यूरोप के पेरिस, नीस और विएना शहरों में इस्लाम और उसके पैगंबर के नाम पर हाल में हुई हत्याओं के जवाब में तथाकथित उदारवादी मुसलमानों (मॉडरेट मुस्लिम्स) की ओर से जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आयी हैं उनसे तो यही लगता है कि वह किस बुरी तरह सही और ग़लत की सीमा पर फंसे हुए हैं। मुसलमानों द्वारा बर्बर हत्या या आतंकी हमले की हर ताजा हरकत के बाद, उदारवादी मुस्लिम एक सांस में वारदात की निंदा करता है, और अगली सांस में इस सफाई में लग जाता है कि इन हत्याओं का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है।
वह कुरान की कुछ आयतों और अपने हिसाब से चुनी कुछ हदीसों पर ज़ोर देकर साबित कर देना चाहता है कि 'इस्लाम का अर्थ शांति है’। पर मुश्किल यह है कि उसका दूसरा, दायरे के विपरीत बिंदु पर बैठा सहधर्मी कुछ दूसरी हदीसों और आयतों को अपनी विध्वंसक कार्यवाइयों को सही ठहराने के लिए इस्तेमाल करता है। बार-बार "इस्लाम यानि शांति" का मंत्र जाप कोई समाधान नहीं है क्योंकि वह इससे इस यक्ष प्रश्न का जवाब नहीं दे पाता : यदि उसका स्पष्टीकरण सही है तो दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर इतनी हिंसा क्यों हो रही है?
ईरानी-अमेरिकी धार्मिक विद्वान और इस्लाम तथा ईसाई धर्म पर कई पुस्तकों के लेखक, रेज़ा असलन का मानना है कि इस्लाम न तो शांति का मज़हब है और न ही हिंसा का, बल्कि दूसरे धर्मों की तरह इस्लाम के मानने वाले ही तय करते हैं कि आखिर इस्लाम क्या है? दक्षिण अफ्रीका के एक धर्मशास्त्री और इमाम, फरीद एसैक, लिखते हैं: "और जो भी हो, अन्य धर्मों की तरह इस्लाम भी हमारी और आपकी व्याख्या के मुताबिक है। उसी व्याख्या को नज़र में रखकर हम उसका पालन करते हैं और एक दूसरे से विमर्श और बहस करते हैं। 'शांति के दूत' महात्मा गांधी ने गीता से अपनी प्रेरणा प्राप्त की थी और उनके हत्यारे, नाथूराम गोडसे, ने भी। कुरान के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है।
उदारवादी मुस्लिम को गंभीरता से तब लिया जायेगा जब वह एक 'सच्चा' या 'असली इस्लाम' की धुन में गुम रहने के बजाय कई जीते जागते इस्लामों (lived Islams) की वास्तविकता को ईमानदारी से संबोधित करने लगे। क्योंकि वह ऐसा करने से कतराता है इसलिए दुनिया यह समझती है कि वह वास्तव में बस इस्लाम का सफाई वकील (Islam apologist) है जो धर्म के नाम पर हिंसा के कारण अपने धर्म (जीवित और शाब्दिक) की तरफ बिलकुल ध्यान न देते हुए बाकी अनेक कारण ढूंड निकालता है: वह व्हाटअबाउटेरी (whataboutery, 'चूंकि और इसलिये' वाली दलील) का सहारा लेता है, हिंसा के पीछे के 'मूल कारण' की तरफ इशारा करता है, पश्चिमी पाखंड और दोहरेपन को उजागर करता है। और वो वह प्रश्न उठाता है जो उसके अनुसार सभी प्रश्नों की जननी है: क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कोई सीमा नहीं है? आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी अगर कोई आपके पिता का अपमान करे?
