सीताराम सिंह: समाजवाद का एक आफ़ताब

Written by Jayant Jigyasu | Published on: May 18, 2020
अपने समय के संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के बड़े नेता, स्वतंत्रता सेनानी, 1967 में बिहार प्रदेश पार्लियामेंट्री बोर्ड के चेयरमैन व राज्यसभा में पार्टी के उपसचेतक (1970-76) रहे सीताराम सिंह जी की आज जयन्ती है। शिक्षा नीति से लेकर क्रीड़ा नीति तक, विदेश नीति से लेकर आंतरिक सुरक्षा तक, हर मसले पर सदन की बहस में उन्होंने हस्तक्षेप किया।



सौ साल का बेदाग़ व सक्रिय राजनीतिक-सामाजिक जीवन जीने वाले स्वतंत्रता सेनानी, विद्वान सोशलिस्ट नेता, संसोपा के बिहार प्रदेश पार्लियामेंट्री बोर्ड के अध्यक्ष, लोहिया के बेहद क़रीबी, बीएन मंडल के विश्वासपात्र दोस्त, राज्यसभा सांसद व उच्च सदन में पार्टी के उपसचेतक (70-76) रहे सीताराम सिंह जी 2018 में हमारे बीच से चले गए। हाजीपुर से उनके घर से भाई नीरज ने फोन पर दुखद ख़बर दी। पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। पिछले साल ही उन्होंने अपने जीवन के सौवें साल में प्रवेश किया था।14 अप्रैल 2018 को गांधी आश्रम में उनसे भेंट हुई थी। दोबारा बुलाया था कि लंबी बातचीत करेंगे आराम से, पर अफ़सोस...

न हाथ थाम सके न पकड़ सके दामन
बडे क़रीब से उठ कर चला गया कोई।

उनसे मुलाकात के दौरान समाजवाद के उस उज्ज्वल दौर की कुछ किरणें मानस पर पड़ीं।  स्वतंत्रता सेनानी सीताराम सिंह (18 मई 1919- 29 नवम्बर 2018) 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के चेयरमैन और मधुबनी के रूद्रनारायण झा सचिव बने। फिर दोबारा सीताराम सिंह जी सचिव और बीपी मंडल संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष बनाये गए। 67 में उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा, और मात्र 15 ह़ार वोटों से हार गए। 1970-76 तक राज्यसभा के सदस्य और पार्टी के उपसचेतक रहे। वो याद करते हैं कि जब वो पार्लियामेंट्री बोर्ड के चेयरमैन थे, तो ये पैसे ले-दे कर टिकट बेचने-ख़रीदने की बीमारी नहीं थी, न ही दरबारी कराने की लत नेताओं में थी। दारोगा राय के बारे में वो बताते हैं कि वो विधायकों-सांसदों को खाते वक़्त भी बुला लेते थे कि खाएंगे भी और बात भी करेंगे। पर, आज तो लोग दरवाज़ा तक नहीं खोलते। क्या देखने के लिए ज़िंदा रहें, मोदी का तमाशा या ज्युडिशियरी का पक्षपातपूर्ण रवैया? लालूजी को तंग किए जाने के सिलसिले में सिस्टम में लगे जातिवादी घुन पर चर्चा कर रहे थे कि ये तो पहले भी चलता था, अब कुछ महीन ढंग से हो रहा है। 1938 में रामवृक्ष बेनीपुरी ने उन्हें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का सदस्य बनाया था।

