झारखण्ड लौट रहे मज़दूरों की प्रमुख समस्या है रोज़गार की कमी- ज्यां द्रेज

Written by Jean Drèze | Published on: June 10, 2020
कल 250 से अधिक लोगों ने झारखण्ड जनाधिकार महासभा द्वारा आयोजित एक वेबिनार में भाग लिया, जिसमें झारखण्ड के करीब पंद्रह मज़दूरों ने तालाबंदी के दौरान अपनी समस्याओं और सरकार से अपनी माँगों को सांझा किया। अन्य नौ मज़दूर खराब इंटरनेट कनेक्शन, बिजली न होने के कारण फ़ोन में कम बैटरी, ज़ूम न चला पाने जैसी तकनीकी कठिनाइयाँ के कारण  नहीं पाए।



जब तालाबंदी लागू हुई, तब झारखण्ड के लाखों मज़दूर देश के अन्य अधिक समृद्ध राज्यों में काम कर रहे थे। मार्च के अंत में जब आर्थिक गतिविधियों पर रोक लगा दी गई, तो कई मज़दूरों को आर्थिक असुरक्षा का सामना करना पड़ा। धनबाद के छब्बीस वर्षीय सुदामा शरण केवट, जो कोयम्बटूर में स्पिनिंग मशीन बनाने की फैक्ट्री में काम करते थे, उन्हें तालाबंदी के दौरान उनकी मज़दूरी नहीं मिली। इसके कारण उन्हें दो-तीन दिन भूखा भी रहना पड़ा, जबतक उन्हें नकद सहायता प्राप्त नहीं हुई।

बोकारो के सैंतीस वर्षीय सोहराय मरांडी कर्णाटक में आयरन कास्टिंग प्लांट में काम कर रहे थे। तालाबंदी लागू होने के बाद, उनका काम बंद कर दिया गया। जब उनसे पूछा गया कि क्या तालाबंदी के दौरान उन्हें भोजन का सहयोग मिला, तो उन्होंने कहा, 'किसका  खा रहे थे, पता नहीं। बाद में पता चला कि हमारा ही पैसा कट गया'। खाने का पैसा उनकी बकाया मज़दूरी में से काट लिया गया। उन्हें तालाबंदी के दौरान मज़दूरी भी नहीं मिली।

सरकारी घोषणाओं के आधार पर उन्हें लगा कि उनके जैसे मज़दूरों को काम न कर पाने की अवधि के लिए नकद सहायता दी जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ। झारखण्ड सरकार के एप्लीकेशन में पंजीकरण करने के बावजूद उन्हें अभी तक सरकार द्वारा घोषित रु 2000 की राशि नहीं मिली है। घरेलु कामगार संगठन की रेनुका ने बताया कि तालाबंदी के दौरान अधिकांच घरेलु कामगार काम नहीं कर पाए, जिसके कारण उन्हें उनकी मज़दूरी भी नहीं मिली। कुछ को तो काम से भी निकाल दिया गया।

जब सरकार ने अंतर-राज्यीय आवागमन की सहमती दी, तब फँसे हुए मज़दूरों ने घर वापस जाना शुरू कर दिया था। वे ट्रक, भाड़े के गाड़ी, बस, ट्रेन, हवाई जहाज में या पैदल भी वापस लौटे। गढ़वा के विजय कोरवा और संजय कोरवा ने बताया कि उन्होंने दिल्ली से इलाहाबाद आने के लिए एक ट्रक वाले को रु 900 प्रति व्यक्ति देना पड़ा था, उसके बाद उन्हें घर पहुँचने के लिए 300 किलोमीटर से अधिक चलना पड़ा था। बोकारो के एतोरम टुडू को केरल से जसीडीह आने के लिए ट्रेन का भाड़ा रु 900 देना पड़ा था। कई अन्य मज़दूरों को भी अपनी यात्रा व्यवस्था के लिए भुगतान करना पड़ा था, और यात्रा के बारे में उन्हें कुछ घंटों पहले ही सूचना मिली। 

जो मज़दूर अपने निवास स्थल के करीब काम कर रहे थे, उनके लिए भी तालाबंदी काफ़ी कष्टदायक थी। बुधनी देवी, जो कि 10 वर्ष की उम्र से एक सफाई कर्मचारी हैं, उनको धनबाद नगरपालिका से रु 3000 प्रति माह मिलते थे। लेकिन तालाबंदी के बाद, वो और उनके पति दोनों बेरोज़गार हो गए। उनके जन धन खाते में रु 500 तो आया है, पर वो दो दिन से अधिक नहीं चलता।