•इनकी चूंकि और इसलिए वाली वकालत: बौद्धों द्वारा हिंसा के बारे में क्या कहेंगे? जवाब आसान है : श्रीलंका और म्यांमार के बहुत से बौद्धों के दिलों में नफरत है और उनके हाथ खून से रंगे हैं; लेकिन माफ़ करें, वह बुद्ध के नाम पर हत्या नहीं करते।
•सारी मुस्लिम हिंसा के पीछे मूल कारण की बात: पश्चिम की भू-राजनीति, उपनिवेशवाद, नव-उपनिवेशवाद आदि में मूल कारण देखें, इस्लाम को छोड़कर कहीं भी देखें। यह ऐसी दलील है जिसे स्वघोषित उदारवादी मुसलमानों ने कई सारे वामपंथी बुद्धिजीवियों से उधार लिया है। इस दलील पर ऑस्ट्रेलिया निवासी लेबनानी शिक्षाविद ग़स्सान हेज ने फेसबुक पर कहा है: “यदि पेरिस और नीस में हुए भीषण आतंकवादी हमलों पर आपकी पहली प्रतिक्रिया यह है कि फ्रांसीसी उपनिवेशवाद (colonialism) और नव-उपनिवेशवाद (post-colonialism) के हिंसक और नस्लवादी इतिहास को न भूलें तो आप नैतिक रूप से दिवालिया हैं।”
• अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं: यहां उदारवादी मुस्लिम पूरे उत्साह से 'रहस्योद्घटित' करता है कि कैसे वर्तमान में पैगंबर मोहम्मद के कार्टून विवाद और इस्लाम तथा पैगंबर के प्रति पश्चिमी ईसाइयों की ऐतिहासिक दुश्मनी के बीच एक गहरा सम्बन्ध है। हमें बताया जाता है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के शोर-शराबे की आड़ में पश्चिम इस्लाम विरोध फैलाने के कपटपूर्ण एजेंडे का एक हिस्सा मात्र है। इसके अलावा ये तथाकथित उदारवादी पश्चिमी दोहरे मानदंड की दलील पर सवाल करते हैं कि ये लोग बोलने की आज़ादी के नाम पर सिर्फ मुसलमानों को ही निशाना क्यों बनाते है? (अगर दोहरे मानदंड की ही बात करनी हो तो इन सफाई वकीलों से यह पूछा जा सकता है कि कौन किसको आईना दिखा रहा है?)
क्या उदारवादी मुसलमानों को खबर है कि यूरोप के बाकी मुल्कों की तरह फ्रांस में भी नस्लवाद और धर्म-आधारित 'घृणा अपराधों' के खिलाफ कानून हैं? यहां भी घृणा भाषण (हेट स्पीच) कानूनन जुर्म है। ये कानून व्यक्ति तथा समूह विशेष को बदनाम या अपमानित करने वाले तत्वों से बचाते हैं जो उन्हें जाति, राष्ट्र, धर्म, लिंग, यौन भिन्नता और रंग आदि के आधार पर निशाना बनाते हैं। कानून किसी भी ऐसे प्रचार को जुर्म मानता है जिसका उद्देश्य किसी जाति, राष्ट्र, धर्म तथा लिंग आदि के प्रति भेदभाव उकसाना हो।
सो हाँ, फ्रांस में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीमा निर्धारित है। लेकिन वहाँ बुनियादी सोच यह है कि मौलिक मानवीय अधिकार इंसानों के लिए हैं, विचारों के लिए नहीं... आप और आपके परिजनों को फ्रांसीसी कानून का सुरक्षा कवच हासिल है क्योंकि आप इंसानों की व्याख्या में शामिल हैं और भगवान, देव, पैगम्बर वगैरह विचार की व्याख्या में आते हैं। एक आधारभूत सच्चाई यह भी है कि आक्षेप के अधिकार बिना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अर्थहीन है। आक्षेप की फ्रांसीसी परिभाषा में न केवल संदेह, प्रश्न, आलोचना, उपहास, मजाक और उकसाना है बल्कि अपमान जनक शब्दों और भड़काऊ भाषण का इस्तेमाल भी उसमें शामिल है। क्या पैगंबर मोहम्मद ने अपने ही कबीले के लोगों के सामने ऐसी बातें नहीं की थीं जो उन लोगों के अनुसार आक्षेप जनक थीं?
मुस्लिम उदारवादियो, आप ही नहीं, पश्चिम देशों में भी बहुत सारे लोग पैगंबर के कार्टून को बेहद अपमानजनक और निंदनीय मानते हैं। बस उनका विरोध का तरीका अलग है। अनेक मुस्लिम बहुल राज्यों के प्रमुखों की हैरान कर देने वाली प्रतिक्रिया पर आपकी मुकम्मल चुप्पी लिव्ड इस्लाम (lived Islam) की उस बीमारी की तरफ इशारा करती है जिससे आप भी ग्रस्त हैं। उपरोक्त किसी भी प्रमुख ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि पेरिस और वियना में हुई हिंसा की जड़ समग्र मुस्लिम जगत के इस विश्वास में निहित है कि इस्लाम ईश-निंदा (blasphemy) और धर्मत्याग (apostasy) के लिए मौत की सजा का हुक्म देता है। याद कीजिए, सलमान तासीर, पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर, को जिनकी उनके एक अंगरक्षक, मलिक मुमताज़ कादरी ने जनवरी 2011 में इसलिए हत्या कर दी थी कि उन्होंने अपने देश के कुख्यात ईश निंदा कानून की समीक्षा करने की बात की थी।
उदारवादी मुसलमानो, आप भी उन राष्ट्राध्यक्षों की तरह मुस्लिम बीमारी की जड़ तक जाने की हिम्मत नहीं करते जो सार्वजनिक रूप से ईशनिंदा और धर्मत्याग कानूनों को खत्म करने की ज़रुरत पर बात करने से कतराते हैं। फिर दूसरों को दोष क्यों दें, अगर आप उन्हें इस्लाम के सफाई वकील (अपोलॉजिस्ट) से ज्यादा कुछ नहीं दिखते हैं?
