धर्मपरिवर्तन और भारत में ईसाई-विरोधी हिंसा

Written by Ram Puniyani | Published on: October 2, 2020
एफसीआरए में प्रस्तावित संशोधनों पर लोकसभा में बोलते हुए भाजपा सांसद सत्यपाल सिंह ने विदेशों से आने वाली सहायता पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन किया। इस सिलसिले में उन्होंने पास्टर ग्राहम स्टेन्स का उल्लेख करते हुए उनके खिलाफ विषवमन किया। उन्होंने दावा किया कि पास्टर ने 30 आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किया था और वे विदेशों से आने वाले धन से आदिवासियों का धर्मपरिवर्तन करवाते थे।



इस सफेद झूठ का संसद में विरोध होना लाजिमी था। पास्टर स्टेन्स की जघन्य हत्या का उल्लेख करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ आरके नारायणन ने कहा था कि “वह घटना विश्व की सर्वाधिक भर्त्सना-योग्य घटनाओं में से एक थी”। वर्षों पूर्व पास्टर आस्ट्रेलिया से भारत आए थे। भारत में वे ओडिशा के कुष्ठ रोगियों की सेवा करते थे। उनका कार्यक्षेत्र क्योंनझार और मनोहरपुर था। सन 1999 में 22-23 जनवरी की दरम्यानी रात वे एक गांव में अपनी खुली जीप में सो रहे थे। उस काली रात उन्हें और उनके दो अवयस्क पुत्रों, टिमोथी और फिलिप, को जिंदा जला दिया गया था। इस जघन्य अपराध से सारे देश में शोक की लहर दौड़ गई थी। इस घृणित घटना को बजरंग दल के स्वयंसेवक राजेन्द्र सिंह पाल उर्फ दारा सिंह ने अंजाम दिया था। लालकृष्ण आडवाणी उस समय केन्द्रीय गृहमंत्री थे। 

उन्होंने कहा था, “मैं बजरंग दल को बहुत गहराई से जानता हूं और दावे के साथ कह सकता हूं कि इस घटना से उसका दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है”। घटना की वास्तविकता का पता लगाने के लिए आडवाणी ने तीन केन्द्रीय मंत्रियों का दल भेजा। इस दल में मुरली मनोहर जोशी, जार्ज फर्नाडीस और नवीन पटनायक शामिल थे। एक दिन में की गई अपनी जांच के आधार पर यह दल इस नतीजे पर पहुंचा कि यह घटना एनडीए सरकार को कमजोर करने के अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का हिस्सा थी। बाद में इस घटना की जांच के लिए वाधवा आयोग का गठन किया गया। आयोग ने जांच के बाद बताया कि दारा सिंह, जो वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद आदि संगठनों के सहयोग से काम करता था, ने यह प्रचार किया था कि पास्टर धर्मपरिवर्तन का काम करते हैं और हिन्दू धर्म के लिए खतरा हैं। दारा सिंह ने लोगों के बीच यह प्रचार लगातार किया। उस रात उसने कुछ लोगों को इकठ्ठा कर उस वाहन पर केरोसीन डालकर आग लगा दी जिसमें पास्टर और उनके पुत्र सो रहे थे।

आयोग ने अपनी रपट में बताया कि पास्टर धर्मपरिवर्तन का काम नहीं कर रहे थे बल्कि कुष्ठ रोगियों की सेवा करते थे। बाद में दारा सिंह को मृत्युदंड दिया गया जो अंततः आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया गया। दारा सिंह इस समय जेल में है। रपट में एक चौंकाने वाला यह तथ्य सामने आया कि इस दरम्यान वहां ईसाईयों की जनसंख्या में कोई ख़ास इजाफा नहीं हुआ था। रिपोर्ट के अनुसार “क्योंनझार जिले की आबादी 15.3 लाख थी। इनमें से 14.93 लाख हिन्दू और 4,707 ईसाई (मुख्यतः आदिवासी) थे। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार, इस जिले में ईसाईयों की संख्या 4,112 थी। इस तरह जिले में ईसाईयों की संख्या में केवल 595 की बढ़ोत्तरी हुई थी”। 

