इस्लामिक शासक वर्ग के पहुँचने वाला जो भारत हमारे जेहन में आता है, उसका एक छोर कांधार, अफगानिस्तान और दूसरा छोर बांग्लादेश का चिटगाँव शहर है। इसकी आज की आबादी - 5 करोड़ अफगानिस्तान,18 करोड़ पाकिस्तान, 20 करोड़ बांगलादेश और 130 भारत- कुल मिलाकर 173 करोड़ है। इसमें 115 करोड़ हिन्दू और 58 करोड़ मुस्लिम आबादी है। लेकिन जब मुसलमान भारत आए उस समय की कुल आबादी में सवर्ण हिन्दुओं के अतिरिक्त शूद्र, बौद्ध और आदिवासी बड़ी संख्या में थे। तब कोई मुस्लिम नहीं था। उस दौर में विदेशों से आने वाले अरब,फारसी,मध्य एशियाई और तुर्क मूल के लोग थे। समय-समय पर इन आने वालों में शासक वर्ग, सैन्य वर्ग, उलेमा, इस्लामिक धर्म गुरू, लड़ाके सिपाही, शिक्षाविद और कामगार थे। इनकी कुल तादात दस लाख से अधिक नहीं थी।
अगर हम पिछले सात सौ साल की कुल पीढ़ियों के हिसाब से देखें तो यह तादात डेढ़ करोड़ होती है। इसे अगर आज की कुल मुस्लिम आबादी से कम करें यानी 58 करोड़ से 1.5 करोड़ घटा दें तो 56.5 करोड़ आबादी बचती है। अगर फीसद में देखें तो विदेशी आबादी हुई केवल 2.58% और बाकी 97.42% आबादी मूल निवासी भारतीय है। यह मूल निवासी आबादी इस्लामी आदर्शों और सूफी शिक्षाओं से प्रभावित होकर मुसलमान बनी थी। साथ ही अरब व्यापारियों के साथ पुराने संबंधों द्वारा दक्षिण भारत में इस्लाम पहुँचा। गौरतलब है कि सबसे महत्वपूर्ण इस्लाम का असर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सफ़र से हुआ। इस सफ़र में वे पहले बगदाद से ढाका और फिर ढाका से अजमेर पहुँचे।
मेरा पूरा विश्वास है कि 97.4% उस दौर की शूद्र आबादी थी। यानी आज के दलित, पिछड़े और आदिवासी। इनमें कुछ तादात सवर्ण हिन्दुओं की भी थी। जैसे केरल के मोपला मुसलमान स्थानीय ब्राह्मण और अरब मिश्रित हैं। उत्तर भारत के कई हिस्सों में भी ब्राह्मण और क्षत्रियों ने इस्लाम अपनाया। उदाहरण स्वरूप मुहम्मद अली जिन्ना और मुहम्मद इकबाल के पूर्वज दो पीढ़ी पहले सवर्ण हिन्दू थे। मगर आज मुसलमानों की 95% आबादी शूद्रों और आदिवासियों की है। आदिवासियों में खासकर उत्तर-पश्चिम प्रांत सरहद के पख्तून, अफगानिस्तान के पख्तून (उदाहरण के तौर पर पोरस एक हिन्दू पख्तून बादशाह था), असम, मणिपुर और अविभाजित बंगाल के आदिवासी (जिन्हें चिटगाँव के इलाके में चकमा कहा जाता था) आते हैं।
पैट्रिक फ्रेंच ने अपनी चर्चित किताब 'भारत' में लिखा है कि आज सवर्ण ब्राह्मणवादियों का मुसलमानों के प्रति द्वेष, मूल रूप से उन हिन्दू शूद्रों के प्रति है जिन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को अस्वीकार करके इस्लाम कुबूल कर लिया था। इस द्वेष को आर.एस.एस. बढ़ावा देता है। मुसलमानों पर हमलों का यही बड़ा कारण है। मेरा मानना है कि ये 95% मुसलमान, जिनके पूर्वज मूल निवासी थे, अगर मजबूती से और डंके की चोट पर अपनी इस विरासत पर जोर दें तो 'हम' और 'वह' का छद्म भरा यह माहौल अपने आप खत्म हो जाएगा। जब मूल निवासी मुसलमान ब्राह्मणवादी व्यवस्था में उत्पीड़ित अपने भाइयों यानी शूद्र हिन्दू (दलित, पिछड़ा, आदिवासी) के साथ लामबंद हो जाएगा तो आज की शासक विचारधारा हम और वह का विभाजन नहीं कर सकेगी।
