चुनाव, सही मायनों में जनता का उत्सव होते हैं। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में वे देश के भविष्य की राह का निर्धारण करते हैं। स्वतंत्रता के बाद से चुनावों ने देश में प्रजातंत्र को मजबूत किया है। ऐसा नहीं है कि समस्याएं नहीं थीं। लेकिन चुनावों में धनबल और बाहुबल के बढ़ते चलन और ईवीएम की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्हों ने चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता के बारे में लोगों के विश्ववास को कुछ हद तक चोट पहुंचाई है।
चुनावों की निष्पक्षता की राह में एक नई बाधा पिछले लगभग पांच सालों में खड़ी हुई है। और वह है समाज का धर्म के आधार पर विभाजन और धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने के लिए सत्ता का बेजा इस्तेमाल। धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों ने भारतीय प्रजातंत्र के पहरेदार - भारत के संविधान को अनेक बार चुनौती दी है और उसका खुलेआम उल्लंघन किया है। पिछले पांच सालों में मोदी सरकार ने अलग-अलग कारणों से समाज के कई वर्गों को आतंकित और प्रताड़ित किया है।
देश के एक बड़े तबके ने ‘अच्छे दिन‘ की उम्मीद में मोदी को अपना वोट दिया था। मतदाताओं को उम्मीद थी कि सबके बैंक खातों में 15 लाख रूपये आएंगे, भ्रष्टाचार का दानव थक-हारकर बैठ जाएगा, महंगाई डायन छूमंतर हो जाएगी, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, डॉलर की तुलना में रूपया मजबूत होगा और किसानों को उनकी उपज के वाजिब दाम मिलेंगे। लेकिन इन मतदाताओं का मोहभंग हो चुका है। देश में बेकारी में जबरदस्त वृद्धि हुई है और कृषि क्षेत्र गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है और एक आम भारतीय की कमर बढ़ती कीमतों ने पूरी तरह से तोड़ दी है।
टुकड़ों में बंटे विपक्ष को भी यह अहसास हो गया है कि अलग-अलग रहकर वे कितनी बड़ी भूल कर रहे थे। विपक्ष को समझ आ गया है कि अंधाधुंध प्रचार और उद्योगपतियों के अकूत धन के अतिरिक्त मोदी की सफलता का एक कारण था बिखरा हुआ विपक्ष। हालांकि विपक्ष अब भी एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने में सफल नहीं हुआ है, लेकिन आमजनों की तकलीफों और समस्याओं को चुनाव में मुद्दा बनाने के प्रयास कुछ हद तक सफल हुए हैं।
उम्मीद है कि मतदान होने तक देश के सारे अहम मुद्दे सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में आ जाएंगे।मोदी एंड कंपनी ने देश की एकता में गहरी दरार डाल दी है। राम मंदिर, घर वापसी, लव जेहाद और गोमांस जैसे मुद्दों ने लोगों के आपसी सद्भाव और प्रेम को खंडित किया है। यही सद्भाव और प्रेम, धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र की नींव होता है। बहुवाद हमारे स्वाधीनता संग्राम और संविधान का आधार था। परंतु इस बहुवाद पर सरकार ने अनवरत हमले किए। बीजेपी अपना एजेंडा लागू करती रही और उसके सहयोगी दल, सत्ता के लालच में चुप्पी साधे रहे।
राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर मोदी का उदय गोधरा में ट्रेन में आग लगने की घटना के राजनीतिकरण और उसके बहाने गुजरात में हुए कत्लेआम के बाद हुआ। इसके चलते जो ध्रुवीकरण हुआ उससे बीजेपी को चुनाव में फायदा हुआ। लोकसभा चुनाव के पहले, मोदी ने अपना राग बदल दिया और वे विकास की बात करने लगे। लेकिन अब पता चला कि विकास से मोदी का आशय अपने पूंजीपति दोस्तों को ब्लैंक चैक देना था ताकि वे देश को लूट सकें।
