से अब हमारे सामने टिमटिमाती उम्मीदें ही बची रह गई हैं.
पहलू खान ने अपनी मौत से पहले जो बयान दिया था, उसके मुताबिक ओम यादव, हुकुम चंद यादव, सुधीर यादव, जगमाल यादव, नवीन शर्मा और राहुल सैनी आरोपी बनाए गए थे. सीबीआई क्राइम जांच के बाद इन सभी पर से आरोप खत्म कर दिए गए थे. भारतीय दंडित संहिता (IPC) की धारा 319 के तहत उसी निचली अदालत में उन्हें अभियुक्त साबित करने की कोशिश भी खारिज हो गई. जज ने अभियोजन पक्ष की दलील खारिज कर दी. धारा 319 के इस्तेमाल पर वकीलों ने जुलाई में दो दिन तक बहस की थी.
इस तरह की जांच पर सवाल क्यों नहीं?
इस मामले में जज ने फैसला देते हुए कहा था कि राजस्थान क्राइम ब्रांच ने न तो पहलू खान पर हमले का वह वीडियो पेश किया और न ही वह फोन पेश किया जिससे इसे शूट किया गया था और न इनकी फोरेंसिक लेबोरेट्री में जांच कराई गई. लेकिन यह भी सही है कि अदालत ने अभियोजन एजेंसी को CRPC के तहत जांच की खामियों को ठीक कराने के लिए भी नहीं कहा. जबकिCRPC के तहत अदालत को ऐसा करने का अधिकार है.
अगर जांच इतने ही लचर ढंग से हुई थी तो ट्रायल कोर्ट का कर्तव्य क्या बनता था? दो साल तक इस मामले की सुनवाई कर रही रही अदालत को क्या करना चाहिए था?
अदालत ने अपना फैसला सुनाने के दौरान इस मामले में एफआईआर दर्ज कराने में हुई देरी के लिए पुलिस की खिंचाई की. साथ ही जांच अधिकारी की ‘गंभीर लापरवाही’ की भी खिंचाई हुई. इसके बावजूद अपनी ड्यूटी में घोर लापरवाही बरतने वाले अफसर बच गए. ऐसा नहीं है कि जज सरिता स्वामी की अदालत की नजर से कमजोर चार्जशीट बची रही. अदालत ने इसका भरपूर नोटिस लिया. जज स्वामी ने लिखा- इस मामले में अभियोजन पक्ष ने कहा कि आरोपी मोबाइल से बनाए गए दो वीडियो के आधार पर पहचाने गए. लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से राकेश सिनसिनवार ने जिस वीडियो का हवाला दिया और इससे जो फोटोग्राफ तैयार किए उन्हें ही केस के रिकार्ड में नहीं रखा. और न ही वह मोबाइल जब्त किया गया, जिससे वीडियो बनाया गया था.
सिनसिनवार अलवर जिले के बहरोड़ पुलिस थाने के एसएचओ थे और इस केस के फर्स्ट इनवेस्टिगेटिंग अफसर भी. अदालत में अपने बयान में सिनसिनवार ने कहा कि उन्होंने इस मामले की जानकारी देने वाले से शूट किए गए वीडियो हासिल किए थे. लेकिन उन्होंने यह माना कि उन्होंने इसकी प्रामाणिकता जांचने के लिए इसे फोरेंसिक साइंस लैब नहीं भेजा.
सिनसिनवार ने ये भी माना कि आरोपी के कॉल डिटेल पर उन्होंने नोडल ऑफिसर की मंजूरी का सर्टिफिकेट भी नहीं लिया और न इसे किसे से वेरिफाई कराया. सिनसिनवार ने अदालत को यह भी बताया कि उन्होंने आरोपी के फोन का न तो बिल लिया और न सिम आईडी, जिससे यह पता चल सके कि फोन आरोपी का ही था. और तो और उन्होंने फोन भी जब्त नहीं किया.लेकिन क्या अदालत ने क्रिमिनल लॉ के तहत इस तरह जानबूझ कर लापरवाही बरतने के आरोप में एसएचओ को दंडित करने के अपने अधिकार का इस्तेमाल किया. इस बारे में तो अदालत ने कोई टिप्पणी करना तो दूर सिनसिनवार जैसे अफसर को सजा मिले इसकी भी कोई व्यवस्था नहीं की.
