सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जेल सुधार समिति की रिपोर्ट से पता चलता है कि सिर्फ गोवा, दिल्ली और पुदुचेरी की जेलें ही महिला कैदियों को अपने बच्चों से सलाखों या कांच के दीवार के बिना मिलने की अनुमति देती हैं तो देश की 40 प्रतिशत से भी कम जेलें महिला कैदियों को सैनिटरी नैपकिन मुहैया कराती हैं। 60% महिला कैदियों को माहवारी में सैनिटरी पैड नहीं मिलते हैं। यही नहीं, उनके पास न सोने की जगह है, न ही नहाने के लिए पर्याप्त पानी। आलम यह है कि, जेलों में 75% महिला वार्डों को रसोई और सामान्य सुविधाएं पुरुष वार्डों के साथ साझा करनी पड़ती हैं।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जेल सुधार समिति की ओर से कहा गया है, ‘महिला कैदियों को विशेष रूप से चिकित्सा देखभाल, कानूनी सहायता और परामर्श से लेकर वेतनभोगी श्रम और मनोरंजन सुविधाओं जैसी बुनियादी जरूरतों तक पहुंच बनाने के लिए अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कहीं अधिक बदतर स्थितियों का सामना करना पड़ता है।’ इसके अनुसार, ‘विशेष महिला जेल में मिलने वाली सुविधाओं के विपरीत बड़ी जेलों में कैद महिलाओं को इन बुनियादी सुविधाओं को देने से अक्सर इनकार कर दिया जाता है।’
बीते 29 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने 27 दिसंबर, 2022 को दी गई जस्टिस अमिताव रॉय समिति की रिपोर्ट पर केंद्र और राज्यों के विचार मांगे थे, जिसमें रेखांकित किया गया है कि सुधारात्मक न्याय प्रणाली ‘स्पष्ट रूप से लिंग भेदभावकारी’ है। महिला कैदियों की हालत पुरुष कैदियों से कहीं ज्यादा ज़्यादा खराब है। 2014 से 2019 के बीच महिला कैदियों की संख्या 11.7 फीसदी बढ़ी है। लेकिन सिर्फ 18% को महिला जेल में जगह मिली है। 75% महिला कैदियों को रसोई और शौचालय पुरुषों के साथ साझा तौर पर इस्तेमाल करना पड़ता है।
2018 में जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की सुप्रीम कोर्ट बेंच ने चिंता जताते हुए कहा था कि कई राज्यों की जेलों में क्षमता से 150 प्रतिशत ज़्यादा कैदी हैं। और इसे मानवाधिकार हनन का गंभीर मामला बताते हुए ये कमेटी गठित की थी। तीन सदस्यों वाली इस कमेटी का मकसद यह जानना था कि भारतीय जेलों में क्या हालात हैं। करीब 4 साल बाद दिसंबर 2022 में कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने ये रिपोर्ट रखी है। इससे पहले 2018 में ही महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने जेल में महिलाओं के हाल पर एक रिपोर्ट बनाई थी जिसमें महिला कैदियों की खराब स्थिति का जिक्र था।
जेलों का बुरा हाल
जस्टिस अमिताव रॉय रिपोर्ट लगभग उस स्थिति की ओर इशारा करती है जो नेशनल क्राइम रजिस्ट्रेशन ब्यूरो (NCRB) की 2021 की रिपोर्ट में भी देखने को मिलती है। NCRB रिपोर्ट में यह सामने आया कि 21 राज्यों में महिलाओं के लिए अलग जेल भी नहीं है। महिला जेलों में 6,767 कैदियों की क्षमता है। लेकिन इससे कहीं ज्यादा, करीब 22,659 महिला कैदियों को राज्यों की अन्य जेलों में मर्दों के साथ रखा जाता है। जैसा कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की 2018 की रिपोर्ट जिक्र करती है, ऐसी जेलों में महिला कैदी सुरक्षित नहीं हैं। मर्दों के साथ शौचालय इस्तेमाल करने से महिलाओं के यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार का खतरा बढ़ जाता है। अगर महिलाओं के खिलाफ जेल में कोई अपराध होता भी है तो केवल 11 राज्यों के पास ऐसी कोई व्यवस्था है कि कैदियों की शिकायतें दर्ज की जा सकें। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार हद की बात यह है कि महिलाओं के खिलाफ़ जेल में हुए अपराधों का NCRB के पास कोई आंकड़ा तक नहीं है।
भारत में 75% महिला कैदियों को रसोई और शौचालय पुरुषों के साथ साझा करना पड़ता है। नेशनल प्रिजन मैन्युअल के मुताबिक हर जेल में एक महिला डीआईजी का होना जरूरी है लेकिन किन जेलों में महिला डीआईजी हैं इस पर भी सरकार के पास कोई डाटा नहीं है। यहां तक कि दिल्ली की मशहूर तिहाड़ जेल की वेबसाइट से पता चलता है कि वहाँ कोई भी महिला डीआईजी नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में केवल 4,391 महिला जेल अधिकारी हैं जो कुल क्षमता से काफी कम हैं। 2022 की रिपोर्ट में अधिकारी न होने की वजह से कहा गया है कि महिलाओं की तलाशी लेने की ट्रैनिंग भी नहीं हो रही है।
जेल में औरतों के पास यह अधिकार है कि वह अपने बच्चों से एक अलग आवास में मिल सकती हैं। मगर जस्टिस अमिताव रॉय की रिपोर्ट कहती है कि सिर्फ तीन राज्य यानि गोवा, दिल्ली, और पुडुचेरी में महिलाओं को बिना बार या कांच की दीवार के मिलने की इजाजत है। स्वास्थ्य और महिलाओं का हक
राष्ट्रीय जेल मैनुअल के मुताबिक जेल में हर कैदी के पास 135 लीटर पानी होना चाहिए। जबकि 2018 की रिपोर्ट में पहले ही यह सामने आ चुका था कि किसी भी जेल में ऐसा नहीं हो रहा है। इससे महिला कैदी सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
