“पूर्व तड़ीपार” अध्यक्ष, हर हफ्ते हाजिरी लगाने वाली उम्मीदवार और दावा सत्याग्रह का!

Written by संजय कुमार सिंह | Published on: May 18, 2019
आज के अखबारों से क्या आपको पता चला कि मालेगांव ब्लास्ट केस में भाजपा उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर को हर हफ्ते कोर्ट में हाजिरी लगानी पड़ेगी। अदालत ने यह आदेश दिया है और पहली तारीख 20 मई को ही है। वैसे तो मैं किसी व्यक्ति को भगवान बनाने या अपराधी के बयान को महत्व देने में यकीन नहीं करता और मैं प्रज्ञा के बयानों को नजरअंदाज करना पसंद करूंगा। लेकिन उसके मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष की टिप्पणी आज ही के अखबारों में प्रमुखता से छपी है तो यह बताना जरूरी है कि आज ही एक खबर ऐसी है जिसे अखबारों ने प्रमुखता नहीं दी। जबकि सच पूछिए तो वही खबर है। बाकी तो कहने वालों के कारण महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री का प्रेस कांफ्रेंस में नहीं बोलना और यह बयान कि पार्टी उम्मीदवार को कभी माफ नहीं करूंगा – बाद की खबरें हैं।

आप जानते हैं कि मालेगांव ब्लास्ट मामले में जमानत पर छूटी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भारतीय जनता पार्टी ने भोपाल से अपना उम्मीदवार बनाया है और कल ही भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी फर्जी भगवा आतंक के खिलाफ (भाजपा का) 'सत्याग्रह’ है। ऐसा कहने के लिए यह जरूरी था कि भगवा आतंक फर्जी है यह बिल्कुल साफ होता। पर कल ही इस मामले में आया अदालत का आदेश अमित शाह के दावे को गलत साबित करता है और इसलिए वह बड़ी खबर है। पर अखबारों में उसे प्रमुखता नही मिली है। साध्वी प्रज्ञा से संबंधित अमित शाह और प्रधानमंत्री के बयान पहले पन्ने पर छापने के बाद अदालत के आदेश को अंदर के पन्ने पर छापना या नहीं छापना – कोई खास अंतर नहीं है। यही नहीं, साध्वी प्रज्ञा को अगर फर्जी मामले में फंसाया गया था तो फंसाने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी थी ताकि आगे किसी नागरिक को ऐसे नहीं फंसाया जाता। टिकट देना तो राजनीति है।

और साध्वी प्रज्ञा इसी राजनीति को आगे बढ़ाते हुए अपनी और पार्टी की रणनीति पर बढ़ते हुए आपत्तिजनक बयान दे रही हैं। एक चुनाव में कोई उम्मीदवार पार्टी को फंसाने वाला एक बयान दे सकता है। बार-बार नहीं देगा। तभी देगा जब वह जानेगा कि वह पार्टी की कमजोरी है या आदर्श है। भाजपा जैसी पार्टी अपने एक उम्मीदवार को नियंत्रित नहीं कर पाए और वह बार-बार मनमाना या पार्टी नीति के खिलाफ बयान दे यह मैं नहीं मानता। कारण बताओ नोटिस जारी करना और जवाब का इंतजार करना असल में समय काटना है। जब किसी अभियुक्त को टिकट दिया जा सकता है तो उसे उसकी पहली गलती पर ही कायदे से धमकाया जा सकता है और उसका बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। एक तरफ कारण बताओ नोटिस और दूसरी तरफ टिकट देने को सत्याग्रह कहना – साधारण नहीं है। मुझे नहीं पता कि जब उन्होंने इस सत्याग्रह की बात कही तो अदातल के आदेश की जानकारी थी कि नहीं।