क्या अदालत अपने अधिकारों का इस्तेमाल करेगी?
सीआरपीसी की धारा 311 और एविडेंस एक्ट की धारा 165 पीठासीन जज को यह अधिकार देती है कि वह आगे बढ़ कर गवाहों को समन जारी करे और ट्रायल के दौरान सक्रिय होकर हस्तक्षेप करे. धारा 173 (8) अदालत को यह अधिकार देती है कि जांच करने वाली एजेंसी इसमें कोई कसर न छोड़े. आपराधिक मामले में जांच कमजोर न रहे, इसका वह पूरा इंतजाम करे. एजेंसी से पूरी तरह ठोक-बजा कर जांच की अपेक्षा की जाती है. आइए देखते हैं कि ऊपरी अदालतों ने इस तरह के मामलों पर क्या फैसले दिए हैं-
Karnel Singh v. State of M.P. (1995 (5) SCC 518.
खामियों से भरी जांच के मामले में कोर्ट को सबूतों की परख के दौरान सतर्क रहना होगा. उसे सक्रिय और विश्लेषणात्मक भूमिका निभानी होगी ताकि निराशा में हाथ पटकने के बजाय पहले धारा 311 और बाद में धारा 391 में मौजूद उपायों का इस्तेमाल कर सच का पता लगाया जा सके. जांच में खामियों के आधार पर आरोपी को छोड़ना गलत जांच करने वाले अधिकारियों के हाथों में खेलने जैसा है.
Paras Yadav and Ors. v. State of Bihar (1999 (2) SCC 126
जांच अधिकारी को ओर से मामले की जांच में गलती या अभियोजन पक्ष की ओर से सबूत पेश करने की खामियों की जांच की जरूरत है. कोर्ट को यह देखना होगा जांच अधिकारी जो सबूत दे रहा है वह सही है या नहीं. न्याय के रास्ते में अधिकारियों के गलत आचरण को बाधा नहीं बनने दिया जा सकता. ऐसे मामले में धारा, 311, 391 और Evidence Act की धारा 165 का इस्तेमाल कर सच का पता करना चाहिए.
यह ठीक है कि आरोपी को निचली अदालत ने बरी कर दिया है. उसे छोड़ने के समर्थन में फैसला दिया गया है लेकिन अगर उसकी रिहाई गलत दलीलों और सबूतों हुई है. या फिर अभोजन पक्ष ने न्याय के सिद्धांत का पालन नहीं किया या फिर डराने, धमकाने का इस्तेमाल किया गया है तो न्याय के सिद्धातों के मुताबिक इसका समर्थन नहीं किया जा सकता. गलत जांच की वजह से अगर आरोपी छूट जाता है तो यह सच का मजाक और न्यायिक प्रक्रिया के साथ धोखाधड़ी है.
Shakila Abdul Gafar Khan v. Vasant Raghunath Dhoble: (2003) 7 SCC 749.
न्याय के लिए सच से ज्यादा कोई प्रिय नहीं है. इसलिए यह अभियोजन पक्ष के वकीलों का कर्तव्य है कि कोर्ट के सामने रिकार्ड में पूरा और ठोस तथ्य पेश करे ताकि न्याय अपना रास्ता न भटके.
Zahira Habibulla Sheikh v.sState of Gujarat, (2004) 3 SCC 158)
चर्चित जाहिरा शेख मामले में जाहिरा हबीबुल्लाह शेख बनाम गुजरात राज्य केस (2004) में अदालत ने ट्रायल कोर्ट की भूमिका के बारे में गंभीर टिप्पणी की थी.
सच की तलाश, इसकी जीत और इसकी स्थापना ही न्यायिक अदालतों के अस्तित्व का आधार है. “ क्रिमिनल केस में कार्यवाही को पूरी तरह पक्षकारों पर नहीं छोड़ा जा सकता. लोगों के अधिकारों और कर्तव्यों के उल्लंघन के जरिये किया गया अपराध पूरे समुदाय को प्रभावित करता है. यह पूरे समाज के लिए हानिकारक है. कोर्ट पर न्यायिक प्रशासन में लोगों की विश्वास बहाल करने की जिम्मेदारी मानी जाती है.