14 अप्रैल 2018 को पूछते-पूछते हाजीपुर के गांधी आश्रम पहुंचा। आंगन में खेल रही एक छोटी-सी बच्ची से पूछा, "सीताराम सिंह को जानती हो, वो यहीं रहते हैं न?" उसने चेहरे पे किंचित अनभिज्ञता का भाव लाते हुए कहा, "उंहूं"। फिर सीढ़ी चढ़ते हुए एक सज्जन मिल गए जो डॉक्टर थे, पर एक साहित्यिक पत्रिका निकालते थे। उनसे जब पूछा कि सीताराम सिंह जी से कैसे भेंट होगी, तो उन्होंने कहा, कौन सीताराम सिंह? मैंने जब कहा कि संसोपा वाले, तो वो 'इस्स' के साथ कहते हैं, "वो तो बहुत बूढ़े हो चले हैं"। मैंने कहा कि इच्छा थी कि एक बार भेंट कर लूं। तो वो लेकर उनके घर की तरफ चले। बोले कि वो अब ज़्यादा बोलने की स्थिति में नहीं हैं।

जब पहुंचे तो वो शाम में एक लकड़ी की पुरानी कुर्सी पर बैठे हुए कुछ सोच रहे थे। बोले, "आपकी ही राह देख रहे थे। विलंब कर दिये आप।" हम थोड़े लज्जित हुए। 10-15 मिनट बाद वो लाठी टेकते हुए कमरे के अंदर दाखिल हुए जो विशुद्ध समाजवादी रहन-सहन की गवाही दे रहा था। सबसे बड़ी बात जो लगी वो ये कि कुछ तारीख़ और सन उन्होंने लिख कर एक पुर्जे पर रखी थी। बीच-बीच में वो बताते-बताते कुछ भूल जाते थे तो पूछते थे कि अभी क्या बोल रहे थे। फिर उनको याद दिलाता था तो वो दोबारा शुरू करते थे। बहुत धीमी आवाज़, कान बिल्कुल पास ले जाकर कई बार सुनना पड़ता था। स्वातंत्र्य संग्राम, 1942 की अगस्त क्रांति से लेकर, संविधान सभा की बहसें, आपातकाल से लेकर जेपी-लोहिया-बीएन मंडल- योगेन्द्र शुक्ल, किशोरी प्रसन्न सिंह, ललित भाई, अक्षयवट राय, अमीर गुरू, महेन्द्र राय, बांके सिंह, बेनी बाबा, देवानंद सरस्वती, सरस्वती जी की पत्नी और बहन- सुलोचना व रमाप्रभा, राहुल सांकृत्यायन, मधु लिमये, आचार्य नरेन्द्र देव, पटवर्धन जी, चरण सिंह, रामसेवक यादव, देवेन्द्र सिंह, कृपलानी, रामनंदन मिश्र, दीपनारायण सिंह, ध्रुव नारायण सिंह, जयनंदन बाबा, कमला सिन्हा, बैकुण्ठ शुक्ल, सत्येन्द्र नारायण सिंह, बाबूलाल शास्त्री, सूर्यनारायण सिंह, गुलज़ार पटेल, ज़ाकिर हुसैन, बसावन सिंह, अब्दुल हमीद, भरत भाई, बाबा रामबहादुर लाल, दलबहादुर थापा और अवधबिहारी सिंह (महाशय जी), कमलनाथ झा, एस एम जोशी, पट्टमथानुपिल्ले तक कई अनसुने-अनकहे-अनछुए पहलुओं को वो उकेरते रहे।

उन्होंने बताया कि गोलीकांड के बाद कैसे केरल की अपनी ही सरकार का त्यागपत्र लोहिया ने मांगा। पट्टमथानुपिल्ले मुख्यमंत्री थे। नेशनल कन्वेंशन में खुली बहस हुई, पार्टी टूट गई, लोहिया का गुट हार गया, मधु लिमये को पार्टी से निकाल दिया गया। नई पार्टी बनी जिसमें एस एम जोशी अध्यक्ष और लोहिया महासचिव बने। लोहिया, लिमये, जोशी, राजनारायण, रामसेवक यादव, बीएन मंडल और ख़ुद वे पूरे देश में एक साथ काम करने लगे। बिहार में बीएन मंडल पार्टी के अध्यक्ष और कमलनाथ झा सचिव बनाए गए। आज कोई सोच भी सकता है कि अपने दल के ग़लत काम पर अपनी सरकार का त्यागपत्र माँगा जाय। रीढ़विहीन लोगों की भारमार हो गई है। चारों तरफ असामाजिक समाजवादियों व भूस्वामी साम्यवादियों की फौज़ खड़ी है। 

