भाजपा को हराने के लिए आदिवासी-कुडमी एकता जरूरी है- विनोद कुमार

Written by विनोद कुमार | Published on: May 11, 2019
कुछ वर्ष पूर्व मेरी शैलेंद्र महतो से लंबी बातचीत हुई थी. उनका कहना था कि विस्थापन के संदर्भ में हमेशा आदिवासियों की चर्चा की जाती है, लेकिन वास्तविकता यह है कि कुड़मी समुदाय भी कल कारखानों की स्थापना से उतना ही विस्थापित हुआ जितना की आदिवासी. आदिवासी सूची से बाहर होने के बाद उसके जमीन का अधिग्रहण भी आदिवासियों की तुलना में ज्यादा आसान था और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के लिए उसने भी भारी मूल्य चुकाये.

इस हकीकत को हम बोकारो स्टील कारखाना और सीसीएल-बीसीसीएल के खदानों द्वारा हुए विस्थापन से परख सकते हैं. बैंक मोड़ सहित पूरा धनबाद शहर कुड़मियों के गांव-बस्ती को उजाड़ कर बने हैं. बाकारों स्टील कारखाना से उजड़ने वाले गांवों में आदिवासियों के साथ कुड़मी गांव भी हैं. ललपनिया, तेनुघाट, डीवीसी परियोजना की बलिवेदी पर सिर्फ आदिवासी नहीं, कुड़मी भी चढ़े. बावजूद इसके आज कुड़मी और आदिवासी राजनीति में तफरका क्यों हैं? यह क्यों माना जाता है कि कुड़मी भाजपा मुखी है? झारखंड की राजनीति में बड़े उलट फेर उनकी मदद से ही भाजपा कर सकी है?

झारखंड की तीन प्रमुख सामाजिक शक्तियां रही हैं- आदिवासी, सदान और औद्योगिक मजदूर. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के पतन के साथ औद्योगिक मजदूरों की ताकत घटती चली गई है. औद्योगिक प्रतिष्ठानों में जो वाईट कालर मजदूर बचे हैं, वे अपनी जातीय राजनीति से प्रभावित होते हैं. आदिवासियों में भी भाजपा सरना-सनातन का नारा देकर उन्हें तोड़ने में कामयाब रही है और उनका एक हिस्सा भाजपा मुखी है. सदानों में अनेक गैर आदिवासी समुदाय हैं- जैसे, बढ़ई, कुम्हार, लोहार, आदि लेकिन सबसे बड़ी आबादी कुड़मियों की है. सदियों से आदिवासी और सदान एक दुसरे के साथ और मिल कर रहे हैं. अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लिया दोनों ने मिल कर. झारखंड अलग राज्य के आंदोलन में भी उनकी सहभागिता रही. फिर वे कब झारखंडी राजनीति के दो धूरि बन गये?

इस तफरके को बढ़ाने में देश के अन्य हिस्सों से आने वाले कुरमियों ने अहम भूमिका निभाई. चाहे वे राम टहल चैधरी हों या रीतलाल वर्मा. वे सब अपने साथ मनुवाद की बीज लेकर आये और स्थानीय कुड़मियों को समझाना शुरु किया कि तुम आदिवासियों से भिन्न और श्रेष्ठ हो. जनेउ धारण का एक दौड़ चला. विनोद बिहारी महतो जीवन भर इसके खिलाफ संघर्ष करते रहे. शिबू सोरेन के साथ मिल कर भी और उनसे अलग होकर भी. झामुमो के नेता के रूप में कांग्रेस से तो उन्होंने तालमेल किया, लेकिन भाजपा की सांप्रदायिक नीति के वे हमेशा खिलाफत करते रहे.

एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है. कुड़मी पहले आदिवासियों के साथ ही सूचीबद्ध थे. फिर वे उससे अलग हुए. अब एक बार फिर आदिवासी बनना चाहते हैं. वह इस आधार पर की उनकी संस्कृति आदिवासियों से मिलती जुलती है. जनजाति होने की उनमें पात्रता है. फिर वे अपना भविष्य भाजपा के साथ रहने में कैसे देखते हैं? धनबाद माफिया संस्कृति का गढ़ है. कुड़मियों को धनबाद में हाशिये पर पहुंचाने वाली बहिरागत राजनीति भाजपा के साथ है. यदि वहां पीएन सिंह हैं, तो गिरिडीह में कुड़मी वोटरों की ही मदद से रवींद्र पांडे राज करते रहे हैं अब तक और अब भाजपा के टूल बन कर सुदेश महतो वहां पहुंच गये हैं कुड़मी वोटों का सौदागर बन कर.

कुड़मी राजनीति में उभर रहे नये युवा नेता मानते हैं कि कुड़मियों का भविष्य झारखंड के आदिवासियों के मिल कर जल जंगल जमीन की लड़ाई तीव्र करने में है, न कि कारपोरेट परस्त भाजपा का पुछल्ला बनने में. 12 मई को झारखंड के जिन चार लोकसभा सीटों के लिए मतदान होने जा रहा है, उनमें तीन सीटों पर कुड़मी वोटर निर्णायक हैं. वे तीन लोकसभा सीटें हैं-धनबाद, गिरिडीह और जमशेदपुर. कुछ उत्साही आदिवासी युवा यह समझते हैं कि आदिवासी एकता मात्र से ही वे भाजपा को परास्त कर देंगे. यह उनकी भूल है. एक तो आदिवासी एकता मुक्कमल संभव नहीं. दूसरी बात समझने की है कि बहिरागत वोटों को अनुपात अब शहरों और उससे लगे कस्बों तक में उस जगह पहुंच गया है जहां स्थानीय आबादी का एक छोटा हिस्सा प्राप्त कर भी वह चुनावी गणित में जीत जाता है.

मसलन, जमशेदपुर में आदिवासियों की आबादी कुड़मियों से बहुत ज्यादा है, बावजूद इसके यदि कुड़मी वोटरों ने भाजपा का रुख किया तो भाजपा वहां भारी पड़ेगी. इसी तरह गिरिडीह और धनबाद में कुड़मी यदि भाजपा गठबंधन के साथ गये तो उनकी जीत सुनिरिूचत हो जायेगी. क्योंकि बहिरगत तो अब पूरी तरह भाजपा के साथ हैं. वे इस बात को समझते हैं कि आदिवासी इलाके में रह कर मौज मस्ती करनी है तो एकजुट होकर और सत्ता पर काबिज रह कर ही यह संभव है.

जबकि स्थानीय आबादी निहित स्वार्थों के लिए और सत्ता में थोड़ी सी भागिदारी के लिए भाजपा के साथ जाने के लिए तत्पर रहती है. वैसे, इससे कुछ नेताओं का तो फायदा हो जाता है, लेकिन जनता तबाह होती है चाहे वह आदिवासी हो, सदान हो या बहिरागत मजदूर तबका. इसलिए दरकार है आदिवासी कुड़मी एकता.

(यह आर्टिकल साथी जोहार डॉट कॉम से साभार प्रकाशित किया गया है। इसके लेखक विनोद कुमार समर शेष है' और 'रेड जोन' उपन्यास लिख चुके हैं व लंबे अरसे तक पत्रकारिता से जुड़े एक्टिविस्ट पत्रकार हैं.)

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