जस्टिस रॉय की रिपोर्ट ने कहा है कि महिलाओं को सैनिटरी पैड भी नहीं मिलते हैं। महिलाओं की बीमारियों और स्वास्थ्य की देख-रेख के लिए डॉक्टर की सुविधा मौजूद नहीं हैं। "बुनियादी न्यूनतम सुविधाएं” जैसे गर्भवती होने पर जेल में डॉक्टर को दिखाने की सुविधा भी औरतों को आसानी से नहीं मिल पाती हैं। जेल में हर साल बच्चे पैदा होते हैं, लेकिन इसके बारे में कोई ठोस डाटा NCRB के पास नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार, महिला कैदियों के लिए अलग चिकित्सा और मनोरोग वार्डों की कमी, बच्चे की डिलीवरी के लिए बुनियादी न्यूनतम सुविधाएं न होना, महिला कैदियों की स्वास्थ्य जरूरतों के लिए पेशेवरों की कमी आदि चिकित्सा मोर्चे पर प्रमुख चुनौतियां हैं। इसके अलावा 19 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों की जेलों में महिला कैदियों के लिए मनोरोग वार्डों की कमी है।
इन मुद्दों को हल करने के लिए रिपोर्ट में कैदियों के इलाज के लिए रिमोट डिग्नॉसिस और वर्चुअल परामर्श जैसी टेली-मेडिसिन सुविधाएं शुरू करने, व्यावसायिक प्रशिक्षण और शिक्षा कार्यक्रमों को मजबूत करने, छोटे अपराधों के लिए कारावास की जगह सामुदायिक सेवा और मनोवैज्ञानिक विकारों वाले कैदियों के लिए उचित परामर्श देने की सिफारिश की गई है। इन आंकड़ों के बावजूद रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ 18 प्रतिशत महिला कैदियों को विशेष महिला जेलों में रखा जाता है, क्योंकि केवल 15 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में महिला जेलें संचालित हो रही हैं। दूसरा, इसमें कहा गया है कि सभी श्रेणियों की महिला कैदियों को एक ही वार्ड और बैरक में रखा जाता है, चाहे वे विचाराधीन कैदी हों या दोषी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि लिंग-विशिष्ट प्रशिक्षण की भी कमी है और मैट्रन (महिला कैदियों की इंजार्च) को यह नहीं बताया जाता है कि महिलाओं की तलाशी कैसे ली जाए। इसमें यह भी कहा गया है कि महिला कैदियों को केवल 10 राज्यों और 1 केंद्र शासित प्रदेश में किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार या उत्पीड़न के लिए जेल कर्मचारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की अनुमति है।
महिला कैदियों को अपराधों से इतर, एक विशेष श्रेणी में रखने की जरूरत
रानी धवन, जेल सुधार मामलों की विशेषज्ञ हैं और पीनल रिफॉर्म इंटरनेशनल की अध्यक्ष रह चुकी हैं। महिला कैदियों की ज़िंदगी पर लिखी अपनी किताब ऑफ विमेन इनसाइडः प्रिजन वॉइसेज फ्रॉम इंडिया में रानी कहती हैं कि जेल प्रशासन भले ही कैदियों को उनके अपराधों के हिसाब से वर्गीकृत करते हैं, मगर महिला कैदियों को एक अलग श्रेणी की जरूरत है। महिला अपराधियों के साथ सिर्फ उनका अपराध ही नहीं जुड़ा होता बल्कि समाज और सामाजिक रीतियां भी जुड़ी होती हैं क्योंकि अपराधी महिलाओं ने सालों से चल रही सामाजिक, धार्मिक प्रथाओं और नैतिक नियमों की सीमा को पार किया है। कानून से पहले समाज उनके अपराधी होने पर कठोर सजा तय कर चुका होता है।
कानूनी मोर्चे पर सुनवाई से लेकर फैसले की प्रतीक्षा तक में भी स्त्रियों के हिस्से आने वाली पीड़ा बढ़ी
महिलाओं के जीवन से जुड़े अति संवेदनशील मुद्दों को लेकर कई मोर्चों पर अक्सर गंभीरता नहीं दिखती हैं।
एक ओर महिलाओं से जुड़ी आपराधिक घटनाओं के आंकड़े बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर कानूनी मोर्चे पर सुनवाई से लेकर फैसले की प्रतीक्षा तक में भी स्त्रियों के हिस्से आने वाली पीड़ा बढ़ी ही है। यौन हिंसा से जुड़े अनेक मामलों में जटिल न्यायिक प्रक्रिया के चलते सुनवाई के की खिंचते जाने के बीच ही महिला और उसके परिजन हताश हो जाते हैं। विडंबना यह भी है कि देश में हर चार में से एक मामले में ही अपराध सिद्ध हो पाता है। समझना कठिन नहीं कि न्याय पाने के मोर्चे पर यह एक निराशाजनक तस्वीर क्यों है?। इस पीड़ादायी समय में त्वरित कार्रवाई, न्यायिक निर्णय या सामाजिक सहयोग मिलने के पक्ष पर सरोकारी सोच का नदारद होना बहुत कुछ बदलकर भी कुछ न बदलने जैसे हालात को सामने रखता है।
देंखे तो बीते दिनों उच्चतम न्यायालय की एक टिप्पणी के बाद कानूनी प्रक्रिया से जुड़ा एक विचित्र रवैया चर्चा का विषय बना। दरअसल, शीर्ष अदालत ने गर्भावस्था खत्म करने की मांग को लेकर एक बलात्कार पीड़िता की याचिका पर गुजरात उच्च न्यायालय के रवैये पर नाराजगी जताई। जनसत्ता की एक रिपोर्ट के अनुसार, शीर्ष अदालत के आदेश में कहा गया कि अजीब बात यह है कि हाई कोर्ट ने इस मामले में समय की महत्ता के तथ्य को नजरअंदाज करते हुए मामले को बारह दिन बाद सूचीबद्ध किया, जबकि हर दिन की देरी बेहद अहम थी।
गौरतलब है कि बलात्कार का दंश झेल रही याचिकाकर्ता ने गर्भावस्था को समाप्त करने की मांग करते हुए उस समय अदालत का दरवाजा खटखटाया, जब वह छब्बीस सप्ताह की गर्भवती थी। ऐसे में सुरक्षित गर्भपात के लिए एक दिन की देरी भी घातक होती। बावजूद इसके उच्च न्यायालय ने कारण बताए बिना या अपना आदेश जारी किए बिना ही उसकी याचिका खारिज कर दी थी। जबकि शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, मानसिक रूप से भी यह स्थिति पीड़ा देने वाली है। अब आपराधिक मामले हों या बलात्कार की घटनाओं से जुड़े वाकयों की सुनवाई, विलंब की स्थितियां महिलाओं के लिए कई और समस्याएं खड़ी करने वाली होती हैं। शारीरिक दुर्व्यवहार का शिकार होने के बाद गर्भपात करवाने की इजाजत मांगने के ऐसे मामलों में देरी के बहुत ही घातक परिणाम हो सकते हैं। इन परिस्थितियों में कई बार परिजन और पीड़िता असुरक्षित गर्भपात का रास्ता भी चुन लेते हैं।