Evidence Act की धारा 165 के तहत कोर्ट को मिला अधिकार धारा 311 के तहत मिले अधिकार का पूरक है. इस धारा के दो हिस्से हैं. 1. कोर्ट को यह अधिकार है कि वह गवाहों की किसी भी स्तर पर जांच कर सके 2. इस धारा के अनिवार्य हिस्से के रूप में कोर्ट अगर यह समझता है कि न्याय के लिए गवाहों की उपस्थिति जरूरी है तो वह ऐसा करवा सकता है.
अगर आपराधिक अदालत को प्रभावी तौर पर न्याय मुहैया कराना है तो मामलों की सुनवाई कर रहे महज दर्शक बन कर रहने से बचना होगा. वह कोई रिकार्डिंग मशीन नहीं है. उसे सुनवाई में सक्रिय रूप से भागीदारी करनी होगी. अपनी बुद्धिमानी का इस्तेमाल करना होगा और वह सभी संबंधित सामग्री मुहैया करानी होगी, जिससे किसी मामले में सही निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके. ऐसे मामलों में जज सिर्फ मूक दर्शक बन कर नहीं रह सकते.
(Translated By Anuja)
जहां तक आपराधिक कानूनों का सवाल है तो इस तरह की जांच और अभियोजन पक्ष के ढीले रवैये को देखते हुए ऊपरी अदालतों को निश्चित तौर पर इस मामले का नोटिस लेना होगा खास कर तब जब मामला सार्वजनिक न्याय के प्रशासन से जुड़ा हो.
यह पहला मामला नहीं है, जब अदालतों ने इस तरह के क्रूर अपराध में दोषियों को सजा देने में हिचकिचाहट दिखाई हो. लेकिन फिलहाल जिस तरह से देश के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में भीड़ की हिंसा का समर्थन किया जा रहा है उससे हालात बेहद गंभीर हो गए हैं. भारत में पिछले छह साल से मॉब लिचिंग की वारदातों का लंबा सिलसिला दिख रहा है. राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भीड़ ने जिन लोगों को मारा है उनमें से अधिकतर मुस्लिम मवेशी व्यापारी, दलित और समाज के हाशिये पर रहने वाले लोग थे.
आज हमारे संस्थानों की साख दांव पर लगी है. आखिर खतरनाक भीड़ की मानसिकता के बावजूद हमारे संस्थान न्याय दिलाने में नाकाम क्यों हैं?
बहरहाल, भारतीय अदालतोंने पहले भी ऐसे मामलों की जांच की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए अभियोजन पक्ष की जांच की खामियों पर सवाल उठाए हैं और ट्रायल कोर्ट को मौजूदा भारतीय कानून के तहत दोबारा जांच के आदेश दिए हैं.
इस तरह के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले दिए हैं, और जब-जब कमजोर अभियोजन पक्ष की ओर से इस तरह के अपराध में कमजोर जांच की गई तब-तब निचली अदालतों को उनकी भूमिका याद दिलाई गई है.
हालांकि यह भी त्रासदी ही है कि ऐसे दृष्टांतों के बारे में हमारी अदालतों के भीतर हीअब किसी तरह की व्यवस्थित और संस्थागत यादें बची नहीं रह गई हैं. लिहाजास पहलू खान की हत्या जैसे जघन्य अपराधों में सजा की निचली दरों की वजह से अब हमारे सामने टिमटिमाती उम्मीदें ही बची रह गई हैं.
पहलू खान ने अपनी मौत से पहले जो बयान दिया था, उसके मुताबिक ओम यादव, हुकुम चंद यादव, सुधीर यादव, जगमाल यादव, नवीन शर्मा और राहुल सैनी आरोपी बनाए गए थे. सीबीआई क्राइम जांच के बाद इन सभी पर से आरोप खत्म कर दिए गए थे. भारतीय दंडित संहिता (IPC) की धारा 319 के तहत उसी निचली अदालत में उन्हें अभियुक्त साबित करने की कोशिश भी खारिज हो गई. जज ने अभियोजन पक्ष की दलील खारिज कर दी. धारा 319 के इस्तेमाल पर वकीलों ने जुलाई में दो दिन तक बहस की थी.
इस तरह की जांच पर सवाल क्यों नहीं?
