खुशामदखोरी की इंतहा: ...तो मोदी अब शिवाजी भी हैं?

Written by Ram Puniyani | Published on: January 16, 2020
शिवाजी क्षत्रीय नहीं थे इसलिए ब्राह्मणों ने उनका राजतिलक करने से मना कर दिया था। इसके लिए गागा भट्ट नाम के एक ब्राह्मण को भारी दक्षिणा देकर काशी से लाया गया था। तीस्ता सीतलवाड़ की ‘हैंडबुक ऑन हिस्ट्री फॉर टीचर्स’ में इस तथ्य को रेखांकित किया गया है।



महाराष्ट्र में शिवाजी बहुत ऊंचे कद के जननायक हैं। समाज के विभिन्न वर्ग अलग-अलग कारणों से शिवाजी को अत्यंत श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। उनकी वीरता और शौर्य की कहानियां जनश्रुति का हिस्सा हैं। उनकी असंख्य मूर्तियाँ प्रदेश में जगह-जगह पर देखी जा सकती हैं और उनके बारे में गीत अत्यंत लोकप्रिय हैं। ये गीत, जिन्हें पोवाडा कहा जाता है, शिवाजी के जीवन के विविध पक्षों का प्रशंसात्मक वर्णन करते हैं।

अतः आश्चर्य नहीं कि जयभगवान गोयल की पुस्तक ‘आज के शिवाजी नरेन्द्र मोदी’ का दिल्ली प्रदेश भाजपा द्वारा आयोजित एक सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम में लोकार्पण की महाराष्ट्र में अत्यंत तीखी प्रतिक्रिया हुई। राज्य के अनेक नेता आगबबूला हो गए। शिवसेना के संजय राउत ने शिवाजी के वंशज संभाजी राजे, जो भाजपा सदस्य हैं, से कहा कि इस मुद्दे को लेकर उन्हें राज्यसभा से इस्तीफा दे देना चाहिए। संभाजी राजे ने इस सन्दर्भ में एक बयान जारी कर कहा, “हम नरेन्द्र मोदी, जो दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री चुने गए हैं, का अत्यंत सम्मान करते हैं। परन्तु न तो उनकी (मोदी) और ना ही दुनिया में किसी और की तुलना शिवाजी महाराज से की जा सकती है।” एनसीपी नेता जितेंद्र आव्हाड का कहना था कि मोदी और भाजपा, महाराष्ट्र के गौरव शिवाजी का अपमान कर रहे हैं।

यह पहली बार नहीं है के इस मध्यकालीन मराठा योद्धा को लेकर महाराष्ट्र में कोई विवाद खड़ा हुआ हो। कुछ वर्ष पहले, संभाजी ब्रिगेड ने जेम्स लेन की पुस्तक ‘शिवाजी - ए हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया’ पर प्रतिबन्ध लगाये जाने की मांग की थी क्योंकि उसके अनुसार, पुस्तक में शिवाजी के बारे में कुछ आपत्तिजनक बातें कहीं गईं थीं। पुणे के भंडारकर इंस्टिट्यूट, जिसने जेम्स लेन को उनकी पुस्तक के लिए शोध कार्य में मदद की थी, में भी तोड़-फोड़ की गयी थी। शिवाजी को लेकर जाति-आधारित विवाद भी होते रहे हैं। अरब सागर में उनकी एक भव्य मूर्ति स्थापित करने के लिए गठित समिति के अध्यक्ष पद पर बाबासाहेब पुरंदरे नामक एक ब्राह्मण लेखक, जिन्होंने शिवाजी के बारे में लोकप्रिय लेखन किया है, की प्रस्तावित नियुक्ति का मराठा महासंघ और शिवधर्म के नेताओं ने कड़ा विरोध किया था।

जहाँ शिवाजी के मुद्दे पर कई विवाद उठते रहे हैं वहीं यह भी सही है कि विभिन्न राजनैतिक शक्तियों ने अपने-अपने हिसाब से उनकी छवि गढ़ी है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर हम असली शिवाजी किसे माने। इस मामले में दो विपरीत प्रवृत्तियां देखी जा सकतीं हैं। एक तरफ शिवाजी को गौ-ब्राह्मण प्रतिपालक और मुस्लिम-विरोधी राजा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। उनकी इस छवि का निर्माण लोकमान्य तिलक के काल में हुआ था और हिन्दू राष्ट्रवादियों ने उसे थाम लिया क्योंकि वह उनके राजनैतिक एजेंडे के अनुरूप था। नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की आलोचना करते हुआ कहा था कि उनका राष्ट्रवाद, शिवाजी और महाराणा प्रताप के राष्ट्रवाद के आगे बौना है।