वह कुरान की कुछ आयतों और अपने हिसाब से चुनी कुछ हदीसों पर ज़ोर देकर साबित कर देना चाहता है कि 'इस्लाम का अर्थ शांति है’। पर मुश्किल यह है कि उसका दूसरा, दायरे के विपरीत बिंदु पर बैठा सहधर्मी कुछ दूसरी हदीसों और आयतों को अपनी विध्वंसक कार्यवाइयों को सही ठहराने के लिए इस्तेमाल करता है। बार-बार "इस्लाम यानि शांति" का मंत्र जाप कोई समाधान नहीं है क्योंकि वह इससे इस यक्ष प्रश्न का जवाब नहीं दे पाता : यदि उसका स्पष्टीकरण सही है तो दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर इतनी हिंसा क्यों हो रही है?
ईरानी-अमेरिकी धार्मिक विद्वान और इस्लाम तथा ईसाई धर्म पर कई पुस्तकों के लेखक, रेज़ा असलन का मानना है कि इस्लाम न तो शांति का मज़हब है और न ही हिंसा का, बल्कि दूसरे धर्मों की तरह इस्लाम के मानने वाले ही तय करते हैं कि आखिर इस्लाम क्या है? दक्षिण अफ्रीका के एक धर्मशास्त्री और इमाम, फरीद एसैक, लिखते हैं: "और जो भी हो, अन्य धर्मों की तरह इस्लाम भी हमारी और आपकी व्याख्या के मुताबिक है। उसी व्याख्या को नज़र में रखकर हम उसका पालन करते हैं और एक दूसरे से विमर्श और बहस करते हैं। 'शांति के दूत' महात्मा गांधी ने गीता से अपनी प्रेरणा प्राप्त की थी और उनके हत्यारे, नाथूराम गोडसे, ने भी। कुरान के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है।
उदारवादी मुस्लिम को गंभीरता से तब लिया जायेगा जब वह एक 'सच्चा' या 'असली इस्लाम' की धुन में गुम रहने के बजाय कई जीते जागते इस्लामों (lived Islams) की वास्तविकता को ईमानदारी से संबोधित करने लगे। क्योंकि वह ऐसा करने से कतराता है इसलिए दुनिया यह समझती है कि वह वास्तव में बस इस्लाम का सफाई वकील (Islam apologist) है जो धर्म के नाम पर हिंसा के कारण अपने धर्म (जीवित और शाब्दिक) की तरफ बिलकुल ध्यान न देते हुए बाकी अनेक कारण ढूंड निकालता है: वह व्हाटअबाउटेरी (whataboutery, 'चूंकि और इसलिये' वाली दलील) का सहारा लेता है, हिंसा के पीछे के 'मूल कारण' की तरफ इशारा करता है, पश्चिमी पाखंड और दोहरेपन को उजागर करता है। और वो वह प्रश्न उठाता है जो उसके अनुसार सभी प्रश्नों की जननी है: क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कोई सीमा नहीं है? आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी अगर कोई आपके पिता का अपमान करे?
•इनकी चूंकि और इसलिए वाली वकालत: बौद्धों द्वारा हिंसा के बारे में क्या कहेंगे? जवाब आसान है : श्रीलंका और म्यांमार के बहुत से बौद्धों के दिलों में नफरत है और उनके हाथ खून से रंगे हैं; लेकिन माफ़ करें, वह बुद्ध के नाम पर हत्या नहीं करते।
•सारी मुस्लिम हिंसा के पीछे मूल कारण की बात: पश्चिम की भू-राजनीति, उपनिवेशवाद, नव-उपनिवेशवाद आदि में मूल कारण देखें, इस्लाम को छोड़कर कहीं भी देखें। यह ऐसी दलील है जिसे स्वघोषित उदारवादी मुसलमानों ने कई सारे वामपंथी बुद्धिजीवियों से उधार लिया है। इस दलील पर ऑस्ट्रेलिया निवासी लेबनानी शिक्षाविद ग़स्सान हेज ने फेसबुक पर कहा है: “यदि पेरिस और नीस में हुए भीषण आतंकवादी हमलों पर आपकी पहली प्रतिक्रिया यह है कि फ्रांसीसी उपनिवेशवाद (colonialism) और नव-उपनिवेशवाद (post-colonialism) के हिंसक और नस्लवादी इतिहास को न भूलें तो आप नैतिक रूप से दिवालिया हैं।”
• अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं: यहां उदारवादी मुस्लिम पूरे उत्साह से 'रहस्योद्घटित' करता है कि कैसे वर्तमान में पैगंबर मोहम्मद के कार्टून विवाद और इस्लाम तथा पैगंबर के प्रति पश्चिमी ईसाइयों की ऐतिहासिक दुश्मनी के बीच एक गहरा सम्बन्ध है। हमें बताया जाता है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के शोर-शराबे की आड़ में पश्चिम इस्लाम विरोध फैलाने के कपटपूर्ण एजेंडे का एक हिस्सा मात्र है। इसके अलावा ये तथाकथित उदारवादी पश्चिमी दोहरे मानदंड की दलील पर सवाल करते हैं कि ये लोग बोलने की आज़ादी के नाम पर सिर्फ मुसलमानों को ही निशाना क्यों बनाते है? (अगर दोहरे मानदंड की ही बात करनी हो तो इन सफाई वकीलों से यह पूछा जा सकता है कि कौन किसको आईना दिखा रहा है?)