राज्यसभा के अपने 6 वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने जनहित, समाजहित, शिक्षाहित व राष्ट्रहित के तमाम ज़रूरी मसाइल उठाए। पटना विधानसभा के अंदर गोली चलने पर सदन में ज़ोरदार बहस की, “सभापति महोदय, अत्यंत खेद के साथ कहना चाहता हूँ कि जो कल पटना में घटना घटी है, भयंकर है, शर्मनाक है और जनतंत्र विरोधी। वहां सेना को बुला लिया गया है। कितने ही राउंड गोलियां चली हैं। दर्जनों लोग मारे गये हैं और कितने ही मकानों को जलाया गया है। यहां तक कि वहां की विधानसभा के अंदर भी गोली चली है। वहां का वातावरण अशांत है। हम चाहेंगे कि यहां सरकार पटना की स्थिति पर बयान दे और तत्काल वहां का मंत्रिमंडल, जो भ्रष्ट है, उसको भंग किया जाए और हम चाहेंगे कि संसद की सर्वदलीय समिति इस घटना की जाँच करे और सही-सही जानकारी सदन को दे, देश को दे। सत्तारूढ़ दलों ने क्या आसान तरीका निकाला है- भूखमरों का इलाज़ गोली, लाठी, अश्रु गैस और जेल। इतिहास साक्षी है कि भूख को कोई लाठी, गोली से नहीं दबा पाया है और न आप दबा पाएंगे। आप सभी विरोधी दलों को विश्वास में लेकर कोई ऐसा इंतजाम इस देश के लिए करें कि जनतंत्र क़ायम रहे। हमको यह जानकारी मिली है कि श्री एल.एन. मिश्र नहीं चाहते हैं कि गफ़ूर मंत्रिमंडल चले, क्योंकि वह अपने भाई को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं और इंटरनल गड़बड़ी वह करा रहे हैं, यह हमारी जानकारी है”।

बढ़ती रेल दुर्घटना पर सीताराम सिंह ने राज्यसभा में कहा, “दुर्घटनाएं तो यहां ऐसे हो रही हैं जैसे कि रूटीन वर्क होता है। इस देश में श्री लालबहादुर शास्त्री भी रेल मंत्री बने थे और जब उनके समय में दुर्घटना हुई तो तुरन्त उन्होंने त्यागपत्र दे दिया, लेकिन आज के जो रेलमंत्री हैं, वह इतने लोकलज्जा प्रूफ हैं कि उनको कोई मतलब ही नहीं। आज चाहे किसी की ज़िंदगी भी खत्म हो रही हो तो भी वह मंत्री बने रहना चाहते हैं। आज देश में रेल संगठन नाम की कोई चीज़ नहीं है। अगर कोई संगठन है तो वह श्री मिश्रा जी का है, जो भ्रष्टाचार का प्रतीक है। आज देश में उनकी वजह से तमाम जगहों पर हंगामा मचा हुआ है। आज बिहार और देश के दूसरे हिस्सों में जो कुछ हो रहा है और विशेष कर बिहार में जो कुछ हुआ है, उसको देखते हुए मिश्रा जी को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए वरना जनता ज़बर्दस्ती उनसे इस्तीफ़ा लेवा लेगी”। 

आरएसएस की भूमिका पर भी उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा, “ज़हर की भावना फैला कर, इस देश के डेमोक्रेटिक ढाँचे को जिसको बड़ी भारी क़ुर्बानियाँ देकर, बड़ी भारी तपस्या करके खड़ा किया है, इसको आप मिटाना चाहते हैं? मैं तो इतनी-सी बात आपके मार्फत अपने लायक़ दोस्तों से कहता हूँ कि होम मिनिस्ट्री की एक बड़ी लापरवाही है। आरएसएस जो एक-एक बच्चे के दिल में नफ़रत, एक-एक बच्चे के दिल में घृणा, एक-एक बच्चे के दिल में बात-बात के ऊपर दीवार, द्वेष पैदा करता है, ऐसी जमायतों को देश के अंदर इल्लीगल करार देना चाहिए”।

