पड़ोस के अंकल वाइफ को गर्म पिन से जलाते थे, चीखने पर और जलाने की धमकी भी देते...

Written by Mithun Prajapati | Published on: March 25, 2021
मैं आठ साल का था। चौथी में पढ़ता था। सुबह उठकर स्कूल भागना होता था। दोपहर में घर वापस आ जाता था। अगला काम यह होता था कि फादर के लिए खाना दुकान तक लेकर जाना। फादर सब्जी की दुकान चलाते थे। खाना खाकर फादर दो घण्टे के लिए सो जाते थे। उस वक्त दुकान मैं देखता था। 



मेरे फादर दुनिया के अधिकतर फादर्स की तरह आम फादर हैं। जातिवादी हैं, धार्मिक हैं, महिला विरोधी हैं। शायद साम्प्रदायिक भी हों, मुझे नहीं पता। फिल्मों में काम करने वाली महिलाओं को अक्सर वे रं* कहते। सड़क पर चलने वाली छोटे कपड़े पहनने वाली महिलाओं को अक्सर मैंने बचपने में उन्हें रं* , छि** का सर्टिफिकेट देते सुना था। मुझे नहीं पता होता था कि यह क्या होता है। बस मन में धारणा बन गई थी कि ये गन्दे लोग होते हैं। अच्छी महिलाएं ये सब नहीं होती। 

फादर शाम को उठते तो दुकान संभालते। मैं फ़्री हो जाता था। काम से नहीं, दुकान से। इसके बाद अगला काम नींबू और धनिया बेचने का मिलता था। दुकान से दूर एक गली नुमा सड़क पर मैं कुछ धनिया के बंडल्स और नींबू लेकर बेचने निकल जाया करता था। करीब सौ नींबू होते थे और कुछ बंडल धनिया। यह सिर्फ मैं नहीं करता था, फादर की दुकान के बगल में जो दुकान थी उस दुकान वाले का लड़का भी यही करता था। वह उम्र में मुझसे काफी बड़ा था। उसको इस तरह से करता देखकर ही फादर ने मुझे यह काम करने को दिया था। मुझे भी खुशी होती थी कि दस बीस रुपये इस बहाने मिल जाया करते थे। शाम को चाल के दोस्त सब मैदान में खेलने निकल जाया करते थे जो मुझे भी अच्छा लगता था। पर यह सब छूटता गया। 

फादर की आर्थिक हालत क्या थी उस समय मुझे नहीं पता। इसकी समझ मुझे नहीं थी। भाड़े का घर था। दुकान भी चलती थी। फादर ड्रिंक करते थे। डॉमेस्टिक वायलेंस का क्या ही जिक्र करें। इस दौर में मैंने हर घर की महिलाओं को पिटते देखा था। बगल के अंकल वाइफ को खाना बनाने के स्टोव में लगाने वाली पिन को गर्म करके दाग देते थे। उनका लड़का और मैं दोस्त थे। ऐसी घटना मैंने उनके घर में कई बार देखी। आँटी चीखती पर आवाज बाहर नहीं जाती थी। अंकल ऐसा हम बच्चों के सामने करते थे। आवाज बाहर क्यों नहीं जाने देती थी आँटी उसके भी अलग कारण थे। अंकल कहते चिल्लाएगी तो और दाग दूंगा। और आँटी भी तो जानती थी बाहर सब इस बात के सिर्फ मजे लेंगे। पर यह तो सब घर का हाल था। कहीं कम कहीं ज्यादा। मुझे याद है एक बार दोस्त ने जो कि मेरी ही उम्र का था उसने इस बात का विरोध किया था। अंकल ने कहा था- यह दूसरी पिन तेरे लिए गर्म कर रहा हूँ। ऐसा सुनते ही मैं उसके घर से भाग आया था। 

शाम को मैं नींबू और धनिया बेचने निकल जाता था। जो गली थी पर सड़क जैसी थी उसपर गाड़ियां कम चलती थी। पैदल चलने वाले ज्यादा होते थे। उस सड़क पर कई पेड़ थे। एक बादाम के पेड़ के नीचे मैं बोरी बिछाकर नींबू और धनिया रख देता था। अक्सर बिना चप्पल के रहना अच्छा लगता था। चप्पल बोरी के नीचे रख देता था। एक दो बार ऐसा हुआ कि जाते वक्त बोरी और बचे नींबू धनिया उठा लिया। पर चप्पल लेना भूल गया। चप्पल गायब हो जाती थी। फादर के हाथों चप्पल के लिए पिट भी जाया करता। 

