स्मृतिशेष: हूल जोहार अभय फ्लेवियन खाखा!

Written by गंगा सहाय मीणा | Published on: March 15, 2020
हमारे समय के सबसे सजग और सक्रिय आदिवासी बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता अभय फ्लेवियन खाखा की असामयिक मृत्‍यु ने आदिवासी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। आदिवासी दर्शन के मुताबिक एक सुंदर दुनिया के सपने को साकार करने के लिए संघर्षरत अभय का जन्‍म ओडिशा और झारखंड की सीमा पर घने जंगल में बसे छत्‍तीसगढ के जशपुर जिले के चितक्‍वाइन (कुनकुरी) गांव में 14 मार्च 1972 को हुआ। उनकी मां फिलीसिता और पिता अल्‍फ्रेड खाखा उरांव समुदाय के आरंभिक स्‍नातकों में से थे। पिता अल्‍फ्रेड ने कानून की पढाई की और आदिवासी समाज के शुरूआती न्‍यायधीश बने। पिता के प्रभाव में अभय और उनके भाई ने भी कानून की पढाई की। न्‍यायधीश पिता ने अपनी दोनों बेटियों को भी अच्‍छी शिक्षा दिलाई।



अभय ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लोयोला हायर सेंकण्‍डरी स्‍कूल (कुनकुरी) से प्राप्‍त की। रानी दुर्गावती विश्‍वविद्यालय, दुर्गापुर से बी.कॉम. करने के बाद अभय ने जबलपुर से एलएलबी की। इस बीच उनकी सामाजिक सक्रियता की वजह से बीच-बीच में पढाई बाधित रही लेकिन यह सुखद संयोग रहा कि 2007 में उन्‍हें उच्‍च अध्‍ययन के लिए फोर्ड फाउंडेशन की स्‍कॉलरशिप मिली जिसके अंतर्गत उन्‍होंने ससेक्‍स विश्‍वविद्यालय (ब्रिटेन) से सोशल एंथ्रोपॉलोजी में पोस्‍ट ग्रेजुएशन किया। अब बाहरी दुनिया का रास्‍ते खुल चुके थे। उन्‍होंने शोध अपने पसंदीदा जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय (नई दिल्‍ली) से किया। अभय और वाणी ने प्रेम-विवाह किया। उनके दो बच्‍चे हैं। 

एक्टिविज्‍म अभय के जीवन का अभिन्‍न हिस्‍सा था। इसकी शुरूआत बहुत पहले ही हो गई थी जब सेकण्‍डरी स्‍कूल में अध्‍ययन के दौरान एक दिन जंगल से लकड़ी चुनने के जुर्म में भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत उन्‍हें गिरफ्तार कर लिया गया। वे जमानत पर रिहा तो हो गए लेकिन इस घटना ने उनके अकादमिक और सामाजिक जीवन को आकार देने में अहम भूमिका निभाई। वे जिस स्‍कूल में पढ़ते थे उसमें 90 फीसदी विद्यार्थी आदिवासी थे। उन्‍हें इस बात ने भी काफी आहत किया कि उनके साथ के ज्‍यादातर विद्या‍र्थी गरीबी के कारण एक-एक कर पढाई छोड़ रहे हैं। उन्‍हीं दिनों अभय के पिता भी भेदभाव का शिकार हुए और उन्‍हें जजी छोड़नी पड़ी। परिवार को वापस अपने पैतृक गांव लौटना पड़ा। स्‍वयं अभय को आर्थिक परिस्‍थितयों के चलते कई बार अपनी पढाई छोड़नी पड़ी। इन घटनाओं ने उनके दिलो-दिमाग पर गहरा असर डाला। आदिवासी हॉस्‍टल में रहने के दौरान वे अपने साथी विद्यार्थियों के साथ आदिवासी मुद्दों पर विचार-विमर्श करते और आदिवासी विद्यार्थियों के साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ लड़ते। उन्‍हीं दिनों उन्‍होंने आदिवासी छात्र संघ का गठन भी किया।

जशपुर राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ द्वारा संचालित वनवासी कल्‍याण आश्रम की प्रयोगशाला रहा है। अभय ने अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन की शुरूआत आश्रम की गतिविधियों और लक्ष्‍यों का पर्दाफाश करते हुए की। तमाम प्रश्‍नों पर विचार करते हुए अभय इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे कि बाहरी लोगों के अनावश्‍यक दखल से आदिवासियों का जीवन दुश्‍कर हो रहा है। बाहरी लोग विकास के पूंजीवादी मॉडल की मदद से न केवल आदिवासियों का आर्थिक शोषण करते हैं बल्कि धार्मिक व सांस्‍कृतिक हमला करते हुए उनके भीतर पदानुक्रम के बीज भी बो रहे हैं। बाहरी समाजों के आर्थिक हमले को चुनौती देने के लिए अभय ने लोन पर एक जीप खरीदी, जिसे वे जशपुर में किराये पर चलाते थे और जो उस इलाके की पहली आदिवासी जीप थी। इससे आदिवासी युवकों को छोटे-मोटे व्‍यवसाय शुरू करने और एकजुट होने में मदद मिली।