इस मामले में जज ने फैसला देते हुए कहा था कि राजस्थान क्राइम ब्रांच ने न तो पहलू खान पर हमले का वह वीडियो पेश किया और न ही वह फोन पेश किया जिससे इसे शूट किया गया था और न इनकी फोरेंसिक लेबोरेट्री में जांच कराई गई. लेकिन यह भी सही है कि अदालत ने अभियोजन एजेंसी को CRPC के तहत जांच की खामियों को ठीक कराने के लिए भी नहीं कहा. जबकिCRPC के तहत अदालत को ऐसा करने का अधिकार है.
अगर जांच इतने ही लचर ढंग से हुई थी तो ट्रायल कोर्ट का कर्तव्य क्या बनता था? दो साल तक इस मामले की सुनवाई कर रही रही अदालत को क्या करना चाहिए था?
अदालत ने अपना फैसला सुनाने के दौरान इस मामले में एफआईआर दर्ज कराने में हुई देरी के लिए पुलिस की खिंचाई की. साथ ही जांच अधिकारी की ‘गंभीर लापरवाही’ की भी खिंचाई हुई. इसके बावजूद अपनी ड्यूटी में घोर लापरवाही बरतने वाले अफसर बच गए. ऐसा नहीं है कि जज सरिता स्वामी की अदालत की नजर से कमजोर चार्जशीट बची रही. अदालत ने इसका भरपूर नोटिस लिया. जज स्वामी ने लिखा- इस मामले में अभियोजन पक्ष ने कहा कि आरोपी मोबाइल से बनाए गए दो वीडियो के आधार पर पहचाने गए. लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से राकेश सिनसिनवार ने जिस वीडियो का हवाला दिया और इससे जो फोटोग्राफ तैयार किए उन्हें ही केस के रिकार्ड में नहीं रखा. और न ही वह मोबाइल जब्त किया गया, जिससे वीडियो बनाया गया था.
सिनसिनवार अलवर जिले के बहरोड़ पुलिस थाने के एसएचओ थे और इस केस के फर्स्ट इनवेस्टिगेटिंग अफसर भी. अदालत में अपने बयान में सिनसिनवार ने कहा कि उन्होंने इस मामले की जानकारी देने वाले से शूट किए गए वीडियो हासिल किए थे. लेकिन उन्होंने यह माना कि उन्होंने इसकी प्रामाणिकता जांचने के लिए इसे फोरेंसिक साइंस लैब नहीं भेजा.
सिनसिनवार ने ये भी माना कि आरोपी के कॉल डिटेल पर उन्होंने नोडल ऑफिसर की मंजूरी का सर्टिफिकेट भी नहीं लिया और न इसे किसे से वेरिफाई कराया. सिनसिनवार ने अदालत को यह भी बताया कि उन्होंने आरोपी के फोन का न तो बिल लिया और न सिम आईडी, जिससे यह पता चल सके कि फोन आरोपी का ही था. और तो और उन्होंने फोन भी जब्त नहीं किया.लेकिन क्या अदालत ने क्रिमिनल लॉ के तहत इस तरह जानबूझ कर लापरवाही बरतने के आरोप में एसएचओ को दंडित करने के अपने अधिकार का इस्तेमाल किया. इस बारे में तो अदालत ने कोई टिप्पणी करना तो दूर सिनसिनवार जैसे अफसर को सजा मिले इसकी भी कोई व्यवस्था नहीं की.
क्या अदालत अपने अधिकारों का इस्तेमाल करेगी?
सीआरपीसी की धारा 311 और एविडेंस एक्ट की धारा 165 पीठासीन जज को यह अधिकार देती है कि वह आगे बढ़ कर गवाहों को समन जारी करे और ट्रायल के दौरान सक्रिय होकर हस्तक्षेप करे. धारा 173 (8) अदालत को यह अधिकार देती है कि जांच करने वाली एजेंसी इसमें कोई कसर न छोड़े. आपराधिक मामले में जांच कमजोर न रहे, इसका वह पूरा इंतजाम करे. एजेंसी से पूरी तरह ठोक-बजा कर जांच की अपेक्षा की जाती है. आइए देखते हैं कि ऊपरी अदालतों ने इस तरह के मामलों पर क्या फैसले दिए हैं-
Karnel Singh v. State of M.P. (1995 (5) SCC 518.