ग़रीबों की लाचारी-बेबसी देख सरकार की नाकामी से दुखी होकर देश की आज़ादी की लड़ाई में शिरकत करने के अपने दिनों को याद करते हुए सीताराम सिंह ने कहा था, “जो कुछ मुल्क में हो रहा है, देश में जो घटनाएँ घट रही हैं, उससे मैं दुखी हूँ, चिंतित हूँ और इसलिए चिंतित हूँ कि इस देश की आज़ादी लाने में छोटा-सा हिस्सा मेरा भी रहा है। 27 वर्ष की कैद की सज़ा, छाती में भाला और पैर में गोली मुझे भी लगी थी। देश में 26 वर्षों की आज़ादी के बाद सरकार की तमाम ग़लत नीतियों के चलते ये घटनाएँ घट रही हैं। इस घटना के पीछे भूख है, अकाल है, बेरोज़गारी है, भ्रष्टाचार है, बेकारी है और है नैतिक संकट। शिक्षा नीति में आमूल परिवर्तन किया जाए। आमदनी और खर्च की सीमा बाँधी जाए। बेरोज़गारी को ख़त्म किया जाए। कल-कारखानों में जो चीज़ें हैं – करखनियां और खेती की चीज़ों के अंदर जो विषमता है मूल्य की, उसमें रेशो, अनुपात तय कीजिए और दो फसलों के बीच में 16 पैसे से अधिक का फर्क न हो। गल्ले में, करखनियां चीज़ों में एक रुपया उसमें लागत आती है, तो डेढ़ रुपये से ज़्यादा उसकी क़ीमत न हो। जब तक इस देश में अमीरों का कैलाश चलेगा और दूसरी तरफ ग़रीबों का पाताल रहेगा, तब तक देश में शांति नहीं हो सकती है। आज हो क्या रहा है? ग़रीबी का पाताल दिन प्रति दिन नीचे धंसता चला जा रहा है और अमीरी का कैलाश दिन प्रति दिन ऊंचे उठते चला जा रहा है”।

शिक्षा नीति पर बोलते हुए एक समान शिक्षा प्रणाली की वकालत करते हुए सीताराम सिंह ने जो कहा, वो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, “26 वर्षों की आज़ादी के बाद ग़लत शिक्षा नीति के चलते इस देश में 38 करोड़ 60 लाख अनपढ़ हैं। एक तरफ सेंट जेवियर्स जैसे पब्लिक स्कूल चल रहे हैं, दूसरी तरफ बेसिक प्राइमरी स्कूल चल रहे हैं, जहाँ धान रोपना, छैंटी बनाना- इसकी तालीम दी जाती है। एक तरफ शासक पैदा किया जाता है और दूसरी तरफ शासित वर्ग पैदा किया जाता है और ढोल पीटा जाता है समाजवाद का। जिस देश में शिक्षा में भी एक समानता नहीं हो, आर्थिक विषमता की बात तो दूर रही – उस देश का शासक वर्ग यह ढोल पीटे कि हमारे देश में समाजवाद आ रहा है, यह जनता के साथ एक क्रूर मज़ाक है, राष्ट्र के साथ धोखा है, बेईमानी है। यह दुनिया परिवर्तनशील है, इसको मित्रो याद रखो। इस देश में जब तक शिक्षा में समानता नहीं आएगी, तब तक राष्ट्र नहीं बन सकता। मैं मंत्री जी से यह आश्वासन चाहूँगा कि शिक्षा में वह ऐसी कोई व्यवस्था करेंगे कि चाहे राष्ट्रपति का बेटा हो, चाहे भंगी की संतान है, शिक्षा एक समान देने की योजना बनायेंगे। आज की शिक्षा पद्धति ज्ञान अर्जन के लिए नहीं है, वह नौकरी के लिए और व्यापार के लिए है। महोदय, शिक्षा का मतलब है सर्वाँगीण विकास। लेकिन आज इस शिक्षा पद्धति से हो रहा है सर्वनाश। इसलिए मैं मंत्री जी से आग्रह करूँगा कि बुनियादी तौर से शिक्षा नीति में तब्दीली करें, परिवर्तन करें और उसे जनमुखी बनायें”।