पूंजीपतियों ने बड़े लाभ की उम्मीद में यह घोषणा करनी शुरू कर दी कि मोदी को देश का अगला प्रधानमंत्री होना चाहिए। बीजेपी के पितृ संगठन आरएसएस ने मोदी की विजय सुनिश्चित करने के लिए अपने लाखों कार्यकर्ताओं को मैदान में उतार दिया। इस चुनाव में स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार, बीजेपी को अपने बलबूते पर लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। और सत्ता के भूखे गठबंधन के साथियों के साथ मिलकर उसने संघ परिवार के हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे को लागू करने का काम शुरू कर दिया।
कश्मीर समस्या को केवल कश्मीर की भूमि को अपने कब्जे में रखने का मुद्दा बना दिया गया। तथाकथित अतिवादी तत्व, जो आरएसएस द्वारा किए गए श्रम विभाजन के तहत काम करते हैं, ने सड़कों पर गुंडागर्दी शुरू कर दी और लोगों को पीट-पीटकर उनकी जान लेने की लोमहर्षक घटनाएं होने लगीं। धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने के साथ-साथ, दलितों पर अत्याचार हुए और महिलाओं में असुरक्षा का भाव बढ़ा। सरकार की कॉरपोरेट-परस्त नीतियों के कारण, किसानों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। देश के कई वर्गों के दिलों में असंतोष और गुस्से की आग धधक रही थी और इसी कारण कुछ समय पहले तक, चुनावी सर्वेक्षण आम चुनाव में, बीजेपी की हार की भविष्यवाणी कर रहे थे।
फिर, पुलवामा में आतंकी हमला हुआ और बीजेपी ने इसका चुनावी लाभ लेने की हर संभव कोशिशें शुरू कर दीं। भारत की फौज की सफलता को मोदी और बीजेपी की उपलब्धि बताया जा रहा है। अच्छे दिन की बात करने वाले मोदी अब अपने आपको ‘मजबूत‘ नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। मीडिया में धुआंधार दुष्प्रचार जारी है। सरकार के दावों पर प्रश्न उठाने को सेना पर अविश्वास करना बताया जा रहा है। विमर्श को इस कदर तोड़-मरोड़ दिया गया है कि प्रश्न पूछना ही मुहाल हो गया है। क्या इससे मोदी को चुनावों में लाभ मिलेगा?
भारत के लोगों के सामने आज दो तरह के भारत में से एक को चुनने का मौका है। एक भारत वह है जिसमें सभी धर्मों के लोग राष्ट्रनिर्माण के कार्य में कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगे, कानून की निगाहों में सभी बराबर होंगे और सभी के एक समान अधिकार होंगे। यह वह भारत है, जिसके निर्माण के लिए हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने संघर्ष किया था।
दूसरी ओर है मोदी-बीजेपी का भारत, जहां हिंदू श्रेष्ठि वर्ग, राजनीति के केंद्र में होगा, जहां आम लोगों की समस्याओं को नजरअंदाज किया जाएगा, जहां दलितों के साथ ऊना जैसी घटनाएं होंगी, जहां रोहित वैमुलाओं की संस्थागत हत्याएं होंगीं, जहां महिलाओं को कठुआ और उन्नाव जैसी शर्मिंदगी से गुजरना होगा और जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया जाएगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी की प्रचार मशीनरी बहुत ताकतवर है। परंतु यह भी साफ है कि आप लोगों को बार-बार बेवकूफ नहीं बना सकते। अच्छे दिन के वायदे ने लोगों को आकर्षित किया था। अतिराष्ट्रवाद और देशभक्ति की ओवरडोज, लोगों को कुछ समय के लिए भ्रमित कर सकती है, लेकिन इसका प्रभाव लंबे समय तक नहीं रह सकता।
लोग अपने रोजमर्रा के जीवन की समस्याओं को नहीं भुला सकते। जो मूलभूत मुद्दे विपक्ष उठा रहा है, उन पर देश की जनता अवश्य ध्यान देगी। जो लोग महात्मा गांधी, नेहरू और सरदार पटेल के सपने के भारत को देखना चाहते हैं वे इस बार निश्चित रूप से जीतेंगे। हमें आशा और विश्वास है कि भारत के लोग यह समझेंगे कि देश के लिए क्या अच्छा है और भारतीय प्रजातंत्र को संकीर्ण राष्ट्रवाद से हारने नहीं देंगे।
