राजा का बाजा बजाने को मजबूर RBI

Written by Girish Malviya | Published on: August 27, 2019
RBI ने इकनॉमिक कैपिटल फ्रेमवर्क पर बिमल जालान समिति की सिफारिशों के आधार पर केंद्र सरकार को रेकॉर्ड 1.76 लाख करोड़ रुपये हस्तांतरित करने की मंजूरी दी है .....कोई बताए कि आज से पहले कौन से वर्ष इतनी बड़ी रकम सरकार को देने की अनुशंसा की गयी है ? यह साफ साफ डाकेजनी है! 



यह रकम उस वक्त दी जा रही है जब रुपया एशिया की सबसे कमज़ोर मुद्रा बनता जा रहा है। उसकी कीमत कम होती जा रही है और विदेशी निवेशक तेजी से अपनी रकम भारतीय पूंजी बाजार से निकाल रहे हैं।

आरबीआई के कोष से रकम का हस्तांतरण पिछले दिनों तीखी चर्चा का विषय रहा है। आरबीआई के पिछले गवर्नर उर्जित पटेल और सरकार के बीच विवाद की जड़ यही मुद्दा बना और जिसके कारण उर्जित पटेल ने इस्तीफा तक दे दिया और यस मैन शक्तिकांत दास को RBI का गवर्नर बनाया गया।

पिछले साल दिसंबर में आरबीआई ने पूर्व गवर्नर बिमल जालान की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी और उसे इस बात की पड़ताल करने का काम सौंपा था कि कितनी रकम आरक्षित भंडार में रखनी चाहिए और कितनी रकम सरकार को सौंप देनी चाहिए यह रकम इसी कमेटी की अनुशंसा से दी गई है लेकिन अर्थनीति से जुड़े लोग इसके पक्ष में नहीं थे।

कुछ दिनों पूर्व रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर D सुब्बाराव ने भी केंद्रीय बैंक के अधिशेष भंडार में हिस्सा लेने के सरकार के प्रयासों पर अपना कड़ा विरोध दर्ज कराते हुए कहा था कि 'यदि दुनिया में कहीं भी एक सरकार उसके केंद्रीय बैंक की बैलेंस शीट को हड़पना चाहती है तो यह ठीक बात नहीं है। इससे पता चलता है कि सरकार इस खजाने को लेकर काफी व्यग्र है।' दरअसल रिजर्व बैंक के जोखिम अन्य केंद्रीय बैंकों से काफी अलग हैं। सुब्बाराव ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय निवेशक सरकार और केंद्रीय बैंक दोनों के बैलेंसशीट पर गौर करते हैं। संकट के समय में ऋण देने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष भी इसी तरीके को अपनाती है।

यानी यह एक आपात आरक्षित फंड है
सरकार इस फिस्कल ईयर में RBI से 90,000 करोड़ रुपये का डिविडेंड लेना चाहती थी। पिछले फिस्कल ईयर के मुकाबले यह 32 फीसदी ज्यादा है। उस वक्त RBI ने 68,000 करोड़ रुपये दिए थे। यानी कि पहले से ही सरकार ज्यादा डिविडेंड लेने की कोशिश कर रही थी वह लाभांश में ज्यादा हिस्सेदारी मांग कर रहीं थीं, लेकिन अब वह और भी ज्यादा रकम पर हक जता रही हैं इसके लिए वह आपात आरक्षित फंड को तोड़ना चाहती हैं।

आईएमएफ के कम्युनिकेशन डायरेक्टर गेरी राइस ने भी कहा था है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर केन्द्रीय बैंकों के काम में किसी तरह का दखल न देना सबसे आदर्श स्थिति है।

यह केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता पर एक तरह का हमला है। कुछ महीने पहले रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने 'ए डी श्रॉफ मेमोरियल लेक्चर' के दौरान रिजर्व बैंक की स्वायतत्ता बरकरार रखने संबंधी बयान दिया था। विरल आचार्य ने इस दौरान कहा था कि यदि सरकार केन्द्रीय बैंक की स्वायतत्ता का सम्मान नहीं करेगी, तो यह भविष्य में वित्तीय बाजार की अनियमितता और तेज आर्थिक विकास के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। विरल आचार्य ने अर्जेंटीना का उदाहरण दिया कि किस तरह से वहां की सरकार ने सेंट्रल बैंक के काम में दखल दिया जिससे अजेंटीना की अर्थव्यवस्था पर काफी बुरा असर पड़ा। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कहा था कि ''जो सरकारें केंद्रीय बैंकों की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करती हैं वहां के बाज़ार तत्काल या बाद में भारी संकट में फंस जाते हैं। अर्थव्यवस्था सुलगने लगती है और अहम संस्थाओं की भूमिका खोखली हो जाती है।'' अर्जेंटीना में 2010 में ठीक ऐसा ही हुआ था।

इस भाषण के बाद विरल आचार्य को भी उर्जित पटेल की ही तरह अपने पद से हटना पड़ा। उसके पहले नचिकेता मोर जो आरबीआई बोर्ड के सदस्य थे उन्हें हटाकर गुरुमूर्ति जो संघी विचारधारा के समर्थक थे उन्हें बोर्ड का सदस्य बनाया गया। नचिकेत मोर सरकार के आरबीआई में दखल के सख्त आलोचक थे। यानी एक एक करके RBI की स्वतंत्रता के समर्थकों को बाहर किया गया और अपने लोगो की नियुक्ति की गयी जिसका रिजल्ट यह घोषणा है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो यह एक अभूतपूर्व स्थिति है जब RBI को भी राजा का बाजा बजाने के लिए मजबूर कर दिया गया है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

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