अयोध्या दीपोत्सव: दीयों से तेल इकट्ठा करने वाले इन गरीबों पर भी गौर दीजिए महंत जी!

Written by संजय कुमार सिंह | Published on: October 30, 2019
मुझे लगता है कि भारतीय जनता पार्टी अब ऐसी स्थिति में पहुंच गई है कि उसे विरोधियों से कम अपनों से ज्यादा खतरा है। अपने मतलब वही जो आंख बंद कर वोट देते हैं और जरा सा भी कमी रहने पर मुंह फेर लेते हैं। अभी तो भाजपा की खबर शिवसेना ले रही है और नतीजा चाहे जो हो, राजनीति हारेगी, आम आदमी हारेगा। पर अभी मुद्दा वह नहीं है। हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम से लगता है कि कांग्रेस वोट मांगे या नहीं मांगे लोगों को भाजपा का विरोध करना होगा तो होगा। लाभ किसी को हो। पप्पू बनाने पर करोड़ों फूंकने के बावजूद। पर अभी वह भी मुद्दा नहीं है। अभी मैं भाजपा के उन समर्थकों की बात करना चाहता हूं जो भाजपा की आलोचना नहीं सुन सकते। और बचाव में मूर्खतापूर्ण तर्कों के साथ कहीं भी कूद जाते हैं। यह आत्महत्या करने जैसा ही होता है और बुरी तरह धो दिए जाने के बाद, देर-सबेर ऐसे भक्त अपनी पार्टी या नेता का बचाव भी नहीं कर पाएंगे।



इस तरह, ये लोग अगर अपनी मूर्खता से पार्टी का नुकसान कर रहे हैं तो आगे अपनी अनुपस्थिति या चुप्पी से करेंगे और लगेगा जैसा सरकार का कोई समर्थक है ही नहीं। सोशल मीडिया पर ऐसी स्थिति हो गई तो संभव है, आम मतदाताओं में गलत संदेश जाए। क्योंकि सोशल मीडिया ने ही गुब्बारे में हवा भर कर 56 ईंची का सीना बनाया था जो वैसे ही बहुत लिजलिजा और बेमतलब ही नहीं नुकसानदेह साबित हो चुका है। ताजा मुद्दा अयोध्या में दीये जलाने का है। मेरा मानना है कि सत्ता पाने वाली पार्टी अपनी पसंद, प्राथमिकता और योग्यता के अनुसार ही काम कर सकती है। पैसे कमाना इसमें शामिल है और लोग अंतिम परिणाम के आधार पर दोबारा सत्ता में आने का मौका देते हैं या नहीं देते हैं। 2019 का लोकसभा चुनाव अपवाद रहा जो पुलवामा के फर्जी राष्ट्रवाद पर लड़ा गया। पर अभी चर्चा का मुद्दा वह भी नहीं है।

अयोध्या में दीवाली से पहली दीये जलाना, रिकार्ड बनाना सही या गलत – काम तो है ही। इसकी प्रशंसा करने वाले प्रशंसा कर सकते हैं और निन्दा करने वालों को इसका भी हक है। निन्दा करने वालों का तर्कसंगत विरोध हो तो निन्दा बेमतलब लगेगी और कुतर्कों से निन्दा का विरोध करने से नुकसान न हो, नफा भी नहीं होने वाला। उल्टे, यह कायदे से विरोध करने के लिए उकसाना भी है। साथ में प्रकाशित इस चित्र को सोशल मीडिया पर कइयों ने पोस्ट और शेयर किया है। मुझे नहीं पता यह दीये में तेल डालने की तस्वीर है या दीये बुझ जाने के बाद बचे हुए तेल इकट्ठा करने की। दोनों ही स्थिति में यह प्रदेश की गरीबी को ही रेखांकित करती है। देखने में भी लगता है, “.... जैसे नहाने को साबुन नहीं मिला होगा हफ्तों से .... न ही बालों में तेल पड़ा है .... मगर आप विश्व रिकॉर्ड बनाइये जय हो आपकी (एक पोस्ट)।”

