सुप्रीम कोर्ट द्वारा मेटरनिटी लीव प्रावधान की प्रगतिशील व्याख्या कामकाजी महिलाओं के लिए एक बड़ी जीत है

Written by सिदरा जावेद | Published on: September 17, 2022
शिशु देखभाल और मातृत्व अवकाश(मेटरनिटी लीव) देने का विषय और उद्देश्य उनकी उद्देश्यपूर्ण व्याख्या से ही हासिल होगा। मातृत्व अवकाश देने से महिला कर्मचारियों को अपना रोज़गार जारी रखने में मदद मिलती है।



अदालत के मुताबिक, "पारिवारिक संबंध घरेलू, अविवाहित पार्टनर्शिप या समलैंगिक संबंधों का रूप ले सकते हैं", सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ जिसमें न्यायमूर्ति डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ और ए.एस. बोपन्ना हैं, ने हाल ही में महिला अपीलकर्ता को मातृत्व राहत प्रदान करते हुए उक्त बात दोहराई।

अपीलकर्ता अपनी पहली शादी में पति से पैदा हुए जैविक बच्चों के लिए शिशु देखभाल अवकाश का लाभ उठा चुकी थी। इस बिना पर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता को मातृत्व अवकाश देने से इनकार कर दिया क्योंकि उसके पहले से दो जीवित बच्चे थे। उच्च न्यायालय की राय थी कि अपीलकर्ता के जैविक बच्चे को उसकी तीसरी संतान माना जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने, हालांकि, एक विरोधाभासी दृष्टिकोण अपनाया है और कहा कि "तथ्य यह है कि अपीलकर्ता के पति से हुई पहली शादी से दो जैविक बच्चे थे, इसलिए वह अपीलकर्ता को अपने खुद के एकमात्र जैविक बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश का लाभ उठाने के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा।" इसके अलावा, अदालत ने पाया कि एक परिवार को व्यापक रूप से "एक एकल, अपरिवर्तनीय इकाई के रूप में एक माँ और एक पिता (जो समय के साथ स्थिर रहते हैं) और उनके बच्चों के रूप में व्याख्या की जाती है। यह धारणा दोनों की उपेक्षा करती है, कई परिस्थितियां जो किसी के पारिवारिक ढांचे में बदलाव ला सकती हैं, और यह तथ्य कि कई परिवार इस अपेक्षा के अनुरूप नहीं होते हैं।

क़ानून का प्रश्न 

यहां शामिल कानून केंद्रीय सिविल सेवा (अवकाश) नियम, 1972 के तहत प्रदान किए गए चाइल्डकैअर अवकाश और मातृत्व अवकाश से संबंधित है। नियम 43-सी एक महिला सरकारी कर्मचारी को मातृत्व अवकाश/चाइल्डकैअर अवकाश प्रदान करता है, जिसके 18 वर्ष से कम उम्र के नाबालिग बच्चे हैं। दो से अधिक बच्चों की देखभाल करने के लिए अधिकतम दो वर्ष (730 दिन) की अवधि की छुट्टी दी जाती है। मातृत्व अवकाश/चाइल्ड केयर में बीमारी के समय और कानून के तहत बच्चे की जरूरतों का पालन-पोषण या देखभाल करना भी शामिल है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में उन लिंग भूमिकाओं और मानदंडों पर ध्यान दिया जो महिलाओं को अवैतनिक घरेलू श्रम की जिम्मेदारी का बोझ उठाने के लिए दबाव डालते हैं।

नियमावली का नियम 43 एक महिला सरकारी कर्मचारी को 180 दिनों की अवधि का मातृत्व अवकाश प्रदान करता है। छुट्टी उस महिला को दी जाती है जिसके दो से कम जीवित बच्चे हैं।

उच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि अपीलकर्ता अपनी पहली शादी से अपने पति के जैविक बच्चों के लिए चाइल्ड केयर लीव का लाभ उठा चुकी है इसलिए खुद के  जैविक बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश देने की याचिका को खारिज किया जाता है, इसलिए वह मातृत्व अवकाश की हकदार नहीं होगी। उनकी शादी के बाद, उनके दो जीवित बच्चे माने गए हैं। 

उद्देश्यपूर्ण व्याख्या

नागरिकों के लाभ के लिए बनाए गए क़ानून की उदारतापूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए। इस बात को न्यायपालिका ने बार-बार दोहराया है। एक क़ानून/अधिनियम जिसे उदारतापूर्वक नहीं समझा जाता है वह कभी भी अपने उद्देश्यों को हासिल नहीं कर पाएगा।

एक फैसले का उदाहरण लेते हुए, न्यायमूर्ति डॉ चंद्रचूड़ द्वारा लिखित निर्णय में, सुप्रीम कोर्ट ने के.एच. नज़र बनाम मैथ्यू के. जैकब और अन्य (2019) के फैसले पर भरोसा किया। जिसमें इस पर गौर किया गया कि, जब भी संभव हो, लाभकारी कानून के शाब्दिक अर्थ से बचा जाना चाहिए, और अदालत को कानून के इरादे की पहचान करनी चाहिए।

इसने बादशाह सौ बनाम उर्मिला बादशाह गोडसे और अन्य (2013) के अपने फैसले का भी जिक्र किया। जिसमें यह नोट किया गया था कि अदालत का कर्तव्य कानून के इरादे को समझना है और इसे उसके उद्देश्य को हासिल करने में सक्षम बनाना है।