छत्‍तीसगढ़ बनने के बाद अभय ने अपने साथियों के साथ मिलकर 'कार्ट' (छत्‍तीसगढ़ रिसर्च टीम) नाम से एक संस्‍था बनाई जिसका लक्ष्‍य नीति निर्माण में दखल करना था। इसी दौरान वे एकता परिषद, भारत जन आंदोलन, नदी घाटी मोर्चा आदि संगठनों के संपर्क में आए जो आदिवासी हितों के लिए काम कर रहे थे। शुरू में इस तरह के गैर-सरकारी संगठनों के व्‍यवस्थित काम ने अभय को आकर्षित किया लेकिन जल्‍द ही उन्‍हें अहसास हुआ कि ये तमाम संगठन सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए हैं और इनके प्रमुख पदों पर गैर-आदिवासी विराजमान हैं। इससे उनका इस तरह के संगठनों से मोहभंग हो गया और उन्‍होंने विभिन्‍न प्रोजेक्‍ट्स के माध्‍यम से आदिवासियों पर स्‍वतंत्र अध्‍ययन करना शुरू किया। बंधुआ मजदूरों पर किये गए अपने शोध की बदौलत ही अभय का चयन फोर्ड फाउंडेशन की फैलोशिप के लिए हो गया जिसके तहत वे ससेक्‍स यूनिवर्सिटी (ब्रिटेन) में मास्‍टर्स की पढाई करने के लिए गए। वे संभवत: पहले भारतीय आदिवासी थे जिन्‍हें यह फैलोशिप मिली।

बाहर से पढाई कर लौटने पर अभय को इंडियन इंस्‍टीट्यूट ऑफ दलित स्‍टडीज में काम मिल गया। जहां उन्‍होंने आदिवासियों के साथ होने वाले भेदभाव के विभिन्‍न प्रकारों के बारे में अध्‍ययन किया, आदिवासी स्त्रियों के सवालों को समझा और सबसे अहम, बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर और भारत के दलित आंदोलन की बारीकियों को जाना। उन्‍होंने जवाहरलाल नेहरू विश्‍व‍विद्यालय में शोध करते हुए आदिवासी अध्‍ययन और आंदोलन को नई धार दी। जेएनयू में किये गए शोध में अभय ने आदिवासी भू-अधिकारों पर अपने विश्‍लेषण से सरकार और कॉर्पोरेट जगत की नींद उड़ा दी। वे अपनी सक्रियता की वजह से सरकार और पूंजीपतियों के निशाने पर थे। उनके अध्‍ययन और एक्टिविज्‍म में एक बात बार-बार झलकती रही कि वंचित तबकों के आगे आ गए लोगों को अपने समाज के पीछे छूट गए लोगों के हित में काम करना चाहिए, यह हम सबकी नैतिक जिम्‍मेदारी है। अभय की चिंता थी कि विभिन्‍न सरकारों की अरुचि व नौकरशाही के नकारात्‍मक रवैये के कारण आदिवासियों को उनके संवैधानिक अधिकार नहीं मिल पा रहे। ट्राइबल सब-प्‍लान की योजनाओं और अनुदान का आदिवासियों के लिए समुचित उपयोग हो- इस हेतु अभय पिछले वर्षों में लगातार काम कर रहे थे और इसे उन्‍होंने एक मुद्दा बनाया।

आदिवासी आंदोलनों को डॉ. अंबेडकर और दलित आंदोलनों से प्रेरणा लेनी चाहिए, उनके साथ जुड़ना चाहिए- यह अभय का मौलिक विचार था जिससे उनके आदिवासी साथियों की एक सीमा से ज्‍यादा सहमति नहीं थी। अभय देश के तमाम आदिवासी कार्यकर्ताओं व संगठनों को एक मंच पर लाने के लिए काम कर रहे थे। नवंबर 2019 में इसी आशय का एक राष्‍ट्रीय आयोजन उन्‍होंने भोपाल में किया। वे ट्राइबल इंटेलेक्‍चुअल कलेक्टिव व नेशनल कोअलिशन फॉर आदिवासी जस्टिस से गहरे में जुड़े हुए थे। ये दोनों संगठन आदिवासी संगठनों को एकजुट करने, आदिवासियों हित में नीतियां बनाने हेतु सरकार से संवाद करने और उन पर दबाव डालने और आदिवासी अधिकारों की रक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अभय पहली आदिवासी फिल्‍म 'सोनचांद' में भी लीड भूमिका में काम कर रहे थे। फिलहाल वे सीबीसीआई से रिसर्चर के तौर पर जुड़े हुए थे। अभय कई वर्षों से दिल्‍ली में नेशनल सेंटर फॉर ट्राइबल स्‍टडीज की स्‍थापना के लिए काम कर रहे थे और इन दिनों इसको अंतिम रूप दे रहे थे।

अभय ने आजीवन आदिवासी दर्शन के अनुकूल दुनिया रचने के लिए संघर्ष किया, जहां आदिवासी वोट बैंक या बेजान सजावटी वस्‍तु नहीं, अपनी अस्मिता के साथ जिंदा रहें। स्‍वयं उनके शब्‍दों में-

'तुम्हारे शब्द, तुम्हारे नक्शे
तुम्हारे चित्र, आंकड़े और सभी संकेतक
गढ़ते हैं मायावी भ्रम
जिसके सहारे तुम जा बैठते हो शीर्ष पर
ताकि वहां से देख सको
अपने बहुत-बहुत नीचे हम सबको
इसलिए हम रचेंगे खुद अपना चित्र
और खोजेंगे अपना व्याकरण
हम खुद ही बनाएंगे हथियार
अपनी लड़ाइयों के लिए
स्वयं और अपने पूरे समुदाय के लिए
समूची सृष्टि और समष्टि के लिए
हां, हम
हम सब आदिवासी स्वयं'।

(लेखक 'आदिवासी साहित्‍य' पत्रिका के संस्‍थापक-संपादक व भारतीय भाषा केन्‍द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय, नई दिल्‍ली में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)

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