हालाँकि अधिकतर मज़दूर अब वापस घर आ चुके हैं, उनकी समस्याएँ धरी की धरी हैं। उन्नीस वर्षीय सपना दडका, जो मुंबई में एक घरेलु कामगार थी, अब चाईबासा वापस आ चुकी हैं और एक बुरी स्थिति में चल रहे क्वारंटाइन सेंटर में हैं, जिसमे बिस्तर नहीं है और खाना देरी से मिलता है। वे अपने माता पिता से मिलने को काफी उत्सुक हैं! घर में क्वारंटाइन किये गए कई मज़दूरों को सूखा राशन का पैकेट नहीं मिला है, जैसा कि राज्य सरकार ने घोषणा किया था।

जिन लोगों ने क्वारंटाइन ख़त्म कर लिया, उनके सामने बेरोज़गारी खड़ी है। हज़ारीबाग़ से अमोल तिग्गा, बोकारो से एतोराम टुडू और गोड्डा से मो। गुलज़ार ने अपने अपने पंचायत में नरेगा काम की कमी की बात रखी। गुलज़ार ने कहा कि, “मज़बूरी में बाहर जाना पड़ता है। अगर यहाँ काम मिलेगा तो क्यों बाहर जाएंगे। बाहर में कितना मुश्किल होता है, ये हमलोग जानते हैं।”

सभी मज़दूरों के यही भाव थे।  पप्पू सिंह, जो लातेहार के लोक कलाकार हैं और अभी तक लुधियाना में फँसे हुए हैं, उन्होंने भी यही भाव अपने जोशीले गीत के माध्यम से साझा किया। सुदामा शरण केवट ने कहा कि झारखण्ड प्राकृतिक संसाधनों में धनी होने के बावजूद, राज्य के मज़दूरों को काम की तलाश में बाहर जाने के लिए मज़बूर होना पड़ता है। पलामू के इक्कीस वर्षीय गुड्डू यादव जो तिरुनेलवेली (तमिल नाडु) में फंसे हुए थे, उन्होंने कहा कि वे थोड़ा कम भी कमाकर परन्तु अपने गाँव में काम करना पसंद करेंगे, यदि काम उपलब्ध कराया जाए। उनके घर पर बूढ़े माँ - बाप हैं। तीस वर्षीय सूरज टोप्पो, जो कि नरेगा मज़दूर हैं, उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि नरेगा मज़दूरी दर रु 194 से बढ़ा कर रु 300, जितना शहरी क्षेत्रो में दिया जाता है, कर दिया जाए। उन्होंने यह भी जोड़ा कि जनवरी में उनके द्वारा किये गए काम का मज़दूरी अभी तक बकाया है।

झारखण्ड किसान परिषद् के अम्बिका यादव सरकार से अनुरोध किया कि कृषि में निवेश बढ़ाया जाए। उन्होंने समझाया कि किसान रोपन मॉनसून की शुरुआत के दस दिन पहले कर देते हैं, जिसकी उम्मीद है 10 जून को होगी। परन्तु, कई किसान इस बार ये नहीं कर पाएंगे चूँकि उनके पास बीज खरीदने के लिए पैसे नहीं है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि प्रधान मंत्री किसान योजना की राशि बिलकुल अपर्याप्त है। बुधनी देवी ने सुझाव दिया कि जन वितरण प्रणाली से मिलने वाले अनाज की मात्रा बढ़ानी चाहिए, और मासिक राशन में दाल और खाद्य तेल भी मिलना चाहिए।

वेबिनार ने तालाबंदी के पहले से चली आ रही मज़दूरों के चरम समस्याओं पर प्रकाश डाला। गरीबी के कारण, कई लोगों को कम उम्र में पढाई छोड़कर काम करना पड़ा था। पर झारखण्ड में रोज़गार की कमी के चलते कइयों को देश के अन्य राज्यों में पलायन करना पड़ा। कइयों को वैधानिक न्यूनतम दर से कम मज़दूरी मिलती है और अपने ठेकेदार और नियोक्ता के मर्ज़ी के अनुसार काम करना पड़ता है।

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