भारतीय बैंक पहले से ही विकासशील देश भारत के वित्तीय मांग की बढ़त को पूरा करने के लिए संघर्षरत है साथ ही कोरोना महामारी की मार भारतीय अर्थव्यवस्था पर लगातार बरक़रार है. इस महामारी ने भारत की अर्थव्यवस्था को घुटनों पर ला दिया है एक दौर में शानदार प्रदर्शन कर रही भारत की अर्थव्यवस्था आज संभलने के लिए हर एक सेक्टर की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देख रही है. महामारी के दौरान जहाँ भारत सरकार कई नए कानूनों को संसद से पारित करवा चुकी है वहीं पूंजीपतियों के पैरोकार सरकार में बैठे लोगों द्वारा अब कॉर्पोरेट घराने को ख़ुद का बैंक खोलने के लाइसेंस देने पर चर्चा तेज हो चुकी है.
भारतीय रिजर्व बैंक की तरफ़ से गठित एक आतंरिक कार्य समूह की हालिया रिपोर्ट चर्चा का विषय बनी हुई है. दरअसल आतंरिक कार्य समूह का गठन देशभर के निजी क्षेत्र के बैंकों के लिए मौजूदा स्वामित्व, दिशा निर्देशों और कॉर्पोरेट संरचना की समीक्षा करने के लिए किया गया था. वर्तमान में यह समूह इसलिए चर्चा का विषय बना है क्यूंकि इसमें सुझाव दिया गया है कि बैंकिंग विनियमन अधिनियम 1949 में आवश्यक संशोधन के बाद बड़े औद्योगिक घरानों को बैंकों के प्रवर्तक के रूप में अनुमति दी जा सकती है, मतलब बड़े कॉर्पोरेट घराने या पूंजीपति जैसे अडानी, अंबानी बिरला, बजाज जैसे घराने बैंक के लिए लाइसेंस ले सकते हैं और अगर वो उपयुक्त पाए गए तो वो ख़ुद का बैंक भी खोल सकते हैं.
यह सच है कि अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टर के साथ ही भारतीय बैंकिंग प्रणाली भी काफी कमजोर स्थिति में है. भारत की आजादी के समय व्यवसायिक बैंक जिनमें से कई बैंक कारोबारी घरानों के नियंत्रण में थे, सामाजिक उदेश्यों को पूरा करने में असफ़ल रहे इसलिए ही भारत सरकार ने 1969 में 14 और 1980 में 6 बड़े व्यवसायिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था हालाँकि भूमंडलीकरण के शुरुआत व् नब्बे के दशक में आर्थिक सुधार के साथ ही निजी बैंकों की भूमिका को स्वीकार किया जाने लगा है लेकिन फिलहाल उसका व्यापक प्रभाव नजर नहीं आता. आज भारत का एक मात्र बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया दुनिया के शीर्ष 100 बैंकों में शुमार है. वर्तमान में लगभग हर सेक्टर में बढ़ते निजीकरण का प्रभाव बैंकिंग सेक्टर में भी देखा जा सकता है. सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों में निजी क्षेत्रों की बढती हिस्सेदारी यह दिखाती है कि सरकार निजीकरण की पक्षधर रही है और यह प्रक्रिया पिछले 6 सालों में तेज हुई है.
आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने अपने लिंक्डइन प्रोफाइल पर पोस्ट करके इससे होने वाली समस्या को साझा किया है. उन्होंने कहा है कि “कॉर्पोरेट घरानों को बैंकिंग क्षेत्र में आने की अनुमति देना विस्फोटक है. अगर ऐसा करने की अनुमति दे दी जाती है तो आर्थिक ताकतें कुछ ही कॉर्पोरेट घरानों के हाथों में सिमट कर रह जाएगी. इन कॉर्पोरेट्स को ख़ुद भी वित्त पोषण की जरुरत होती है और ऐसे में वो अपने ही बैंक से जब चाहे आसानी से पैसे निकाल सकते हैं और उनसे सवाल तक करना भी मुश्किल होगा यह देश को ऋण की बुरी सतही की और ले जाएगा. वे कहते हैं जब कर्जदार ही बैंक का मालिक होगा तो ऐसे में बैंक ठीक से ऋण कैसे दे पाएगा? दुनियाभर की सूचनाएं पाने वाले एक स्वतंत्र और प्रतिबद्ध नियामक के लिए भी ख़राब कर्ज वितरण पर रोक लगाने के लिए हर जगह नजर रखना मुश्किल होता है. ऋण प्रदर्शन को लेकर जानकारी शायद ही कभी समय पर आती है या सटीक आती है. यस बैंक अपने कमजोर ऋण जोखिमों को काफी समय तक छुपाने में कामयाब रहा था.”
आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कहा कि “अत्यधिक ऋणग्रस्त और राजनीति से जुड़े व्यवसायिक घराने के पास बैंक का लाइसेंस पाने के लिए ज्यादा जोर लगा पाने की क्षमता होगी इससे हमारी राजनीति में पैसे की ताकत का महत्व और अधिक बढ़ जाएगा.” उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि आरबीआई ने पहले औद्योगिक घरानों को पेमेंट बैंकों के साथ आने की अनुमति दी है और ये बैंक रिटेल कर्ज देने के लिए अन्य बैंकों से गठजोड़ कर सकते हैं. तो जब हमारे पास पहले से ये विकल्प है तो हमें औद्योगिक घराने को पूरा बैंक खोलने का लाइसेंस देने की जरुरत क्या है? साथ ही इन दोनों ने यह भी कहा कि “वर्तमान में ख़राब प्रदर्शन करने वाले सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों को कॉरपोरेट्स के हवाले कर दिया जाना मूर्खतापूर्ण होगा. इन सार्वजानिक बैंकों को कॉरपोरेट्स को देने का मतलब है कि हम इन मौजूदा बैंकों के ख़राब प्रशासन को कॉरपोरेट्स के विवादित स्वामित्व के हवाले कर देंगे.”
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुजर रही है जिसे कोरोना महामारी के प्रभाव ने और भी बदतर कर दिया है. देश एक साथ कई चुनौतियों का सामना कर रहा है लेकिन सरकार का यह कदम देश की आर्थिक ताकतों का केन्द्रीकरण मात्र होगा, साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से देश की आर्थिक बागडोर को संभाले कॉर्पोरेट घरानों को अहिस्ता-आहिस्ता अर्थव्यवस्था के प्रत्यक्ष हिस्सेदार बनाने की कवायद सरकार द्वारा जारी है. यह भी सच है कि महामारी के इस बुरे दौर में पुजीपतियों का चंद घराना मिल कर देश में वित्तीय कमी को पूरा कर सकते हैं परतु इसके लिए बैंकों का मालिकाना हक़ इन्हें देना कई तरह के संदेह को पैदा करता है.
भारतीय रिजर्व बैंक की तरफ़ से गठित एक आतंरिक कार्य समूह की हालिया रिपोर्ट चर्चा का विषय बनी हुई है. दरअसल आतंरिक कार्य समूह का गठन देशभर के निजी क्षेत्र के बैंकों के लिए मौजूदा स्वामित्व, दिशा निर्देशों और कॉर्पोरेट संरचना की समीक्षा करने के लिए किया गया था. वर्तमान में यह समूह इसलिए चर्चा का विषय बना है क्यूंकि इसमें सुझाव दिया गया है कि बैंकिंग विनियमन अधिनियम 1949 में आवश्यक संशोधन के बाद बड़े औद्योगिक घरानों को बैंकों के प्रवर्तक के रूप में अनुमति दी जा सकती है, मतलब बड़े कॉर्पोरेट घराने या पूंजीपति जैसे अडानी, अंबानी बिरला, बजाज जैसे घराने बैंक के लिए लाइसेंस ले सकते हैं और अगर वो उपयुक्त पाए गए तो वो ख़ुद का बैंक भी खोल सकते हैं.