इसके बचाव में यह नहीं कहा जा सकता है, “.... अरे ये तो बहुत आम नजारा है जी ….. हमेशा से देखता आ रहा हूँ कि दीपावली की रात दीये का तेल बटोरने के लिए गरीब घरों के कई बच्चे घुमा करते हैं।” अगर यह सही और सामान्य है तो क्या इस दिशा में कुछ करने की जरूरत नहीं है। इस बच्ची की तस्वीर डालना व्यर्थ है? क्या सरकार से यह अपेक्षा करना गलत है कि वह दीये जलाने पर करोड़ों फूंकने की बजाय ऐसी बच्चिय़ों या इन गरीबों के लिए काम करे। इसमें ‘बजाय’ को आप ‘साथ’ भी कर सकते हैं। क्या सरकार को यह सुनिश्चित नहीं करना चाहिए था कि तेल डालने के काम में गरीब, अवयस्क बच्चे नहीं लगाए जाएं और बच्चों की पढ़ाई सुनिश्चित की जाए जिससे वे बचे हुए तेल इकट्ठा करने जैसे काम न करें। पर बचाव देखिए। यह बचाव नहीं किया जाता तो कोई हर्ज था? इस बचाव से तो यही लगता है कि सरकार के समर्थक कहना चाहते हैं कि गरीबों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है।

हो सकता है यह कुछ लोगों को ठीक लगता हो पर जिसे गरीबी की उपेक्षा कर दीये जलाना सही नहीं लगता हो, वो भी गरीब नहीं हैं। इसी तरह, आपको याद होगा, गोरखपुर के एक अस्पताल में ऑक्सीजन की कीमत का भुगतान नहीं होने और इस कारण ऑक्सीजन की आपूर्ति बंद होने से कई बच्चे मर गए थे। यह प्रशासनिक लापरवाही और निर्ममता का बहुत ही दर्दनाक उदाहरण है। इसके लिए दोषी लोगों की पहचान नहीं हुई है, किसी को सजा नहीं हुई है पर उत्तर प्रदेश सरकार की वही व्यवस्था हर साल दीये जलाने के लिए तेल के पैसे देती है। समय पर तेल आता है और दीये जलते हैं। निश्चित रूप से यह सरकार की प्राथमिकता का मामला है। सरकार को दीये जलाने हैं इसलिए जल रहे हैं, बच्चों के मरने से फर्क नहीं पड़ता था इसलिए मर गए। किसी छोटे-मोटे को बलि का बकरा बना दिया गया होता तो मामला खत्म हो जाता पर ऐसा भी नहीं किए जाने से लगता है कि दोषी कोई बड़ा आदमी है। और यह सरकार ऐसे बड़े दोषियों को बचाती है।

सरकार के समर्थक ऐसी टिप्पणी का जवाब क्या दे रहे हैं? “सैफई महोत्सव और हज सब्सिडी में पैसा जनता की भलाई के लिए लगता था क्या। एक हिन्दू पर्व सरकार ने मनवा दिया तो लोग लगे अंग्रेजी झाड़ने।” पर सच यह है कि सैफई महोत्सव के दौर में गोरखपुर अस्पताल में ऑक्सिजन भी होता था। और एक गांव – ‘सैफई’ विकसित भी हुआ था। जहाँ अस्पताल, स्टेडियम, एअरपोर्ट भी बनाया गया। इस .... (सरकार) ने मुख्यमंत्री का नहीं तो किसी और का गांव विकसित किया है क्या? वैसे तो गोरखपुर में बच्चों की मौत का सैफई महोत्सव से कोई लेना देना ही नहीं है। .... यही नहीं, सैफई महोत्व होता था तो बच्चे मरे क्या? ना उसकी वजह से ऐसा कुछ हुआ। इसी तरह, किसी ने लिखा है, “.... जिस हज सब्सिडी पर नेताओं, और इंडियन एयरलाइंस की मौज थी उसको ख़त्म करने की मांग खुद मुसलमानों ने कि जो पिछले कई सालों से बंद है। और जहां तक सैफई महोत्सव की बात है, “इन्हीं कर्मों से पीछा छुड़ाने के लिए ही तो इनको चुना गया था, पर अफसोस यह भीं उन्ही कि तरह निकले, जो सरकारी माल को अपने बाप का माल समझ उड़ा रहे हैं।”

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार अयोध्या में दीपोत्सव का खर्च पर्यटन विभाग अपने बजट से उठाता था। पर अब राज्य सरकार जिला प्रशासन के जरिए इसके लिए पैसे देगी। वैसे तो आम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है और सरकारी पैसा उसका या टैक्स का ही है। पर पर्यटन विभाग का खर्च और जिला प्रशासन का खर्च अलग होता है। दोनों की प्राथमिकताएं अलग होंनी चाहिए। अगर जिला प्रशासन की प्राथमिकता दीये जलाने की होगी तो जान बचाने की प्राथमिकता किसकी होगी? यही नहीं, पर्यटन विभाग यह खर्चा देता तो इसका एक आधार होता पर जिला प्रशासन देगा तो यह दूसरे जिलों के लिए मिसाल होगा और जिला प्रशासन को अपने मुख्य काम में लापरवाही बचने का बहाना मिलेगा। इसमें भी राजनीति 

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