चिंतनीय है कि हमारे यहां असुरक्षित गर्भपात के आंकड़े पहले ही तकलीफदेह बने हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र की विश्व जनसंख्या रपट, 2022 के अनुसार भारत में हर दिन असुरक्षित गर्भपात की वजह से लगभग आठ महिलाएं मौत के मुंह में समा जाती हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़े भी बताते हैं कि देश में होने वाले कुल गर्भपात में एक-चौथाई से ज्यादा घरों में ही होते हैं। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं कि यौन हिंसा का शिकार हुई महिला के मामले में असुरक्षित गर्भपात का रास्ता चुनने की ही आशंका ज्यादा होती है। खास है कि 2021 में संशोधन के बाद गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम बलात्कार पीड़िता के लिए चौबीस सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति देता है। लेकिन उचित मामलों में संवैधानिक न्यायालय द्वारा चौबीस सप्ताह से अधिक की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देने के लिए अपनी असाधारण शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है।
ज्ञात हो कि वर्ष 2022 में केरल उच्च न्यायालय ने भी चिकित्सा बोर्ड की अनुशंसा के बाद एक नाबालिग बलात्कार पीड़िता की अट्ठाईस सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की भी अनुमति दी थी। जनसत्ता के अनुसार, बीते साल ऐसे एक मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी तेरह वर्षीया बलात्कार पीड़िता को छब्बीस सप्ताह के बाद गर्भावस्था को चिकित्सीय रूप से समाप्त करने की अनुमति देते हुए कहा था कि अगर उसे कम उम्र में मातृत्व का बोझ उठाने के लिए मजबूर किया गया तो यह उसके दुख और पीड़ा को और बढ़ाने वाली स्थिति होगी।
विडंबना है कि घर हो या बाहर, एक ओर महिलाओं से जुड़ी आपराधिक घटनाओं के आंकड़े बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर कानूनी मोर्चे पर सुनवाई से लेकर फैसले की प्रतीक्षा तक में भी स्त्रियों के हिस्से आने वाली पीड़ा बढ़ी ही है। सामूहिक बलात्कार से जघन्य मामलों की सुनवाई के लिए भी न केवल तारीख मिलना मुश्किल हो जाता है, बल्कि फैसला आने में बरसों लग जाते हैं। व्यवस्था से मिली यह अंतहीन प्रतीक्षा बहुत सारी स्त्रियों का मनोबल तोड़ती है। इन उलझाऊ हालात को देखकर कई महिलाएं अपने प्रति हो रहे अत्याचार का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। दुखद यह भी है कि नाबालिग बच्चियों के खिलाफ हुई बर्बरता के मामले में भी यही ढुलमुल रवैया देखने को मिलता है।
कम उम्र की बच्चियों के विरुद्ध आपराधिक घटनाओं की गंभीरता को समझते हुए कुछ समय पहले उच्चतम न्यायालय ने भी विकृत मानसिकता वाले लोगों को लेकर सख्त टिप्पणी की थी। अदालत कहा था कि यौन शोषण या बलात्कार के अपराधियों को लेकर कड़े कानून बनाने पर संसद को विचार करना चाहिए। बच्चों से बलात्कार के मामलों पर अलग से प्रावधान बनाने पर विचार किया जाना चाहिए। गर्भावस्था समाप्त करने की अनुमति चाहने के मामले में उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी रेखांकित करने योग्य है कि जघन्य अपराध की पीड़ित महिला की स्थिति न्याय के संदर्भ में प्राथमिक कसौटी होनी चाहिए।
दरअसल, गर्भपात जैसे संवेदनशील मामले के अलावा भी महिलाओं के हिस्से आने वाली यह देरी हर पहलू पर चिंतनीय है। यही नहीं, अब परिजनों की ज्यादती हो या अपरिचितों का दुर्व्यवहार, शिकायत करने और कानूनी कार्रवाई शुरू होने बाद महिलाओं का जीवन दुश्वार कर दिया जाता है। फैसले के इंतजार में बेहद पीड़ादायी स्थितियां उनके हिस्से आती हैं। जबकि महिलाओं के मन-जीवन से जुड़े हालात को सुधारने के लिए चलाए जाने वाले जन-जागरूकता अभियानों में उनकी मुखरता की पैरवी की जाती है।
बुरे बर्ताव को सहने के बजाय आगे बढ़कर आवाज उठाने की सीख शामिल होती है। बर्बरता का शिकार बनने के बाद मन से टूटने के बजाय अपना जीवन पूरे हौसले के साथ आगे बढ़ाने का संदेश दिया जाता है। ऐसी वैचारिक बातें कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं के समक्ष बेमानी लगती हैं। व्यावहारिक धरातल पर बदलाव लाने के लिए कानूनी प्रक्रिया में भी सहजता और तत्परता जरूरी है। दुखद है कि बलात्कार जैसे जघन्य और बर्बर अपराध के मामलों के साबित होने पर भी जटिलता, विलंब और उलझन ही देखने को मिलती है। इन स्थितियों का ही नतीजा है कि कई घटनाओं की रपट तक नहीं दर्ज कराई जाती।
विडंबना यह भी है कि देश में हर चार में से एक मामले में ही अपराध सिद्ध हो पाता है। समझना कठिन नहीं कि न्याय पाने के मोर्चे पर यह एक निराशाजनक तस्वीर है। संकीर्ण सामाजिक सोच के चलते अलग-थलग पड़ जाने की ऐसी परिस्थितियां भी किसी सामूहिक क्रूरता को झेलने से कम नहीं होतीं। अधिकतर मामलों में परिजन भी उनकी मनोस्थिति नहीं समझ पाते। दोषारोपण का खेल हर ओर से शुरू हो जाता है। ऐसे में यौन हिंसा के दंश के बाद गर्भपात की अनुमति के लिए भी अगर इंतजार करने की स्थितियां बन जाएं तो कानूनी जटिलता और ढिलाई का रुख स्पष्ट समझ में आता है।
भारत में महिलाओं के पास क्या-क्या अधिकार है?