आप जानते हैं कि प्रज्ञा को कोर्ट ने स्वास्थ्य कारणों से जमानत दी थी। जमानत मिलने के बाद भाजपा ने प्रज्ञा को भोपाल लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया और तभी से प्रज्ञा अपने विवादास्पद बयानों के लिए चर्चा में हैं। पार्टी जब कह रही है कि प्रज्ञा (और दूसरे लोगों को) भगवा आतंकवाद के फर्जी मामलों में फंसाया गया है तो अखबारों का काम था कि वे आपको पूरा मामला बताते और आप तय कर पाते कि कौन सही बोल रहा है। पर टिकट देने के बाद प्रज्ञा ने कहा दिया कि मामले की जांच करने वाले आईपीएस अधिकारी शहीद हेमंत करकरे की मौत उसके श्राप से हुई थी। वैसे तो यह बकवास है पर यह बयान हेमंत करकरे के खिलाफ भाजपा के अभियान का हिस्सा ही था और इस तरह शुरुआती जांच से लेकर जांच करने वाले अधिकारी को ही संदिग्ध बताने की कोशश की गई।

ज्यादातर मीडिया ने पूरा साथ दिया और सच बताने की कोशिश नहीं के बराबर हुई। 
आइए आज इस मौके पर इस मामले को भी जान लेते हैं और भले ही आप इस न जानते हों पर अखबारों में लोगों को इसकी जानकारी रखनी चाहिए और कम से कम प्रेस कांफ्रेंस में सवाल पूछने चाहिए ताकि एक आतंकवादी को टिकट देकर चुनाव लड़ाना सत्याग्रह न बने। हुआ यह था कि महाराष्ट्र के मालेगांव के अंजुमन चौक और भीखू चौक पर 2008 में रमजान के महीने में सिलसिलेवार बम धमाकों में छह लोगों की मौत हुई थी, जबकि 101 लोग घायल हुए थे। शुरूआती जांच में यह बात सामने आई थी कि इन धमाकों में एक मोटरसाइकिल का प्रयोग किया गया था और जांच में पता चला कि यह साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के नाम पर थी।

इस मामले में 13 मई 2016 को एनआईए द्वारा जारी के गयी एक नई चार्जशीट में रमेश शिवाजी उपाध्याय, समीर शरद कुलकर्णी, अजय राहिरकर, राकेश धावड़े, जगदीश महात्रे, कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित, सुधाकर द्विवेदी उर्फ स्वामी दयानंद पांडे सुधाकर चतुर्वेदी, रामचंद्र कालसांगरा और संदीप डांगे के खिलाफ पुख्ता सबूत होने का दावा किया था जबकि साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, शिव नारायण कालसांगरा, श्याम भवरलाल साहू, प्रवीण टक्कलकी, लोकेश शर्मा, धानसिंह चौधरी के खिलाफ मुकदमा चलाने लायक सबूत नहीं होने की बात कही गई। इसे इस तरह देखा जाना चाहिए कि अपराध हुआ है तो सरकार का काम अपराधी को पकड़ना और सजा दिलाना है। सत्तारूढ़ दल अगर कहती है कि जांच में ईमानदारी नहीं बरती गई और इसे भगवा आंतक का रूप दिया गया तो यह भी अपराध है और इसके लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान कर उनके खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए। यह नहीं हो सकता कि जांच करने वालों पर दबाव डालकर अभियुक्तों को तो बचा लिया जाए पर असली अपराधी को छोड़ दिया जाए या जांच को गलत दिशा देने वालों को बख्श दिया जाए।

आप देख रहे हैं कि भाजपा क्या कर रही है। संक्षेप में कह सकते हैं कि उसकी सारी गतिविधि (राजनीति) चुनाव करीब आने पर शुरू हुई है और इसके लिए वह झूठ बोलने से लेकर गलत तथ्यों का सहारा लेने से भी परहेज नहीं कर रही है। अखबारों का काम था उनका झूठ पकड़ना पर वे सरकार की सेवा में लगे हुए हैं। साध्वी प्रज्ञा को टिकट देने का बचाव करते हुए अमित शाह ने कहा, ''मैं कांग्रेस से पूछना चाहता हूं, कुछ लोगों को पहले समझौता ब्लास्ट मामले में गिरफ्तार किया गया था, जो लश्कर-ए-तैयबा से थे। भगवा आतंकवाद का एक फर्जी केस बनाया गया, जिसमें आरोपी को बरी कर दिया गया है।'' इस मामले में तथ्य यह है कि 20 मार्च 2019 को फैसला सुनाए जाने के बाद अखबारों में खबर छपी थी कि समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट केस के चारो अभियुक्त बरी हो गए हैं।