यह सच है कि अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टर के साथ ही भारतीय बैंकिंग प्रणाली भी काफी कमजोर स्थिति में है. भारत की आजादी के समय व्यवसायिक बैंक जिनमें से कई बैंक कारोबारी घरानों के नियंत्रण में थे, सामाजिक उदेश्यों को पूरा करने में असफ़ल रहे इसलिए ही भारत सरकार ने 1969 में 14 और 1980 में 6 बड़े व्यवसायिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था हालाँकि भूमंडलीकरण के शुरुआत व् नब्बे के दशक में आर्थिक सुधार के साथ ही निजी बैंकों की भूमिका को स्वीकार किया जाने लगा है लेकिन फिलहाल उसका व्यापक प्रभाव नजर नहीं आता. आज भारत का एक मात्र बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया दुनिया के शीर्ष 100 बैंकों में शुमार है. वर्तमान में लगभग हर सेक्टर में बढ़ते निजीकरण का प्रभाव बैंकिंग सेक्टर में भी देखा जा सकता है. सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों में निजी क्षेत्रों की बढती हिस्सेदारी यह दिखाती है कि सरकार निजीकरण की पक्षधर रही है और यह प्रक्रिया पिछले 6 सालों में तेज हुई है.
आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने अपने लिंक्डइन प्रोफाइल पर पोस्ट करके इससे होने वाली समस्या को साझा किया है. उन्होंने कहा है कि “कॉर्पोरेट घरानों को बैंकिंग क्षेत्र में आने की अनुमति देना विस्फोटक है. अगर ऐसा करने की अनुमति दे दी जाती है तो आर्थिक ताकतें कुछ ही कॉर्पोरेट घरानों के हाथों में सिमट कर रह जाएगी. इन कॉर्पोरेट्स को ख़ुद भी वित्त पोषण की जरुरत होती है और ऐसे में वो अपने ही बैंक से जब चाहे आसानी से पैसे निकाल सकते हैं और उनसे सवाल तक करना भी मुश्किल होगा यह देश को ऋण की बुरी सतही की और ले जाएगा. वे कहते हैं जब कर्जदार ही बैंक का मालिक होगा तो ऐसे में बैंक ठीक से ऋण कैसे दे पाएगा? दुनियाभर की सूचनाएं पाने वाले एक स्वतंत्र और प्रतिबद्ध नियामक के लिए भी ख़राब कर्ज वितरण पर रोक लगाने के लिए हर जगह नजर रखना मुश्किल होता है. ऋण प्रदर्शन को लेकर जानकारी शायद ही कभी समय पर आती है या सटीक आती है. यस बैंक अपने कमजोर ऋण जोखिमों को काफी समय तक छुपाने में कामयाब रहा था.”
आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कहा कि “अत्यधिक ऋणग्रस्त और राजनीति से जुड़े व्यवसायिक घराने के पास बैंक का लाइसेंस पाने के लिए ज्यादा जोर लगा पाने की क्षमता होगी इससे हमारी राजनीति में पैसे की ताकत का महत्व और अधिक बढ़ जाएगा.” उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि आरबीआई ने पहले औद्योगिक घरानों को पेमेंट बैंकों के साथ आने की अनुमति दी है और ये बैंक रिटेल कर्ज देने के लिए अन्य बैंकों से गठजोड़ कर सकते हैं. तो जब हमारे पास पहले से ये विकल्प है तो हमें औद्योगिक घराने को पूरा बैंक खोलने का लाइसेंस देने की जरुरत क्या है? साथ ही इन दोनों ने यह भी कहा कि “वर्तमान में ख़राब प्रदर्शन करने वाले सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों को कॉरपोरेट्स के हवाले कर दिया जाना मूर्खतापूर्ण होगा. इन सार्वजानिक बैंकों को कॉरपोरेट्स को देने का मतलब है कि हम इन मौजूदा बैंकों के ख़राब प्रशासन को कॉरपोरेट्स के विवादित स्वामित्व के हवाले कर देंगे.”
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुजर रही है जिसे कोरोना महामारी के प्रभाव ने और भी बदतर कर दिया है. देश एक साथ कई चुनौतियों का सामना कर रहा है लेकिन सरकार का यह कदम देश की आर्थिक ताकतों का केन्द्रीकरण मात्र होगा, साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से देश की आर्थिक बागडोर को संभाले कॉर्पोरेट घरानों को अहिस्ता-आहिस्ता अर्थव्यवस्था के प्रत्यक्ष हिस्सेदार बनाने की कवायद सरकार द्वारा जारी है. यह भी सच है कि महामारी के इस बुरे दौर में पुजीपतियों का चंद घराना मिल कर देश में वित्तीय कमी को पूरा कर सकते हैं परतु इसके लिए बैंकों का मालिकाना हक़ इन्हें देना कई तरह के संदेह को पैदा करता है.