भारत का संविधान हर व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष एक ही नज़र से देखता है। भारत के संविधान में सभी एक बराबर हैं। मगर समाज ने जिस तरह से महिलाओं के प्रति हीन भावना रखी है उस ने एक लंबे वक्त तक महिलाओ को असहज रखा हुआ है। इसी असहजता से उबारने के लिए कानून ने महिलाओ को अधिकार प्रदान किये हैं ताकि वे भी बराबरी से जी सकें। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इन अधिकारों में गरिमा से जीना यानी Rights of Dignity जैसे अधिकार शामिल हैं। आइये जानते हैं महिलाओं को प्राप्त अधिकार?
बराबर मेहनताना
पुरुषों को उन के किये गए काम के लिए ज़्यादा पैसे दिए जाते थे वहीं औरतों को अपेक्षाकृत कम। यदि बात सैलरी की हो तो लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। समान मेहनताने के लिए महिलाओं के पास समान मेहनताने का अधिकार है और यह अधिकार उन्हें इक्वल रेमुनेरशन अधिनियम के तहत प्राप्त होता है।
गरिमा और शालीनता का अधिकार:
rights of dignity गरिमा और शालीनता का अधिकार हर किसी महिला के पास है। किसी भी महिला को किसी भी मामले में परीक्षण की आवश्यकता हो तो यह दूसरी महिला द्वारा या उसकी निगरानी में हो यह अधिकार भी महिलाओं को प्राप्त है। अपनी गरिमा और शालीनता का अधिकार (Rights of dignity) हर महिला के पास संविधान द्वारा प्रदत्त है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51क(ङ) में उल्लेखित मौलिक कर्तव्य में महिलाओं की गरिमा हेतु अपमान जनक प्रथाओं को त्यागने की बात कही गयी है।
कार्यस्थल पर उत्पीड़न से सुरक्षा का अधिकार
यदि किसी महिला के साथ उस के कार्यस्थल पर शारिरिक या मानसिक किसी भी प्रकार का उत्पीड़न होता हो तो महिला के पास यह अधिकार है कि वो कानून की सहायता ले कर उन पर शिकायत दर्ज करा सकती हैं। उत्पीड़न के ख़िलाफ़ अधिकार हर महिला के पास है।
घरेलू हिंसा के विरुद्ध अधिकार
किसी भी महिला के पास यह अधिकार है कि वह घर में अपने प्रति हो रही किसी भी हिंसा के विरुद्ध अपनी शिकायत दर्ज करा सकती है। भारतीय दंड संहिता की धारा 498 (IPC 498) के तहत पत्नी, या महिला लिव इन पार्टनर अपने विरुद्ध हो रही हिंसा के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करा सकती है। धारा 498 के तहत (IPC 498) किसी भी महिला के साथ मौखिक, आर्थिक, शारीरिकी और मानसिक हिंसा अपराध है। धारा 498 के तहत (IPC 498) इस अपराध के लिए तीन साल तक की ग़ैर जमानती सजा का प्रावधान है।
ज़ीरो एफ़आईआर का अधिकार
कानून द्वारा महिलाओं को ज़ीरो एफ़ आई आर की भी सुविधा प्रदान की गई। ज़ीरोएफ़आई आर का अर्थ होता है यदि महिला के साथ कुछ अपराध घटित होता है तो वह उस वक़्त अपनी शिकायत किसी किसी भी पुलिस थाने में कहीं से भी दर्ज कर सकती है। इस ज़ीरो एफ़आईआर को बाद में उस थाने तक पहुंचा दिया जाएगा जहाँ घटना या अपराध घटित हुआ होगा।
भरण-पोषण अधिकार
भरण पोषण के अधिकार का मतलब मेंटेनेंस से है। डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट की धारा 18 महिलाओं को यह अधिकार प्रदान करती है कि महिला अपने पति द्वारा जीवन भर भरण-पोषण का अधिकार रखेगी। तलाक हो जाने के पश्चात भी महिला के पास यह अधिकार धारा 25 के अंतर्गत रहता है।
विवाहित बेटी का अनुकम्पा नियुक्ति का अधिकार
माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कर्नाटक सरकार बनाम अपूर्वा श्री के मामले में बेटी को शादी के बाद दूसरे घर का होने जाने की बात को दकियानूसी करार देते हुए यह निर्णय दिया गया था कि विवाहित बेटी अनुकम्पा नियुक्ति के आधार पर सरकारी नौकरी का अधिकार रखती है।
मैटरनिटी लीव या मातृत्व अवकाश का अधिकार
संविधान द्वारा अनुच्छेद 42 के अंतर्गत महिलाओं को जो किसी सरकारी संस्थान या निजी संस्थान में कार्यरत हैं मैटरनिटी लीव या मातृत्व अवकाश लेने का अधिकार है यह मैटरनिटी लीव 12 हफ्तों की होती है जिसे महिलाएं अपने हिसाब से ले सकती हैं।
स्त्री धन पर अधिकार
विवाह के वक़्त वधु को मिले हुए उपहार को स्त्री धन कहा जाता है जिस पर महिला का पूर्ण अधिकार होता है। यदि ससुराल पक्ष की ओर से स्त्री धन पर कब्ज़ा कर लिया जाए तो महिला आई पी सी की धारा 406 के तहत शिकायत दर्ज करा सकती है।
मुफ़्त विधिक सहायता
महिला की आर्थिक स्थिति कैसी भी हो मगर उन के पास यह अधिकार है कि वह न्यायालय में अपने किसी मामले के लिए सरकारी ख़र्चे पर अधिवक्ता की मांग कर सकती है।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जेल सुधार समिति की ओर से कहा गया है, ‘महिला कैदियों को विशेष रूप से चिकित्सा देखभाल, कानूनी सहायता और परामर्श से लेकर वेतनभोगी श्रम और मनोरंजन सुविधाओं जैसी बुनियादी जरूरतों तक पहुंच बनाने के लिए अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कहीं अधिक बदतर स्थितियों का सामना करना पड़ता है।’ इसके अनुसार, ‘विशेष महिला जेल में मिलने वाली सुविधाओं के विपरीत बड़ी जेलों में कैद महिलाओं को इन बुनियादी सुविधाओं को देने से अक्सर इनकार कर दिया जाता है।’