पंचकुला की स्पेशल राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) कोर्ट ने असीमानंद समेत चारों अभियुक्तों को बरी कर दिया है। धमाके के 11 साल बाद सभी अभियुक्तों का बरी हो जाना साबित करता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता कितनी कम है। इस मामले में कुल आठ अभियुक्त थे, इनमें से एक की मौत हो चुकी है, जबकि तीन को भगोड़ा घोषित किया जा चुका है। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपने लगाए आरोप को साबित नहीं कर सका और इस कारण सभी अभियुक्तों को बरी किया जा रहा है। 
ऐसे मामले में सभी अभियुक्तों की रिहाई पर भारतीय मीडिया में फॉलो अप नहीं के बराबर रहा है। अदालती फैसले की रिपोर्टिंग से जुड़े लोग जानते हैं कि पूरा विस्तृत लिखित फैसला बाद में आता है और लोगों को पता होगा कि फैसला वीरवार को आने वाला था। अगर असीमानंद समेत सभी अभियुक्तों को बरी किए जाने को मीडिया ने गंभीरता से लिया होता तो यह खबर और अखबारों में होनी चाहिए थी. पर ऐसा था नहीं। दूसरी ओर, केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के हवाले से अखबारों में छपा था कि इस मामले में अपील नहीं की जाएगी। मुझे तभी यह घोषणा जल्दबाजी में की गई लगी थी। एक गंभीर मामले में एनआईए की जांच और किसी को सजा न होना और सरकार का पहले ही कह देना कि अपील नहीं की जाएगी बेहद अटपटा है। यह नीचे के अधिकारियों के लिए इशारे की तरह काम करता है। फैसले से संबंधित इंडियन एक्सप्रेस की खबर का अनुवाद आज जनसत्ता के वेबसाइट पर है जो इस प्रकार है - समझौता ब्लास्ट: जज ने की एनआईए की खिंचाई, लिखा-सबसे मजबूत सबूत ही दबा गए।

20 मार्च को फैसला सुनाए जाने के बाद की एक खबर बीबीसी के पोर्टल पर टाइम्स टाइम्स ऑफ इंडिया के हवाले से है। इसमें कहा गया है, “यह पूछे जाने पर कि क्या अभियोजन पक्ष इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करेगा, उन्होंने (राजनाथ सिंह) कहा, नहीं, सरकार को क्यों अपील करनी चाहिए? इसका कोई मतलब नहीं है. राजनाथ सिंह ने इस मामले में नए सिरे से जाँच को भी ख़ारिज कर दिया. उन्होंने कहा, “एनआईए ने इस मामले की जाँच की। इसके बाद ही उसने आरोप पत्र दाखिल किया। अब जबकि कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुना दिया है, उस पर भरोसा किया जाना चाहिए।” समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के आरोपियों की रिहाई का आदेश देने वाले जज ने अपने फैसले में कहा है कि एनआईए सबसे मजबूत सबूत ही अदालत में पेश करने में नाकामयाब रही, साथ ही मामले की जांच में भी कई लापरवाही बरती गई। केन्द्रीय जांच एजेंसी एनआईए की खिंचाई करते हुए कहा कि ‘वह गहरे दुख और पीड़ा के साथ यह कर रहे हैं, क्योंकि एक नृशंस और हिंसक घटना में किसी को सजा नहीं मिली।’

दिलचस्प यह है कि आज के अखबारों ने भी लिखा है कि “बीजेपी अध्यक्ष ने इसके साथ ही कांग्रेस पर समझौता एक्सप्रेस केस को लेकर भी निशाना साधा है”। पर मामले की सच्चाई नहीं बताई है। असल में अंग्रेजी दैनिक द टेलीग्राफ की तरह काम करने के लिए योग्य लोगों और प्रतिभा की भी आवश्यकता होती है। लेकिन हिन्दी अखबारों में नौकरी करने अक्सर वही आता है जिसे और कहीं नौकरी नहीं मिलती। ऐसे लोगों से आप बहुत उम्मीद नहीं कर सकते हैं और भाजपा इसका पूरा लाभ उठा रही है। आज के अखबारों में इंडियन एक्सप्रेस और नवभारत टाइम्स ने साध्वी से संबंधित खबरों के साथ अदालत के इस आदेश को प्रमुखता से छापा है। नवभारत टाइम्स में यह खबर छोटी सी है पर है। बाकी अखबारों में यह भी नहीं दिखी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)

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