महाराणा प्रताप और शिवाजी को हिन्दू राष्ट्रवाद का प्रतीक बताया जा रहा है और इन दोनों राजाओं के जीवन और कार्यों को मुसलमानों के विरोध से जोड़ा जा रहा है। शिवाजी को गाय और ब्राह्मणों का पूजक बताकर, हिन्दू राष्ट्रवादी अपने ब्राह्मणवादी एजेंडे को भी आगे बढ़ा रहे है। शिवाजी कि यह छवि, संघ परिवार को बहुत भाती है। 

सन 2014 के आम चुनाव के पहले मुंबई में एक सभा को संबोधित करते हुए नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि शिवाजी ने सूरत पर आक्रमण इसलिए किया था ताकि वे औरंगजेब का खजाना लूट सकें। शिवाजी और औरंगजेब और शिवाजी और अफज़ल खान के बीच लड़ाईयों को हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच युद्ध के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। सच यह कि सूरत को इसलिए लूटा गया था क्योंकि वह एक समृद्ध बंदरगाह शहर था। बाळ सामंत की पुस्तक इस हमले पर विस्तार से प्रकाश डालती है। यह महत्वपूर्ण है कि शिवाजी की वास्तविक विजय यात्रा तब शुरू हुई थी जब उन्होंने मराठा सरदार चंद्रराव मोरे से जावली का किला जीता था। उन्होंने जावली के खजाने पर भी कब्ज़ा कर लिया था। शिवाजी और औरंगजेब के बीच युद्ध, हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष नहीं था यह इससे जाहिर है कि औरंगजेब की तरफ से मिर्ज़ा राजा जयसिंह शिवाजी के खिलाफ लड़ रहे थे और शिवाजी के अनेक सेनापति मुसलमान थे। शिवाजी के गुप्तचर मामलों के सचिव का नाम काज़ी हैदर था। दरया सारंग उनके तोपखाने के प्रभारी थे और दौलत खान उनकी नौसेना के। इब्राहीम खान भी उनकी सेना में उच्च पद पर थे। इससे साफ़ है कि राजा - चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान - अपने प्रशासन और सेना में धर्म के आधार पर नियुक्तियां नहीं करते थे। शिवाजी और अफ़जल खान के बीच युद्ध में रुस्तम-ए-जामां शिवाजी की ओर थे और कृष्णाजी भास्कर कुलकर्णी, अफ़जल खान का साथ दे रहे थे।

जहाँ तक शिवाजी की लोकप्रियता का सवाल है, उसका कारण यह था कि वे अपनी जनता की भलाई के प्रति फिक्रमंद थे। उन्होंने आम किसानों पर करों का बोझ घटाया और ज़मींदारों को किसानों पर अत्याचार करने से रोका। शिवाजी के जीवन का यह पक्ष कामरेड गोविन्द पंसारे की पुस्तिका ‘हू वाज़ शिवाजी?’ और जयंत गडकरी की ‘शिवाजी: एक लोक कल्याणकारी राजा’ में प्रस्तुत किया गया है। चूँकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे इसलिए ब्राह्मणों के उनका राजतिलक करने से इनकार कर दिया था। इसके बाद,  गागा भट्ट नाम के एक ब्राह्मण को भारी दक्षिणा देकर काशी से इसके लिए लाया गया था। तीस्ता सीतलवाड़ की ‘हैंडबुक ऑन हिस्ट्री फॉर टीचर्स’ में इस तथ्य को रेखांकित किया गया है।

आज भाजपा और ब्राह्मणवादी ताकतें शिवाजी को ब्राह्मणों और गाय के पूजक के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। परन्तु निम्न जातियों के हिन्दुओं को शिवाजी की यह छवि प्रभावित नहीं करती। जोतीराव फुले ने शिवाजी पर एक पोवाडा लिखा था जो इसी मुद्दे पर केन्द्रित था। आज शिवाजी के मामले में हिन्दू राष्ट्रवादियों की सोच को दलित-बहुजन स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।

भाजपा के जयभगवान सिंह गोयल और उनके जैसे अन्य लोग शिवाजी को मुस्लिम-विरोधी और ब्राह्मणवादी बताना चाहते हैं और साथ ही, शिवाजी की तुलना नरेन्द्र मोदी से कर यह सन्देश देना चाहते हैं कि मोदी भी यही कर रहे हैं। गैर-भाजपाई दल इस जाल में फंसने को तैयार नहीं हैं। वे शिवाजी की उस छवि को चमकाना चाहते हैं जिसे जोतीराव फुले आदि ने प्रस्तुत किया था और जिसे दलित-बहुजनों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले सही मानते हैं। इस पुस्तक की आलोचना इसलिए होनी चाहिए क्योंकि यह इन तथ्यों को नज़रअंदाज़ करती है कि शिवाजी किसानों के हितरक्षक थे और सभी धर्मों का सम्मान करते थे।  

(अंग्रेजी से हिन्दी रुपांतरण अमरीश हरदेनिया) 

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