बीते 29 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने 27 दिसंबर, 2022 को दी गई जस्टिस अमिताव रॉय समिति की रिपोर्ट पर केंद्र और राज्यों के विचार मांगे थे, जिसमें रेखांकित किया गया है कि सुधारात्मक न्याय प्रणाली ‘स्पष्ट रूप से लिंग भेदभावकारी’ है। महिला कैदियों की हालत पुरुष कैदियों से कहीं ज्यादा ज़्यादा खराब है। 2014 से 2019 के बीच महिला कैदियों की संख्या 11.7 फीसदी बढ़ी है। लेकिन सिर्फ 18% को महिला जेल में जगह मिली है। 75% महिला कैदियों को रसोई और शौचालय पुरुषों के साथ साझा तौर पर इस्तेमाल करना पड़ता है।
2018 में जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की सुप्रीम कोर्ट बेंच ने चिंता जताते हुए कहा था कि कई राज्यों की जेलों में क्षमता से 150 प्रतिशत ज़्यादा कैदी हैं। और इसे मानवाधिकार हनन का गंभीर मामला बताते हुए ये कमेटी गठित की थी। तीन सदस्यों वाली इस कमेटी का मकसद यह जानना था कि भारतीय जेलों में क्या हालात हैं। करीब 4 साल बाद दिसंबर 2022 में कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने ये रिपोर्ट रखी है। इससे पहले 2018 में ही महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने जेल में महिलाओं के हाल पर एक रिपोर्ट बनाई थी जिसमें महिला कैदियों की खराब स्थिति का जिक्र था।
जेलों का बुरा हाल
जस्टिस अमिताव रॉय रिपोर्ट लगभग उस स्थिति की ओर इशारा करती है जो नेशनल क्राइम रजिस्ट्रेशन ब्यूरो (NCRB) की 2021 की रिपोर्ट में भी देखने को मिलती है। NCRB रिपोर्ट में यह सामने आया कि 21 राज्यों में महिलाओं के लिए अलग जेल भी नहीं है। महिला जेलों में 6,767 कैदियों की क्षमता है। लेकिन इससे कहीं ज्यादा, करीब 22,659 महिला कैदियों को राज्यों की अन्य जेलों में मर्दों के साथ रखा जाता है। जैसा कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की 2018 की रिपोर्ट जिक्र करती है, ऐसी जेलों में महिला कैदी सुरक्षित नहीं हैं। मर्दों के साथ शौचालय इस्तेमाल करने से महिलाओं के यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार का खतरा बढ़ जाता है। अगर महिलाओं के खिलाफ जेल में कोई अपराध होता भी है तो केवल 11 राज्यों के पास ऐसी कोई व्यवस्था है कि कैदियों की शिकायतें दर्ज की जा सकें। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार हद की बात यह है कि महिलाओं के खिलाफ़ जेल में हुए अपराधों का NCRB के पास कोई आंकड़ा तक नहीं है।
भारत में 75% महिला कैदियों को रसोई और शौचालय पुरुषों के साथ साझा करना पड़ता है। नेशनल प्रिजन मैन्युअल के मुताबिक हर जेल में एक महिला डीआईजी का होना जरूरी है लेकिन किन जेलों में महिला डीआईजी हैं इस पर भी सरकार के पास कोई डाटा नहीं है। यहां तक कि दिल्ली की मशहूर तिहाड़ जेल की वेबसाइट से पता चलता है कि वहाँ कोई भी महिला डीआईजी नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में केवल 4,391 महिला जेल अधिकारी हैं जो कुल क्षमता से काफी कम हैं। 2022 की रिपोर्ट में अधिकारी न होने की वजह से कहा गया है कि महिलाओं की तलाशी लेने की ट्रैनिंग भी नहीं हो रही है।
जेल में औरतों के पास यह अधिकार है कि वह अपने बच्चों से एक अलग आवास में मिल सकती हैं। मगर जस्टिस अमिताव रॉय की रिपोर्ट कहती है कि सिर्फ तीन राज्य यानि गोवा, दिल्ली, और पुडुचेरी में महिलाओं को बिना बार या कांच की दीवार के मिलने की इजाजत है। स्वास्थ्य और महिलाओं का हक
राष्ट्रीय जेल मैनुअल के मुताबिक जेल में हर कैदी के पास 135 लीटर पानी होना चाहिए। जबकि 2018 की रिपोर्ट में पहले ही यह सामने आ चुका था कि किसी भी जेल में ऐसा नहीं हो रहा है। इससे महिला कैदी सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
जस्टिस रॉय की रिपोर्ट ने कहा है कि महिलाओं को सैनिटरी पैड भी नहीं मिलते हैं। महिलाओं की बीमारियों और स्वास्थ्य की देख-रेख के लिए डॉक्टर की सुविधा मौजूद नहीं हैं। "बुनियादी न्यूनतम सुविधाएं” जैसे गर्भवती होने पर जेल में डॉक्टर को दिखाने की सुविधा भी औरतों को आसानी से नहीं मिल पाती हैं। जेल में हर साल बच्चे पैदा होते हैं, लेकिन इसके बारे में कोई ठोस डाटा NCRB के पास नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार, महिला कैदियों के लिए अलग चिकित्सा और मनोरोग वार्डों की कमी, बच्चे की डिलीवरी के लिए बुनियादी न्यूनतम सुविधाएं न होना, महिला कैदियों की स्वास्थ्य जरूरतों के लिए पेशेवरों की कमी आदि चिकित्सा मोर्चे पर प्रमुख चुनौतियां हैं। इसके अलावा 19 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों की जेलों में महिला कैदियों के लिए मनोरोग वार्डों की कमी है।