खामियों से भरी जांच के मामले में कोर्ट को सबूतों की परख के दौरान सतर्क रहना होगा. उसे सक्रिय और विश्लेषणात्मक भूमिका निभानी होगी ताकि निराशा में हाथ पटकने के बजाय पहले धारा 311 और बाद में धारा 391 में मौजूद उपायों का इस्तेमाल कर सच का पता लगाया जा सके. जांच में खामियों के आधार पर आरोपी को छोड़ना गलत जांच करने वाले अधिकारियों के हाथों में खेलने जैसा है.
Paras Yadav and Ors. v. State of Bihar (1999 (2) SCC 126
जांच अधिकारी को ओर से मामले की जांच में गलती या अभियोजन पक्ष की ओर से सबूत पेश करने की खामियों की जांच की जरूरत है. कोर्ट को यह देखना होगा जांच अधिकारी जो सबूत दे रहा है वह सही है या नहीं. न्याय के रास्ते में अधिकारियों के गलत आचरण को बाधा नहीं बनने दिया जा सकता. ऐसे मामले में धारा, 311, 391 और Evidence Act की धारा 165 का इस्तेमाल कर सच का पता करना चाहिए.
यह ठीक है कि आरोपी को निचली अदालत ने बरी कर दिया है. उसे छोड़ने के समर्थन में फैसला दिया गया है लेकिन अगर उसकी रिहाई गलत दलीलों और सबूतों हुई है. या फिर अभोजन पक्ष ने न्याय के सिद्धांत का पालन नहीं किया या फिर डराने, धमकाने का इस्तेमाल किया गया है तो न्याय के सिद्धातों के मुताबिक इसका समर्थन नहीं किया जा सकता. गलत जांच की वजह से अगर आरोपी छूट जाता है तो यह सच का मजाक और न्यायिक प्रक्रिया के साथ धोखाधड़ी है.
Shakila Abdul Gafar Khan v. Vasant Raghunath Dhoble: (2003) 7 SCC 749.
न्याय के लिए सच से ज्यादा कोई प्रिय नहीं है. इसलिए यह अभियोजन पक्ष के वकीलों का कर्तव्य है कि कोर्ट के सामने रिकार्ड में पूरा और ठोस तथ्य पेश करे ताकि न्याय अपना रास्ता न भटके.
Zahira Habibulla Sheikh v.sState of Gujarat, (2004) 3 SCC 158)
चर्चित जाहिरा शेख मामले में जाहिरा हबीबुल्लाह शेख बनाम गुजरात राज्य केस (2004) में अदालत ने ट्रायल कोर्ट की भूमिका के बारे में गंभीर टिप्पणी की थी.
सच की तलाश, इसकी जीत और इसकी स्थापना ही न्यायिक अदालतों के अस्तित्व का आधार है. “ क्रिमिनल केस में कार्यवाही को पूरी तरह पक्षकारों पर नहीं छोड़ा जा सकता. लोगों के अधिकारों और कर्तव्यों के उल्लंघन के जरिये किया गया अपराध पूरे समुदाय को प्रभावित करता है. यह पूरे समाज के लिए हानिकारक है. कोर्ट पर न्यायिक प्रशासन में लोगों की विश्वास बहाल करने की जिम्मेदारी मानी जाती है.
Evidence Act की धारा 165 के तहत कोर्ट को मिला अधिकार धारा 311 के तहत मिले अधिकार का पूरक है. इस धारा के दो हिस्से हैं. 1. कोर्ट को यह अधिकार है कि वह गवाहों की किसी भी स्तर पर जांच कर सके 2. इस धारा के अनिवार्य हिस्से के रूप में कोर्ट अगर यह समझता है कि न्याय के लिए गवाहों की उपस्थिति जरूरी है तो वह ऐसा करवा सकता है.
अगर आपराधिक अदालत को प्रभावी तौर पर न्याय मुहैया कराना है तो मामलों की सुनवाई कर रहे महज दर्शक बन कर रहने से बचना होगा. वह कोई रिकार्डिंग मशीन नहीं है. उसे सुनवाई में सक्रिय रूप से भागीदारी करनी होगी. अपनी बुद्धिमानी का इस्तेमाल करना होगा और वह सभी संबंधित सामग्री मुहैया करानी होगी, जिससे किसी मामले में सही निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके. ऐसे मामलों में जज सिर्फ मूक दर्शक बन कर नहीं रह सकते.
(Translated By Anuja)