मप्र का काला कानून: जबरा मारे और रोने भी न दे

Written by जावेद अनीस | Published on: June 7, 2016


हाल के दिनों में मध्यप्रदेश  में कुछ ऐसे कानून और पाबंदियां लगायी गयी हैं जो नागरिकों के संवेधानिक अधिकारों का हनन करते हैं.पिछले साल जब व्यापम की वजह से मध्य प्रदेश की पूरी दुनिया में चर्चा हो रही थी तो उस दौरान शिवराज सरकार द्वारा एक ऐसा विधेयक पास कराया गया जो  कोर्ट में याचिका लगाने पर बंदिशें लगाती है, इस विधयेक का नाम है “‘तंग करने वाला मुकदमेबाजी (निवारण) विधेयक 2015”( Madhya Pradesh Vexatious Litigation (Prevention) Bill, 2015). मध्यप्रदेश सरकार ने इस विधेयक को विधानसभा में  बिना किसी बहस के ही पारित करवाया लिया था  और इसे कानून का रूप देने के लिए तुरत-फुरत अधिसूचना भी जारी की गई, अदालत का समय बचाने और फिजूल की याचिकाएं दायर होने के नाम पर लाया गया यह एक ऐसा कानून है जिसे विपक्षी दल और सामाजिक कार्यकर्ता संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ मानते हुए इसे  नागरिकों के जनहित याचिका लगाने के अधिकार को नियंत्रित करने वाला ऐसा कानून बताया  है जिसका मकसद सत्ताधारी नेताओं और अन्य प्रभावशाली लोगों के भ्रष्टाचार और गैरकानूनी कार्यों के खिलाफ नागरिको को कोर्ट जाने से रोकना है. उनका कहना है कि इस कानून के माध्यम से सरकार को यह अधिकार मिल गया है कि वह ऐसे लोगों को नियंत्रित करे जो जनहित में न्यायपालिका के सामने बार-बार याचिका लगाते हैं. प्रदेश के वकीलों  और संविधान  के जानकारों ने सरकार के इस कदम को तानाशाही करार दिया है. इस कानून के अनुसार अब न्यायपालिका राज्य सरकार के महाधिवक्ता के द्वारा दी गई राय के आधार पर तय करेगी कि किसी व्यक्ति को जनहित याचिका या अन्य मामले लगाने का अधिकार है या नहीं. यदि यह पाया जाता है कि कोई व्यक्ति बार-बार इस तरह की जनहित याचिका लगाता है तो उसकी इस प्रवृत्ति पर प्रतिबंध लगाया जा सकेगा। एक बार न्यायपालिका ने ऐसा प्रतिबंध लगा दिया तो उसे उस निर्णय के विरूद्ध अपील करने का अधिकार भी नहीं होगा. न्यायालय में मामला दायर करने के लिए पक्षकार को यह साबित करना अनिवार्य होगा कि उसने यह प्रकरण तंग या परेशान करने की भावना से नहीं लगाया है और उसके पास इस मामले से संबंधित पुख्ता दस्तावेज मौजूद हैं.

मध्यप्रदेश में लोकतान्त्रिक ढंग से होने वाले प्रदर्शनों पर भी रोक लगाने की कोशिशें हो रही हैं  राजधानी भोपाल में धरनास्थल की जगह निश्चित कर दी गयी है और अब धरना बंद पार्कों में ही किया जा सकता है, पूरे प्रदेश में जलूस निकालने, धरना देने, प्रदर्शन , आमसभाएं में भांति भांति की अड़चने पैदा करने को कोशिश की जा रही हैं,  इस तरह की एक घटना  सिंगरौली की है जहाँ बीते 18 जनवरी को माकपा के जिला सचिव द्वारा जब सूखा राहत में गड़बड़ी, बिजली बिलों की जबरिया वसूली, एक उद्योग के लिए जमीन अधिग्रहित करने के मामले में किये गए फर्जीवाड़े जैसे  विषयों को लेकर जिलाधीश कार्यालय पर प्रदर्शन करके ज्ञापन सौंपने की सूचना के साथ धीमी आवाज में लाउड स्पीकर के उपयोग की अनुमति माँगी गयी  तो इसके जवाब में कलेक्टर ने उन्हें सीआरपीसी की धारा 133 के अंतर्गत कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया । इसमें नोटिस में कलेक्टर द्वारा प्रदर्शन, से कार्यालयीन कार्यों तथा जनता के जीवन में “न्यूसेंस” उत्पन्न होने की आशंका जताकर माकपा नेता को  को 14 जनवरी के दिन अदालत में हाजिर को आदेश दे दिया और उपस्थित न होने की स्थिति में एकपक्षीय कार्यवाही की चेतावनी भी दी गयी . इसी तरह की एक और घटना ग्वालियर की है जहाँ माकपा जिलासचिव ने जब धरना  के लिए अनुमति माँगा तो कलेक्टर ने उनके सामने कुछ शर्तों की सूची पेश कर दी जिसमें   प्रदर्शन में  शामिल होने वालों की संख्या, उनमे हर 10 या 20 भागीदारों के ऊपर एक वालंटियर का नाम और मोबाइल नंबर, वे जिन जिन गाँवों से या बस्तियों से आएंगे उनके थानों में पूर्व सूचना, लगाए जाने वाले नारों की सूची पहले से दिए जाने जैसे प्रावधान तक शामिल हैं ।उपरोक्त दोनों घटनाओं में यह बर्ताब एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी के साथ हुआ है ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि प्रदेश में अन्य संगठनो, नागरिकों से कैसा बर्ताब किया जाता होगा.

मध्यप्रदेश में जिस तरह से प्रतिरोध की  आवाज दबाने और विरोध एवं असहमति दर्ज कराने के रास्ते बंद किये जा रहे हैं और नागिरकों से उन्हें संविधान द्वारा प्राप्त बुनियादी अधिकारों को जिस तरह से कानून व प्रशासनिक आदेशों के जरिये छीना जा रहा है जो कि एक  स्वस्थ लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है. इससे लोकतंत्र कमजोर होगा और सरकारी निरंकुशता बढ़ेगी. इसलिये शिवराज सरकार को चाहिए कि वो प्रदेश में लोकतांत्रिक वातावरण  का बहल करे और संविधानिक भावना के अनुसार काम करे
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