इन मुद्दों को हल करने के लिए रिपोर्ट में कैदियों के इलाज के लिए रिमोट डिग्नॉसिस और वर्चुअल परामर्श जैसी टेली-मेडिसिन सुविधाएं शुरू करने, व्यावसायिक प्रशिक्षण और शिक्षा कार्यक्रमों को मजबूत करने, छोटे अपराधों के लिए कारावास की जगह सामुदायिक सेवा और मनोवैज्ञानिक विकारों वाले कैदियों के लिए उचित परामर्श देने की सिफारिश की गई है। इन आंकड़ों के बावजूद रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ 18 प्रतिशत महिला कैदियों को विशेष महिला जेलों में रखा जाता है, क्योंकि केवल 15 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में महिला जेलें संचालित हो रही हैं। दूसरा, इसमें कहा गया है कि सभी श्रेणियों की महिला कैदियों को एक ही वार्ड और बैरक में रखा जाता है, चाहे वे विचाराधीन कैदी हों या दोषी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि लिंग-विशिष्ट प्रशिक्षण की भी कमी है और मैट्रन (महिला कैदियों की इंजार्च) को यह नहीं बताया जाता है कि महिलाओं की तलाशी कैसे ली जाए। इसमें यह भी कहा गया है कि महिला कैदियों को केवल 10 राज्यों और 1 केंद्र शासित प्रदेश में किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार या उत्पीड़न के लिए जेल कर्मचारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की अनुमति है।
महिला कैदियों को अपराधों से इतर, एक विशेष श्रेणी में रखने की जरूरत
रानी धवन, जेल सुधार मामलों की विशेषज्ञ हैं और पीनल रिफॉर्म इंटरनेशनल की अध्यक्ष रह चुकी हैं। महिला कैदियों की ज़िंदगी पर लिखी अपनी किताब ऑफ विमेन इनसाइडः प्रिजन वॉइसेज फ्रॉम इंडिया में रानी कहती हैं कि जेल प्रशासन भले ही कैदियों को उनके अपराधों के हिसाब से वर्गीकृत करते हैं, मगर महिला कैदियों को एक अलग श्रेणी की जरूरत है। महिला अपराधियों के साथ सिर्फ उनका अपराध ही नहीं जुड़ा होता बल्कि समाज और सामाजिक रीतियां भी जुड़ी होती हैं क्योंकि अपराधी महिलाओं ने सालों से चल रही सामाजिक, धार्मिक प्रथाओं और नैतिक नियमों की सीमा को पार किया है। कानून से पहले समाज उनके अपराधी होने पर कठोर सजा तय कर चुका होता है।
कानूनी मोर्चे पर सुनवाई से लेकर फैसले की प्रतीक्षा तक में भी स्त्रियों के हिस्से आने वाली पीड़ा बढ़ी
महिलाओं के जीवन से जुड़े अति संवेदनशील मुद्दों को लेकर कई मोर्चों पर अक्सर गंभीरता नहीं दिखती हैं।
एक ओर महिलाओं से जुड़ी आपराधिक घटनाओं के आंकड़े बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर कानूनी मोर्चे पर सुनवाई से लेकर फैसले की प्रतीक्षा तक में भी स्त्रियों के हिस्से आने वाली पीड़ा बढ़ी ही है। यौन हिंसा से जुड़े अनेक मामलों में जटिल न्यायिक प्रक्रिया के चलते सुनवाई के की खिंचते जाने के बीच ही महिला और उसके परिजन हताश हो जाते हैं। विडंबना यह भी है कि देश में हर चार में से एक मामले में ही अपराध सिद्ध हो पाता है। समझना कठिन नहीं कि न्याय पाने के मोर्चे पर यह एक निराशाजनक तस्वीर क्यों है?। इस पीड़ादायी समय में त्वरित कार्रवाई, न्यायिक निर्णय या सामाजिक सहयोग मिलने के पक्ष पर सरोकारी सोच का नदारद होना बहुत कुछ बदलकर भी कुछ न बदलने जैसे हालात को सामने रखता है।
देंखे तो बीते दिनों उच्चतम न्यायालय की एक टिप्पणी के बाद कानूनी प्रक्रिया से जुड़ा एक विचित्र रवैया चर्चा का विषय बना। दरअसल, शीर्ष अदालत ने गर्भावस्था खत्म करने की मांग को लेकर एक बलात्कार पीड़िता की याचिका पर गुजरात उच्च न्यायालय के रवैये पर नाराजगी जताई। जनसत्ता की एक रिपोर्ट के अनुसार, शीर्ष अदालत के आदेश में कहा गया कि अजीब बात यह है कि हाई कोर्ट ने इस मामले में समय की महत्ता के तथ्य को नजरअंदाज करते हुए मामले को बारह दिन बाद सूचीबद्ध किया, जबकि हर दिन की देरी बेहद अहम थी।
गौरतलब है कि बलात्कार का दंश झेल रही याचिकाकर्ता ने गर्भावस्था को समाप्त करने की मांग करते हुए उस समय अदालत का दरवाजा खटखटाया, जब वह छब्बीस सप्ताह की गर्भवती थी। ऐसे में सुरक्षित गर्भपात के लिए एक दिन की देरी भी घातक होती। बावजूद इसके उच्च न्यायालय ने कारण बताए बिना या अपना आदेश जारी किए बिना ही उसकी याचिका खारिज कर दी थी। जबकि शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, मानसिक रूप से भी यह स्थिति पीड़ा देने वाली है। अब आपराधिक मामले हों या बलात्कार की घटनाओं से जुड़े वाकयों की सुनवाई, विलंब की स्थितियां महिलाओं के लिए कई और समस्याएं खड़ी करने वाली होती हैं। शारीरिक दुर्व्यवहार का शिकार होने के बाद गर्भपात करवाने की इजाजत मांगने के ऐसे मामलों में देरी के बहुत ही घातक परिणाम हो सकते हैं। इन परिस्थितियों में कई बार परिजन और पीड़िता असुरक्षित गर्भपात का रास्ता भी चुन लेते हैं।