अतः यह कहा जा सकता है कि यह बढ़ोत्तरी धर्मपरिवर्तन के कारण नहीं बल्कि सामान्य रूप से हुई थी। इसलिए यह माना जा सकता है कि दारा सिंह द्वारा किया गया दुष्प्रचार पूरी तरह से आधारहीन था और राजनैतिक इरादों से किया गया था। यह साफ है कि यह प्रचार कि ईसाई मिशनरी धर्मपरिवर्तन कराते हैं, ईसाईयों के विरूद्ध घृणा फैलाने के लिए किया जाता है। इस दूषित प्रचार के कारण ही पिछले अनेक वर्षों से ईसाईयों को हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। इसी के कारण पिछले वर्षों में आदिवासी-बहुल डांग (गुजरात), झाबुआ (मध्यप्रदेश) और ओडिशा के एक बड़े क्षेत्र में रहने वाले ईसाईयों पर बार-बार कातिलाना हमले हुए हैं। पास्टर और उनके बच्चों की जघन्य हत्या के बाद ओडिशा के कंधमाल में इस तरह के हमले (अगस्त 2008) पराकाष्ठा पर पहुंच गए। इन हमलों में सैकड़ों ईसाईयों की जघन्य हत्या हुई, चार सौ ईसाई महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और अनेक गिरजाघरों को ध्वस्त कर दिया गया।

इस घटनाक्रम का अंत यहीं नहीं हुआ। आज भी ईसाईयों पर हमले हो रहे हैं। इस तरह के हमले दूरदराज के क्षेत्रों में होते हैं और इस कारण उनकी ओर लोगों ध्यान कम जाता है। ईसाईयों की प्रार्थना सभाओं पर हमले होते हैं और जो मिशनरी धार्मिक साहित्य का वितरण करते हैं उन्हें भी नहीं बख्शा जाता है। “प्रॉसिक्यूशन रिलीफ” नामक संस्था ने अभी हाल में जारी अपनी रपट में बताया है कि ईसाईयों के विरूद्ध घृणा फैलाकर भड़ाकाई जाने वाली हिंसक घटनाओं में 40।87 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह राष्ट्रव्यापी बढ़ोत्तरी, कोविड-19 के कारण लगाए गए राष्ट्रव्यापी लाकडाउन के बावजूद हुई। 

जहां मुसलमानों पर हुए इस तरह के हमलों का प्रचार बड़े पैमाने पर होता है वहीं ईसाईयों पर ऐसे हमले छुटपुट होते हैं और चर्चा का विषय नहीं बनते। इसके बावजूद पास्टर स्टेन्स और कंधमाल की घटनाओं ने सबका ध्यान आकर्षित किया। इस तरह की हिंसक घटनाओं के पीछे प्रमुख रूप से यह धारणा रहती है कि इस्लाम और ईसाई धर्म ‘विदेशी’ हैं और हिन्दू धर्म के लिए खतरा हैं। इसके ठीक विपरीत, नेहरू और गांधी जैसे भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं की मान्यता थी कि धर्म, राष्ट्रीयता का आधार नहीं हो सकताः ईसाई धर्म भी उतना ही भारतीय है जितने अन्य धर्म।

सच पूछा जाए तो ईसाई धर्म ने ईस्वी 52 में भारत में प्रवेश किया था और थामस नामक व्यक्ति ने मालाबार में चर्च की स्थापना की। पिछली 19 से ईसाई मिशनरी लगातार भारत आ रहे हैं और दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इसी तरह वे शहरी क्षेत्रों में स्कूलों, कालेजों और अस्पतालों की स्थापना कर रहे हैं। इन संस्थाओं द्वारा गुणवत्तापूर्ण सेवाएं प्रदान की जाती हैं और आम लोग इन सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं।

अंतिम जनगणना (2011) के अनुसार देश में ईसाईयों का प्रतिशत 2।30 है। यह प्रतिशत में पिछले साठ वर्षों से लगातार गिर रहा है। 1971 की जनगणना के अनुसार ईसाई देश की कुल आबादी का 2.60 प्रतिशत थे जो 1981 में 2.44 प्रतिशत 1991 में 2.34 प्रतिशत और 2001 में 2.30 और 2011 में भी 2।30 प्रतिशत थे। वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल दूरदराज के क्षेत्रों में धर्मपरिवर्तन को लेकर लगातार दुष्प्रचार करते रहते हैं। सच पूछा जाए तो यह धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला है और इसी कारण राज्यों में एक के बाद एक इस स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाले कानून बन रहे हैं। जहां एक ओर हमारा संविधान नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने और प्रचार करने का अधिकार देता है वहीं ईसाई-विरोधी हिंसा में लगातार जबरदस्त बढ़ोत्तरी हो रही है।

पिछले 25 अगस्त को कंधमाल हिंसा, जिसने पूरे देश को हिला दिया था, 12 वर्ष हो गए। आज ज़रुरत है शांति, समरसता और एकता की। आधारहीन आरोप लगाकर सत्यपाल सिंह ने ईसाई विरोधी प्रचार को हवा दी है और हमारे देश के भाईचारे के मूल्यों को चोट पहुंचाई है। 

(हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया) 

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