क्या उदारवादी मुसलमानों को खबर है कि यूरोप के बाकी मुल्कों की तरह फ्रांस में भी नस्लवाद और धर्म-आधारित 'घृणा अपराधों' के खिलाफ कानून हैं? यहां भी घृणा भाषण (हेट स्पीच) कानूनन जुर्म है। ये कानून व्यक्ति तथा समूह विशेष को बदनाम या अपमानित करने वाले तत्वों से बचाते हैं जो उन्हें जाति, राष्ट्र, धर्म, लिंग, यौन भिन्नता और रंग आदि के आधार पर निशाना बनाते हैं। कानून किसी भी ऐसे प्रचार को जुर्म मानता है जिसका उद्देश्य किसी जाति, राष्ट्र, धर्म तथा लिंग आदि के प्रति भेदभाव उकसाना हो।
सो हाँ, फ्रांस में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीमा निर्धारित है। लेकिन वहाँ बुनियादी सोच यह है कि मौलिक मानवीय अधिकार इंसानों के लिए हैं, विचारों के लिए नहीं... आप और आपके परिजनों को फ्रांसीसी कानून का सुरक्षा कवच हासिल है क्योंकि आप इंसानों की व्याख्या में शामिल हैं और भगवान, देव, पैगम्बर वगैरह विचार की व्याख्या में आते हैं। एक आधारभूत सच्चाई यह भी है कि आक्षेप के अधिकार बिना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अर्थहीन है। आक्षेप की फ्रांसीसी परिभाषा में न केवल संदेह, प्रश्न, आलोचना, उपहास, मजाक और उकसाना है बल्कि अपमान जनक शब्दों और भड़काऊ भाषण का इस्तेमाल भी उसमें शामिल है। क्या पैगंबर मोहम्मद ने अपने ही कबीले के लोगों के सामने ऐसी बातें नहीं की थीं जो उन लोगों के अनुसार आक्षेप जनक थीं?
मुस्लिम उदारवादियो, आप ही नहीं, पश्चिम देशों में भी बहुत सारे लोग पैगंबर के कार्टून को बेहद अपमानजनक और निंदनीय मानते हैं। बस उनका विरोध का तरीका अलग है। अनेक मुस्लिम बहुल राज्यों के प्रमुखों की हैरान कर देने वाली प्रतिक्रिया पर आपकी मुकम्मल चुप्पी लिव्ड इस्लाम (lived Islam) की उस बीमारी की तरफ इशारा करती है जिससे आप भी ग्रस्त हैं। उपरोक्त किसी भी प्रमुख ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि पेरिस और वियना में हुई हिंसा की जड़ समग्र मुस्लिम जगत के इस विश्वास में निहित है कि इस्लाम ईश-निंदा (blasphemy) और धर्मत्याग (apostasy) के लिए मौत की सजा का हुक्म देता है। याद कीजिए, सलमान तासीर, पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर, को जिनकी उनके एक अंगरक्षक, मलिक मुमताज़ कादरी ने जनवरी 2011 में इसलिए हत्या कर दी थी कि उन्होंने अपने देश के कुख्यात ईश निंदा कानून की समीक्षा करने की बात की थी।
उदारवादी मुसलमानो, आप भी उन राष्ट्राध्यक्षों की तरह मुस्लिम बीमारी की जड़ तक जाने की हिम्मत नहीं करते जो सार्वजनिक रूप से ईशनिंदा और धर्मत्याग कानूनों को खत्म करने की ज़रुरत पर बात करने से कतराते हैं। फिर दूसरों को दोष क्यों दें, अगर आप उन्हें इस्लाम के सफाई वकील (अपोलॉजिस्ट) से ज्यादा कुछ नहीं दिखते हैं?