चिंतनीय है कि हमारे यहां असुरक्षित गर्भपात के आंकड़े पहले ही तकलीफदेह बने हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र की विश्व जनसंख्या रपट, 2022 के अनुसार भारत में हर दिन असुरक्षित गर्भपात की वजह से लगभग आठ महिलाएं मौत के मुंह में समा जाती हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़े भी बताते हैं कि देश में होने वाले कुल गर्भपात में एक-चौथाई से ज्यादा घरों में ही होते हैं। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं कि यौन हिंसा का शिकार हुई महिला के मामले में असुरक्षित गर्भपात का रास्ता चुनने की ही आशंका ज्यादा होती है। खास है कि 2021 में संशोधन के बाद गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम बलात्कार पीड़िता के लिए चौबीस सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति देता है। लेकिन उचित मामलों में संवैधानिक न्यायालय द्वारा चौबीस सप्ताह से अधिक की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देने के लिए अपनी असाधारण शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है।
ज्ञात हो कि वर्ष 2022 में केरल उच्च न्यायालय ने भी चिकित्सा बोर्ड की अनुशंसा के बाद एक नाबालिग बलात्कार पीड़िता की अट्ठाईस सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की भी अनुमति दी थी। जनसत्ता के अनुसार, बीते साल ऐसे एक मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी तेरह वर्षीया बलात्कार पीड़िता को छब्बीस सप्ताह के बाद गर्भावस्था को चिकित्सीय रूप से समाप्त करने की अनुमति देते हुए कहा था कि अगर उसे कम उम्र में मातृत्व का बोझ उठाने के लिए मजबूर किया गया तो यह उसके दुख और पीड़ा को और बढ़ाने वाली स्थिति होगी।
विडंबना है कि घर हो या बाहर, एक ओर महिलाओं से जुड़ी आपराधिक घटनाओं के आंकड़े बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर कानूनी मोर्चे पर सुनवाई से लेकर फैसले की प्रतीक्षा तक में भी स्त्रियों के हिस्से आने वाली पीड़ा बढ़ी ही है। सामूहिक बलात्कार से जघन्य मामलों की सुनवाई के लिए भी न केवल तारीख मिलना मुश्किल हो जाता है, बल्कि फैसला आने में बरसों लग जाते हैं। व्यवस्था से मिली यह अंतहीन प्रतीक्षा बहुत सारी स्त्रियों का मनोबल तोड़ती है। इन उलझाऊ हालात को देखकर कई महिलाएं अपने प्रति हो रहे अत्याचार का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। दुखद यह भी है कि नाबालिग बच्चियों के खिलाफ हुई बर्बरता के मामले में भी यही ढुलमुल रवैया देखने को मिलता है।
कम उम्र की बच्चियों के विरुद्ध आपराधिक घटनाओं की गंभीरता को समझते हुए कुछ समय पहले उच्चतम न्यायालय ने भी विकृत मानसिकता वाले लोगों को लेकर सख्त टिप्पणी की थी। अदालत कहा था कि यौन शोषण या बलात्कार के अपराधियों को लेकर कड़े कानून बनाने पर संसद को विचार करना चाहिए। बच्चों से बलात्कार के मामलों पर अलग से प्रावधान बनाने पर विचार किया जाना चाहिए। गर्भावस्था समाप्त करने की अनुमति चाहने के मामले में उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी रेखांकित करने योग्य है कि जघन्य अपराध की पीड़ित महिला की स्थिति न्याय के संदर्भ में प्राथमिक कसौटी होनी चाहिए।
दरअसल, गर्भपात जैसे संवेदनशील मामले के अलावा भी महिलाओं के हिस्से आने वाली यह देरी हर पहलू पर चिंतनीय है। यही नहीं, अब परिजनों की ज्यादती हो या अपरिचितों का दुर्व्यवहार, शिकायत करने और कानूनी कार्रवाई शुरू होने बाद महिलाओं का जीवन दुश्वार कर दिया जाता है। फैसले के इंतजार में बेहद पीड़ादायी स्थितियां उनके हिस्से आती हैं। जबकि महिलाओं के मन-जीवन से जुड़े हालात को सुधारने के लिए चलाए जाने वाले जन-जागरूकता अभियानों में उनकी मुखरता की पैरवी की जाती है।
बुरे बर्ताव को सहने के बजाय आगे बढ़कर आवाज उठाने की सीख शामिल होती है। बर्बरता का शिकार बनने के बाद मन से टूटने के बजाय अपना जीवन पूरे हौसले के साथ आगे बढ़ाने का संदेश दिया जाता है। ऐसी वैचारिक बातें कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं के समक्ष बेमानी लगती हैं। व्यावहारिक धरातल पर बदलाव लाने के लिए कानूनी प्रक्रिया में भी सहजता और तत्परता जरूरी है। दुखद है कि बलात्कार जैसे जघन्य और बर्बर अपराध के मामलों के साबित होने पर भी जटिलता, विलंब और उलझन ही देखने को मिलती है। इन स्थितियों का ही नतीजा है कि कई घटनाओं की रपट तक नहीं दर्ज कराई जाती।
विडंबना यह भी है कि देश में हर चार में से एक मामले में ही अपराध सिद्ध हो पाता है। समझना कठिन नहीं कि न्याय पाने के मोर्चे पर यह एक निराशाजनक तस्वीर है। संकीर्ण सामाजिक सोच के चलते अलग-थलग पड़ जाने की ऐसी परिस्थितियां भी किसी सामूहिक क्रूरता को झेलने से कम नहीं होतीं। अधिकतर मामलों में परिजन भी उनकी मनोस्थिति नहीं समझ पाते। दोषारोपण का खेल हर ओर से शुरू हो जाता है। ऐसे में यौन हिंसा के दंश के बाद गर्भपात की अनुमति के लिए भी अगर इंतजार करने की स्थितियां बन जाएं तो कानूनी जटिलता और ढिलाई का रुख स्पष्ट समझ में आता है।
भारत में महिलाओं के पास क्या-क्या अधिकार है?