(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा। लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और साल 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
चुनावों की निष्पक्षता की राह में एक नई बाधा पिछले लगभग पांच सालों में खड़ी हुई है। और वह है समाज का धर्म के आधार पर विभाजन और धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने के लिए सत्ता का बेजा इस्तेमाल। धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों ने भारतीय प्रजातंत्र के पहरेदार - भारत के संविधान को अनेक बार चुनौती दी है और उसका खुलेआम उल्लंघन किया है। पिछले पांच सालों में मोदी सरकार ने अलग-अलग कारणों से समाज के कई वर्गों को आतंकित और प्रताड़ित किया है।
देश के एक बड़े तबके ने ‘अच्छे दिन‘ की उम्मीद में मोदी को अपना वोट दिया था। मतदाताओं को उम्मीद थी कि सबके बैंक खातों में 15 लाख रूपये आएंगे, भ्रष्टाचार का दानव थक-हारकर बैठ जाएगा, महंगाई डायन छूमंतर हो जाएगी, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, डॉलर की तुलना में रूपया मजबूत होगा और किसानों को उनकी उपज के वाजिब दाम मिलेंगे। लेकिन इन मतदाताओं का मोहभंग हो चुका है। देश में बेकारी में जबरदस्त वृद्धि हुई है और कृषि क्षेत्र गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है और एक आम भारतीय की कमर बढ़ती कीमतों ने पूरी तरह से तोड़ दी है।
टुकड़ों में बंटे विपक्ष को भी यह अहसास हो गया है कि अलग-अलग रहकर वे कितनी बड़ी भूल कर रहे थे। विपक्ष को समझ आ गया है कि अंधाधुंध प्रचार और उद्योगपतियों के अकूत धन के अतिरिक्त मोदी की सफलता का एक कारण था बिखरा हुआ विपक्ष। हालांकि विपक्ष अब भी एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने में सफल नहीं हुआ है, लेकिन आमजनों की तकलीफों और समस्याओं को चुनाव में मुद्दा बनाने के प्रयास कुछ हद तक सफल हुए हैं।
उम्मीद है कि मतदान होने तक देश के सारे अहम मुद्दे सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में आ जाएंगे।मोदी एंड कंपनी ने देश की एकता में गहरी दरार डाल दी है। राम मंदिर, घर वापसी, लव जेहाद और गोमांस जैसे मुद्दों ने लोगों के आपसी सद्भाव और प्रेम को खंडित किया है। यही सद्भाव और प्रेम, धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र की नींव होता है। बहुवाद हमारे स्वाधीनता संग्राम और संविधान का आधार था। परंतु इस बहुवाद पर सरकार ने अनवरत हमले किए। बीजेपी अपना एजेंडा लागू करती रही और उसके सहयोगी दल, सत्ता के लालच में चुप्पी साधे रहे।
राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर मोदी का उदय गोधरा में ट्रेन में आग लगने की घटना के राजनीतिकरण और उसके बहाने गुजरात में हुए कत्लेआम के बाद हुआ। इसके चलते जो ध्रुवीकरण हुआ उससे बीजेपी को चुनाव में फायदा हुआ। लोकसभा चुनाव के पहले, मोदी ने अपना राग बदल दिया और वे विकास की बात करने लगे। लेकिन अब पता चला कि विकास से मोदी का आशय अपने पूंजीपति दोस्तों को ब्लैंक चैक देना था ताकि वे देश को लूट सकें।
पूंजीपतियों ने बड़े लाभ की उम्मीद में यह घोषणा करनी शुरू कर दी कि मोदी को देश का अगला प्रधानमंत्री होना चाहिए। बीजेपी के पितृ संगठन आरएसएस ने मोदी की विजय सुनिश्चित करने के लिए अपने लाखों कार्यकर्ताओं को मैदान में उतार दिया। इस चुनाव में स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार, बीजेपी को अपने बलबूते पर लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। और सत्ता के भूखे गठबंधन के साथियों के साथ मिलकर उसने संघ परिवार के हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे को लागू करने का काम शुरू कर दिया।