बोरी पर धनिया नींबू रखने के बाद कुछ ऐसा करता था- दोनों हाथों में पांच- पांच नींबू और बाएं हाथ पर कुछ धनिया के बंडल रखकर आते जाते लोगों को पूछकर बेचता था। थोड़ी देर साथ चलते हुए उन्हें भाव बताता, भाव कम कर देता पर कोशिश होती कि लोगों को बेचा जाए। लोग ले लेते थे। मेरे छोटा होने का इसमें प्रिविलेज था। मुझे पता है। अक्सर लोग तरस खाकर चीजें ले लेते। नहीं जरूरत होने पर भी ले लेते। कितने तो साथ चलने पर बुरा मान जाते। लोगों से दो तीन बार तो खरीदने के लिए आग्रह कर ही लेता था। कितने तो ऐसे चिढ़ जाते थे कि गालियां भी दे देते थे। पर यह सब उस समय कॉमन हो चुका था मेरे लिए। एक चीज याद आती है। एक आदमी ने एक बार धक्का दे दिया था। हाथ के कुछ नींबू छिटककर दूर जा गिरे। मैं गिरते गिरते बचा था। मेरे मुंह से निकला था- नहीं लेना है तो मत ले, धक्का काहे को देता है। 

यह सुनकर वह आदमी मेरी तरफ मुड़कर मेरी गर्दन पकड़ ली थी। पीछे से आ रही एक बूढ़ी महिला जो यह देख रही थी वह तेजी से आगे बढ़ उस आदमी का कॉलर पकड़ ली थी। महिला ने तेज आवाज में लताड़ने के अंदाज में कहा था- बच्चे पर क्या हाथ उठाता है रे... चल आगे बढ़ नहीं तो नोच लूंगी। 
वह आदमी आगे बढ़ गया था।

एक दिन नींबू और धनिया बोरी पर रखकर कुछ नींबू हाथ में लेकर टहल रहा था। एक कार आई और बोरी के बगल में पार्क कर दी गई। कुछ देर में वह कार जाने को हुई। कार आगे पीछे होते हुए नींबू पर चढ़ गई। आठ दस नींबू पूरी तरह से निचुड़ गए। गाड़ी से एक सेठनुमा व्यक्ति बाहर आया। उसने नींबुओं पर एक निगाह दौड़ाई। फिर कार अंदर बैठा और कार आगे बढ़ गई। 

यह मेरी उम्मीद से बिलकुल अलग हो गया था। मुझे लगा था- वह आदमी गाड़ी से उतरा है। अब नुकसान हुए नींबुओं को देखेगा और सॉरी कहकर उसके पैसे दे देगा। पर ऐसा कुछ न हुआ। 

यह अपमान जैसा था। उसने मुझसे बात करना भी उचित न समझा। बहुत देर तक मैं स्तब्ध से खड़ा मन के अंदर चल रहे उठा पटक से जूझता रहा। उसने आखिर एक भी शब्द क्यों नहीं कहे? उसके लिए नींबू तुच्छ सी चीज थी या मैं? आखिर ये कितने के नींबू नुकसान हुए होंगे? पांच रुपये के? दस रुपये के? अंदर ही अंदर अपमान सा महसूस कर रहा था मैं। मैं छोटा था पर इतने इमोशंस कैसे आ रहे थे न पता। 

वह गाड़ी से उतरा था। उसने फटे हुए नींबू भी देखे। पर कुछ बोला क्यों नहीं? पैसे कौन मांग रहा था.. सॉरी ही कह दिया होता। 

यह सब सोचते दस मिनट गुजर गए। हिम्मत नहीं हो रही थी कि किसी से आगे बढ़कर नींबू खरीदने के लिए पूछें। मन उदास था। पर बेचना तो था। मैं आगे बढ़ा। दिमाग में उस गाड़ी से उतरे हुए व्यक्ति का चेहरा जा ही न रहा था। कोई आता दिखा। मैं रोबोट की तरह आगे बढ़ा। मुंह से आवाज निकली- नींबू लेंगे आप ? 

सामने कौन था यह भी न पता। एक झोला आगे बढ़ा।
आवाज आई- सब नींबू डाल दो इसमें। 
मैंने दस नींबू झोले में डाल दिये। आवाज फिर आई- कितने पैसे हुए? 
मैंने सिर उठाया। एक लड़की थी। कपड़े छोटे थे। हाफ जीन्स थी। बाल खुले थे। उसने मुस्कुराते हुए फिर पूछा- कितने पैसे हुए ? 
मैंने कहा- दस रुपये। 

उसने पैसे निकालकर दिए। मेरे घने बालों में हाथ फिराते हुए कहने लगी- इतनी छोटी उम्र में काम करते हो ? यह पढ़ने की उम्र है। स्कूल जाते हो कि नहीं? मैंने कहा- सुबह जाता हूँ। 

उसनें मेरे हाथ पर बैग से निकालकर चॉकलेट रख दी। एक बार फिर मेरे बालों में हाथ फिराया और माथे को चूम लिया। जाते हुए कहने लगी- पढ़ाई मत छोड़ना और मुस्कुराकर चली गई। 

उसके इतना भर कर देने से मैं उस गाड़ी से निकले व्यक्ति को कबका भूल गया था। ऐसा लगा जैसे कोई घर का सदस्य स्नेह दे गया। सबकुछ बड़ा प्यारा सा लगने लगा। 

फादर की एक बात दिमाग में खटक रही थी- जो अक्सर वह छोटे कपड़ों में महिलाओं को देखकर कहते थे...

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