भारत का संविधान हर व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष एक ही नज़र से देखता है। भारत के संविधान में सभी एक बराबर हैं। मगर समाज ने जिस तरह से महिलाओं के प्रति हीन भावना रखी है उस ने एक लंबे वक्त तक महिलाओ को असहज रखा हुआ है। इसी असहजता से उबारने के लिए कानून ने महिलाओ को अधिकार प्रदान किये हैं ताकि वे भी बराबरी से जी सकें। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इन अधिकारों में गरिमा से जीना यानी Rights of Dignity जैसे अधिकार शामिल हैं। आइये जानते हैं महिलाओं को प्राप्त अधिकार?
बराबर मेहनताना
पुरुषों को उन के किये गए काम के लिए ज़्यादा पैसे दिए जाते थे वहीं औरतों को अपेक्षाकृत कम। यदि बात सैलरी की हो तो लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। समान मेहनताने के लिए महिलाओं के पास समान मेहनताने का अधिकार है और यह अधिकार उन्हें इक्वल रेमुनेरशन अधिनियम के तहत प्राप्त होता है।
गरिमा और शालीनता का अधिकार:
rights of dignity गरिमा और शालीनता का अधिकार हर किसी महिला के पास है। किसी भी महिला को किसी भी मामले में परीक्षण की आवश्यकता हो तो यह दूसरी महिला द्वारा या उसकी निगरानी में हो यह अधिकार भी महिलाओं को प्राप्त है। अपनी गरिमा और शालीनता का अधिकार (Rights of dignity) हर महिला के पास संविधान द्वारा प्रदत्त है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51क(ङ) में उल्लेखित मौलिक कर्तव्य में महिलाओं की गरिमा हेतु अपमान जनक प्रथाओं को त्यागने की बात कही गयी है।
कार्यस्थल पर उत्पीड़न से सुरक्षा का अधिकार
यदि किसी महिला के साथ उस के कार्यस्थल पर शारिरिक या मानसिक किसी भी प्रकार का उत्पीड़न होता हो तो महिला के पास यह अधिकार है कि वो कानून की सहायता ले कर उन पर शिकायत दर्ज करा सकती हैं। उत्पीड़न के ख़िलाफ़ अधिकार हर महिला के पास है।
घरेलू हिंसा के विरुद्ध अधिकार
किसी भी महिला के पास यह अधिकार है कि वह घर में अपने प्रति हो रही किसी भी हिंसा के विरुद्ध अपनी शिकायत दर्ज करा सकती है। भारतीय दंड संहिता की धारा 498 (IPC 498) के तहत पत्नी, या महिला लिव इन पार्टनर अपने विरुद्ध हो रही हिंसा के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करा सकती है। धारा 498 के तहत (IPC 498) किसी भी महिला के साथ मौखिक, आर्थिक, शारीरिकी और मानसिक हिंसा अपराध है। धारा 498 के तहत (IPC 498) इस अपराध के लिए तीन साल तक की ग़ैर जमानती सजा का प्रावधान है।
ज़ीरो एफ़आईआर का अधिकार
कानून द्वारा महिलाओं को ज़ीरो एफ़ आई आर की भी सुविधा प्रदान की गई। ज़ीरोएफ़आई आर का अर्थ होता है यदि महिला के साथ कुछ अपराध घटित होता है तो वह उस वक़्त अपनी शिकायत किसी किसी भी पुलिस थाने में कहीं से भी दर्ज कर सकती है। इस ज़ीरो एफ़आईआर को बाद में उस थाने तक पहुंचा दिया जाएगा जहाँ घटना या अपराध घटित हुआ होगा।
भरण-पोषण अधिकार
भरण पोषण के अधिकार का मतलब मेंटेनेंस से है। डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट की धारा 18 महिलाओं को यह अधिकार प्रदान करती है कि महिला अपने पति द्वारा जीवन भर भरण-पोषण का अधिकार रखेगी। तलाक हो जाने के पश्चात भी महिला के पास यह अधिकार धारा 25 के अंतर्गत रहता है।
विवाहित बेटी का अनुकम्पा नियुक्ति का अधिकार
माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कर्नाटक सरकार बनाम अपूर्वा श्री के मामले में बेटी को शादी के बाद दूसरे घर का होने जाने की बात को दकियानूसी करार देते हुए यह निर्णय दिया गया था कि विवाहित बेटी अनुकम्पा नियुक्ति के आधार पर सरकारी नौकरी का अधिकार रखती है।
मैटरनिटी लीव या मातृत्व अवकाश का अधिकार
संविधान द्वारा अनुच्छेद 42 के अंतर्गत महिलाओं को जो किसी सरकारी संस्थान या निजी संस्थान में कार्यरत हैं मैटरनिटी लीव या मातृत्व अवकाश लेने का अधिकार है यह मैटरनिटी लीव 12 हफ्तों की होती है जिसे महिलाएं अपने हिसाब से ले सकती हैं।
स्त्री धन पर अधिकार
विवाह के वक़्त वधु को मिले हुए उपहार को स्त्री धन कहा जाता है जिस पर महिला का पूर्ण अधिकार होता है। यदि ससुराल पक्ष की ओर से स्त्री धन पर कब्ज़ा कर लिया जाए तो महिला आई पी सी की धारा 406 के तहत शिकायत दर्ज करा सकती है।
मुफ़्त विधिक सहायता
महिला की आर्थिक स्थिति कैसी भी हो मगर उन के पास यह अधिकार है कि वह न्यायालय में अपने किसी मामले के लिए सरकारी ख़र्चे पर अधिवक्ता की मांग कर सकती है।