लेकिन हमें यह देखना पड़ेगा कि भारतीय समाज में जो वर्गीय और जातिगत अहंकार आया है, वह सबसे बड़ी चुनौती होगी। यही अहंकार मुसलमानों को मूल निवासी कहने से रोकता है। दरअसल उस समय शासक वर्ग की नस्ल से जुड़ने से इस मूल निवासी मुसलमान को जो विशेषाधिकार मिले थे, उन्हें वह आज भी संवारकर रखना चाहता है। इसीलिए वह अपने को विदेशी नस्ल के साथ जोड़ता है। अब सवाल यह है कि आज की तारीख में कितने मुसलमान हैं जो मजबूती से अपने को मूल निवासी कहने की ताकत रखते हैं और यह स्वीकारने की हिम्मत रखते हैं कि उनके पूर्वज इसी भारत की मिट्टी से जुड़े दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय के थे।
अगर हम पिछले सात सौ साल की कुल पीढ़ियों के हिसाब से देखें तो यह तादात डेढ़ करोड़ होती है। इसे अगर आज की कुल मुस्लिम आबादी से कम करें यानी 58 करोड़ से 1.5 करोड़ घटा दें तो 56.5 करोड़ आबादी बचती है। अगर फीसद में देखें तो विदेशी आबादी हुई केवल 2.58% और बाकी 97.42% आबादी मूल निवासी भारतीय है। यह मूल निवासी आबादी इस्लामी आदर्शों और सूफी शिक्षाओं से प्रभावित होकर मुसलमान बनी थी। साथ ही अरब व्यापारियों के साथ पुराने संबंधों द्वारा दक्षिण भारत में इस्लाम पहुँचा। गौरतलब है कि सबसे महत्वपूर्ण इस्लाम का असर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सफ़र से हुआ। इस सफ़र में वे पहले बगदाद से ढाका और फिर ढाका से अजमेर पहुँचे।
मेरा पूरा विश्वास है कि 97.4% उस दौर की शूद्र आबादी थी। यानी आज के दलित, पिछड़े और आदिवासी। इनमें कुछ तादात सवर्ण हिन्दुओं की भी थी। जैसे केरल के मोपला मुसलमान स्थानीय ब्राह्मण और अरब मिश्रित हैं। उत्तर भारत के कई हिस्सों में भी ब्राह्मण और क्षत्रियों ने इस्लाम अपनाया। उदाहरण स्वरूप मुहम्मद अली जिन्ना और मुहम्मद इकबाल के पूर्वज दो पीढ़ी पहले सवर्ण हिन्दू थे। मगर आज मुसलमानों की 95% आबादी शूद्रों और आदिवासियों की है। आदिवासियों में खासकर उत्तर-पश्चिम प्रांत सरहद के पख्तून, अफगानिस्तान के पख्तून (उदाहरण के तौर पर पोरस एक हिन्दू पख्तून बादशाह था), असम, मणिपुर और अविभाजित बंगाल के आदिवासी (जिन्हें चिटगाँव के इलाके में चकमा कहा जाता था) आते हैं।
पैट्रिक फ्रेंच ने अपनी चर्चित किताब 'भारत' में लिखा है कि आज सवर्ण ब्राह्मणवादियों का मुसलमानों के प्रति द्वेष, मूल रूप से उन हिन्दू शूद्रों के प्रति है जिन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को अस्वीकार करके इस्लाम कुबूल कर लिया था। इस द्वेष को आर.एस.एस. बढ़ावा देता है। मुसलमानों पर हमलों का यही बड़ा कारण है। मेरा मानना है कि ये 95% मुसलमान, जिनके पूर्वज मूल निवासी थे, अगर मजबूती से और डंके की चोट पर अपनी इस विरासत पर जोर दें तो 'हम' और 'वह' का छद्म भरा यह माहौल अपने आप खत्म हो जाएगा। जब मूल निवासी मुसलमान ब्राह्मणवादी व्यवस्था में उत्पीड़ित अपने भाइयों यानी शूद्र हिन्दू (दलित, पिछड़ा, आदिवासी) के साथ लामबंद हो जाएगा तो आज की शासक विचारधारा हम और वह का विभाजन नहीं कर सकेगी।
लेकिन हमें यह देखना पड़ेगा कि भारतीय समाज में जो वर्गीय और जातिगत अहंकार आया है, वह सबसे बड़ी चुनौती होगी। यही अहंकार मुसलमानों को मूल निवासी कहने से रोकता है। दरअसल उस समय शासक वर्ग की नस्ल से जुड़ने से इस मूल निवासी मुसलमान को जो विशेषाधिकार मिले थे, उन्हें वह आज भी संवारकर रखना चाहता है। इसीलिए वह अपने को विदेशी नस्ल के साथ जोड़ता है। अब सवाल यह है कि आज की तारीख में कितने मुसलमान हैं जो मजबूती से अपने को मूल निवासी कहने की ताकत रखते हैं और यह स्वीकारने की हिम्मत रखते हैं कि उनके पूर्वज इसी भारत की मिट्टी से जुड़े दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय के थे।