कोर्ट का यह मानना कि समलैंगिक संबंध पारिवारिक संबंध होते हैं, वह उम्मीदों और स्वीकृति से भरा है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस तरह की टिप्पणियों से LGBTQ+ समुदाय को कोई बड़ी राहत नहीं मिलेगी, जब तक कि जल्द ही एन्कोडेड कानूनों द्वारा इसे समर्थन नहीं दिया जाता है।  

शिशु देखभाल अवकाश/चाइल्डकैअर लीव और मैटरनिटी लीव के प्रावधान लाभकारी कानून हैं। इस मदद को प्रदान करने की समझ और उद्देश्य उनकी उद्देश्यपूर्ण व्याख्या से ही हासिल होगा। नियमों के तहत मातृत्व अवकाश देना महिला कर्मचारियों को अपना रोज़गार को सुरक्षित रखने में कामयाब बनाएगा।

अशोका यूनिवर्सिटी के जेनपैक्ट सेंटर फॉर वूमेन लीडरशिप द्वारा 'प्रेडिकमेंट ऑफ रिटर्निंग मदर्स' शीर्षक से 2018 की एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में  नई-नई बनी सभी माताओं में से आधी ने अपनी नौकरी गंवा दी है, जिनमें से केवल 27 प्रतिशत ही वापस काम पर लौट पाई हैं। चाइल्डकैअर और मैटरनिटी लीव जैसे प्रावधानों के अस्तित्व के बाद भी, जो महिलाओं को उनकी नौकरी पर लौटने में सक्षम बनाते हैं,  प्रसव के बाद नौकरी छोड़ने वाली महिलाओं की संख्या अपेक्षाकृत बहुत अधिक है। इसलिए, यदि महिला कर्मचारियों को ये अवकाश और सुविधा के इस्तेमाल के उपाय नहीं दिए जाते हैं, तो ये संख्या निश्चित रूप से बढ़ जाएगी।

अवैतनिक शिशु अवकाश 

अपने फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने उन लिंग भूमिकाओं और मानदंडों पर ध्यान दिया जो महिलाओं को अवैतनिक घरेलू श्रम की जिम्मेदारी का बोझ उठाने के लिए दबाव डालते हैं। अवैतनिक घरेलू श्रम में बड़े पैमाने पर चाइल्डकैअर भी शामिल है।

हाल ही में लैंसेट पब्लिक हेल्थ जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, अवैतनिक श्रम के विभाजन में असमानता पुरुषों की तुलना में महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर भारी असर डालती है। अपने तत्काल फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के एक सर्वेक्षण का भी हवाला दिया जिसमें पता चला कि भारतीय महिलाएं अवैतनिक घरेलू श्रम पर एक दिन में 352 मिनट खर्च करती हैं, जो पुरुषों के समय के खर्च से 577 प्रतिशत अधिक है।

अदालत ने कहा कि, "हालांकि 1972 के नियमों के कुछ प्रावधानों ने महिलाओं को वैतनिक कार्यबल में प्रवेश करने में सक्षम बनाया है, फिर भी महिलाओं पर शिशु देखभाल की प्राथमिक जिम्मेदारी आमद है” इसलिए, मातृत्व और पितृत्व अवकाश और चाइल्डकैअर अवकाश जैसे लाभ आवश्यक हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता को चाइल्डकैअर लीव देने से, वह नियमों के नियम 43 के तहत मैटरनिटी लीव से वंचित नहीं होनी चाहिए।

एक 'परिवार' की व्याख्या करना

न्यायालय का यह मानना है कि समलैंगिक संबंध पारिवारिक संबंध बनाते हैं, कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है, लेकिन यह निर्णय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो उम्मीद और स्वीकृति से भरा है।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की इस तरह की टिप्पणियों से LGBTQ+ समुदाय को कोई बड़ी राहत तब तक नहीं मिलेगी, जब तक कि जल्द ही एन्कोडेड कानूनों द्वारा इसाका समर्थन न हो। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि "प्यार और परिवारों की ये अभिव्यक्तियाँ विशिष्ट नहीं हो सकती हैं, लेकिन वे अपने पारंपरिक समकक्षों की तरह वास्तविक हैं।" भारत में, सम्मान और अखंडता को एक परिवार के विचार के साथ जटिल रूप से बुना जाता है।

समलैंगिक रिश्तों में सभी लोग शादी करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। कुछ जोड़ों को अब भी दोस्त या भाई-बहन होने का नाटक करना पड़ता है जबकि वे एक साथ अपने घरों में बसर करने जाते हैं। समलैंगिक संबंधों में विवाह अभी भी अमीरों और कुलीन वर्ग का एक विशेषाधिकार बना हुआ है।

अदालत का यह मानना कि "पारिवारिक इकाई की ऐसी असामान्य अभिव्यक्तियाँ न केवल कानून के तहत सुरक्षा, बल्कि सामाजिक कल्याण कानून के तहत उपलब्ध लाभों के लिए भी समान रूप से योग्य हैं" यह के एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की सामाजिक-कानूनी स्वीकृति को एक सकारात्मक स्वर देती है, जबकि  जमीनी स्तर पर अभी भी बहुत काम करना बाकी है।

सौजन्य: द लीफ़लेट 

महेश कुमार द्वारा अनुवादित

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