भक्त: ऋषिवर, ये विश्वगुरु के सपूत फुटबॉल क्यों नही खेलते ? मुट्ठी भर जनसंख्या वाले देश चैंपियन बन रहे हैं और हम करोड़ो लोग सिर्फ ताली बजा रहे हैं। यह क्या रहस्य है प्रभु?
ऋषिवर: वत्स ये एक अन्य गूढ़ रहस्य है जंबूद्वीप के सूरमाओं का, ध्यान से सुनो। फुटबॉल एक असभ्य खेल है इसमें मजबूत पैरों और "बॉल्स" की जरूरत होती है जो हमारे पास आरंभ से ही नहीं है। विश्वगुरु के सूरमा जमीन पर चलने या दौड़ने के लिए नहीं बल्कि परलोक और वैकुंठ में उड़ने के लिए बने हैं।
हमसे आसमानी और हवा हवाई बातें करके देखो, फिर हम तुम्हे सड़क किनारे "बैठे" हुए वहीं कान में धागा लपेटे हुए मिट्टी में नाखून से पुष्पक विमान और ब्रह्मलोक का नक्शा बनाकर दिखाएंगे।
हम लोग सभ्य खेल खेलते हैं वत्स, सभ्य खेलों में पैर की या "बॉल्स" की मूवमेंट्स नहीं देखी जाती बल्कि मुख से बीज-मन्त्र के जाप की और फेफड़ों के प्राणायाम की क्षमता देखी जाती है।
हमारे प्रिय खेल में पैरों से बॉल को मारकर गोल तक नहीं पहुंचाया जाता बल्कि गोल की तरफ बढ़ रहे पैरों को खींचकर औंधे मुंह गिराया जाता है।
यही विश्वगुरु की सनातन सँस्कृति रही है। हमारा प्रिय खेल हमारी संस्कृति का दर्पण रहा है वत्स।
भक्त: आप किस खेल की बात कर रहे हैं ऋषिवर मै कुछ समझा नहीं!
ऋषिवर: समझो वत्स, हम कबड्डी की बात कर रहे हैं। विश्वगुरु किसी भी सजीव या निर्जीव वस्तु को उसके अपने गोल या लक्ष्य की तरफ जाने देने के लिए नहीं बैठे हैं। विश्वगुरु सबको गोल या लक्ष्य से भटकाकर राह में टांग खींचने के लिए अवतार धरे हैं। लक्ष्य तक पहुंचाना नहीं बल्कि मार्ग से भटकाना हमारे खेल का मुख्य सन्देश है।
फुटबॉल में हो रहा सामूहिक उद्यम हमारी सँस्कृति और दर्शन के खिलाफ है। योजना बनाकर सहकार करना और सबके आनन्द के लिए बॉल को गोल पोस्ट में डालने या लक्ष्य तक पहुंचाने का अभ्यास भारतीय संस्कृति और वर्ण व्यवस्था के लिए घातक है।
इसीलिए समस्त ऋषिगण कबड्डी-कबड्डी जैसे बीज-मन्त्रजाप और सांस रोके रखने जैसे प्राणायाम और योग में देश की प्रजा को फसाकर धीरे से उसकी टांग खींचते हैं।
जपकर्ता और नौसिक्खड़ प्राणायामी जनता को पता भी नही चलता कि उसे जप प्राणायाम और योग क्यों सिखाया जा रहा है, जब तक वो समझ पाए तब तक विश्वगुरु उसकी टांग खींचकर डिबेट का मुद्दा और सरकार दोनों बदल देते हैं।
अब तुम ही बताओ वत्स, उन विधर्मियों के फुटबॉल नामक खेल में सनातन संस्कृति की सेवा करने की ऐसी विराट संभावना कहाँ है?
भक्त: अहो ऋषिवर, अद्भुत! कबड्डी और फुटबॉल के इस अंतर में इतनी विराट देशना छुपी है... अनुपम!
ऋषिवर: वत्स ये एक अन्य गूढ़ रहस्य है जंबूद्वीप के सूरमाओं का, ध्यान से सुनो। फुटबॉल एक असभ्य खेल है इसमें मजबूत पैरों और "बॉल्स" की जरूरत होती है जो हमारे पास आरंभ से ही नहीं है। विश्वगुरु के सूरमा जमीन पर चलने या दौड़ने के लिए नहीं बल्कि परलोक और वैकुंठ में उड़ने के लिए बने हैं।
हमसे आसमानी और हवा हवाई बातें करके देखो, फिर हम तुम्हे सड़क किनारे "बैठे" हुए वहीं कान में धागा लपेटे हुए मिट्टी में नाखून से पुष्पक विमान और ब्रह्मलोक का नक्शा बनाकर दिखाएंगे।
हम लोग सभ्य खेल खेलते हैं वत्स, सभ्य खेलों में पैर की या "बॉल्स" की मूवमेंट्स नहीं देखी जाती बल्कि मुख से बीज-मन्त्र के जाप की और फेफड़ों के प्राणायाम की क्षमता देखी जाती है।
हमारे प्रिय खेल में पैरों से बॉल को मारकर गोल तक नहीं पहुंचाया जाता बल्कि गोल की तरफ बढ़ रहे पैरों को खींचकर औंधे मुंह गिराया जाता है।
यही विश्वगुरु की सनातन सँस्कृति रही है। हमारा प्रिय खेल हमारी संस्कृति का दर्पण रहा है वत्स।
भक्त: आप किस खेल की बात कर रहे हैं ऋषिवर मै कुछ समझा नहीं!
ऋषिवर: समझो वत्स, हम कबड्डी की बात कर रहे हैं। विश्वगुरु किसी भी सजीव या निर्जीव वस्तु को उसके अपने गोल या लक्ष्य की तरफ जाने देने के लिए नहीं बैठे हैं। विश्वगुरु सबको गोल या लक्ष्य से भटकाकर राह में टांग खींचने के लिए अवतार धरे हैं। लक्ष्य तक पहुंचाना नहीं बल्कि मार्ग से भटकाना हमारे खेल का मुख्य सन्देश है।
फुटबॉल में हो रहा सामूहिक उद्यम हमारी सँस्कृति और दर्शन के खिलाफ है। योजना बनाकर सहकार करना और सबके आनन्द के लिए बॉल को गोल पोस्ट में डालने या लक्ष्य तक पहुंचाने का अभ्यास भारतीय संस्कृति और वर्ण व्यवस्था के लिए घातक है।
इसीलिए समस्त ऋषिगण कबड्डी-कबड्डी जैसे बीज-मन्त्रजाप और सांस रोके रखने जैसे प्राणायाम और योग में देश की प्रजा को फसाकर धीरे से उसकी टांग खींचते हैं।
जपकर्ता और नौसिक्खड़ प्राणायामी जनता को पता भी नही चलता कि उसे जप प्राणायाम और योग क्यों सिखाया जा रहा है, जब तक वो समझ पाए तब तक विश्वगुरु उसकी टांग खींचकर डिबेट का मुद्दा और सरकार दोनों बदल देते हैं।
अब तुम ही बताओ वत्स, उन विधर्मियों के फुटबॉल नामक खेल में सनातन संस्कृति की सेवा करने की ऐसी विराट संभावना कहाँ है?
भक्त: अहो ऋषिवर, अद्भुत! कबड्डी और फुटबॉल के इस अंतर में इतनी विराट देशना छुपी है... अनुपम!