कश्मीर समस्या को केवल कश्मीर की भूमि को अपने कब्जे में रखने का मुद्दा बना दिया गया। तथाकथित अतिवादी तत्व, जो आरएसएस द्वारा किए गए श्रम विभाजन के तहत काम करते हैं, ने सड़कों पर गुंडागर्दी शुरू कर दी और लोगों को पीट-पीटकर उनकी जान लेने की लोमहर्षक घटनाएं होने लगीं। धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने के साथ-साथ, दलितों पर अत्याचार हुए और महिलाओं में असुरक्षा का भाव बढ़ा। सरकार की कॉरपोरेट-परस्त नीतियों के कारण, किसानों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। देश के कई वर्गों के दिलों में असंतोष और गुस्से की आग धधक रही थी और इसी कारण कुछ समय पहले तक, चुनावी सर्वेक्षण आम चुनाव में, बीजेपी की हार की भविष्यवाणी कर रहे थे।
फिर, पुलवामा में आतंकी हमला हुआ और बीजेपी ने इसका चुनावी लाभ लेने की हर संभव कोशिशें शुरू कर दीं। भारत की फौज की सफलता को मोदी और बीजेपी की उपलब्धि बताया जा रहा है। अच्छे दिन की बात करने वाले मोदी अब अपने आपको ‘मजबूत‘ नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। मीडिया में धुआंधार दुष्प्रचार जारी है। सरकार के दावों पर प्रश्न उठाने को सेना पर अविश्वास करना बताया जा रहा है। विमर्श को इस कदर तोड़-मरोड़ दिया गया है कि प्रश्न पूछना ही मुहाल हो गया है। क्या इससे मोदी को चुनावों में लाभ मिलेगा?
भारत के लोगों के सामने आज दो तरह के भारत में से एक को चुनने का मौका है। एक भारत वह है जिसमें सभी धर्मों के लोग राष्ट्रनिर्माण के कार्य में कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगे, कानून की निगाहों में सभी बराबर होंगे और सभी के एक समान अधिकार होंगे। यह वह भारत है, जिसके निर्माण के लिए हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने संघर्ष किया था।
दूसरी ओर है मोदी-बीजेपी का भारत, जहां हिंदू श्रेष्ठि वर्ग, राजनीति के केंद्र में होगा, जहां आम लोगों की समस्याओं को नजरअंदाज किया जाएगा, जहां दलितों के साथ ऊना जैसी घटनाएं होंगी, जहां रोहित वैमुलाओं की संस्थागत हत्याएं होंगीं, जहां महिलाओं को कठुआ और उन्नाव जैसी शर्मिंदगी से गुजरना होगा और जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया जाएगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी की प्रचार मशीनरी बहुत ताकतवर है। परंतु यह भी साफ है कि आप लोगों को बार-बार बेवकूफ नहीं बना सकते। अच्छे दिन के वायदे ने लोगों को आकर्षित किया था। अतिराष्ट्रवाद और देशभक्ति की ओवरडोज, लोगों को कुछ समय के लिए भ्रमित कर सकती है, लेकिन इसका प्रभाव लंबे समय तक नहीं रह सकता।
लोग अपने रोजमर्रा के जीवन की समस्याओं को नहीं भुला सकते। जो मूलभूत मुद्दे विपक्ष उठा रहा है, उन पर देश की जनता अवश्य ध्यान देगी। जो लोग महात्मा गांधी, नेहरू और सरदार पटेल के सपने के भारत को देखना चाहते हैं वे इस बार निश्चित रूप से जीतेंगे। हमें आशा और विश्वास है कि भारत के लोग यह समझेंगे कि देश के लिए क्या अच्छा है और भारतीय प्रजातंत्र को संकीर्ण राष्ट्रवाद से हारने नहीं देंगे।
(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा। लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और साल 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)