युपीए-1 के कार्यकाल में शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह द्वारा पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण देने के बाद आइआइटी, आइआइएम, एम्स समेत तमाम संस्थानों व युनिवर्सिटीज़ की फीस में धीरे-धीरे बढ़ोतरी होने लगी, और जेएनयू जैसे संस्थान में तो अभी इस क़दर इज़ाफ़ा का फरमान आया है कि लगभग आधे बच्चे चहारदीवारी से बाहर हो जाएँगे। आंदोलन जारी है, पर आज जो तमाम जनपोषित विश्वविद्यालयों के निजीकरण की साज़िश चल रही है, प्राथमिक शिक्षा का पहले ही बंटाधार हो चुका है, बीएचयू में एक मुस्लिम प्रफेसर से संस्कृत पढ़ने से लोग मना कर रहे हैं; वैसे में सीताराम जी की यह बात बरबस याद आती है, “आर्थिक विषमता के चलते इस देश में अनेक बच्चे शिक्षा पाने से वंचित रह जाते हैं। सामाजिक विषमता का जहां तक सवाल है, आज इस देश में अनेक ऐसे गाँव हैं जहाँ स्कूल में स्वर्ण हिंदू उच्च जाति के बच्चे दलित, आदिवासियों, अकलियतों के बच्चों को अपने साथ नहीं बैठने देते। उनके साथ बुरा सुलूक करते हैं। वैशाली ज़िले के महुआ प्रखंड के मिड्ल स्कूल में एक दलित शिक्षक सवर्ण शिक्षक के ग्लास से पानी पी रहे थे, तो उनके मुँह से ग्लास छीन लिया गया और मारने की धमकी दी। इतना भयभीत किया गया कि वह दलित शिक्षक ट्रांसफर करा कर दूसरे स्कूल में चला गया है। इस घटना की सूचना मैंने गवर्नर को दी, लेकिन आज तक कुछ हो नहीं सका है और जो उच्च वर्ग के शिक्षा अधिकारी हैं, वह दलित शिक्षक को धमकी देते हैं कि अगर तुम समझौता नहीं करते हो तो तुमको हम डिस्मिस कर देंगे, डिस्चार्ज कर देंगे”।

साक्षरता दर बढ़ाने के लिए शिक्षा विभाग की ओर से राष्ट्रीय साक्षरता सेना के गठन की सलाह सरकार को सीताराम सिंह ने दी थी जिससे 1 करोड़ निरक्षर लोग साक्षर हो सकें और बहुत नौजवानों को रोज़गार मिल सके। आज की तारीख़ में जहाँ अभिभावक बच्चों को जबरन इंजीनियरिंग-मेडिकल-मैनेजमेंट की तरफ धकेलने पर आमादा रहते हैं; सीताराम सिंह ने बच्चों की दिलचस्पी के मुताबिक़ शिक्षा देने की वकालत करते हुए कहा, “शिक्षा की जो पद्धति है उसमें विद्यार्थियों को छठी या सातवीं तक पढ़ाई के अनुसार उसके दिमाग़ की जाँच होनी चाहिए और जिस विद्यार्थी को जिस विषय में अभिरुचि हो, उसको उसका विशेषज्ञ बनाना चाहिए। उनको दूसरी किताबों का बोझा डालकर उनके माथे पर उनका भार नहीं डालना चाहिए। तभी कुछ संभव कल्याण हो सकता है”।

पब्लिशिंग हाउस व स्कूल प्रबंधन के बीच सांठगांठ के चलते बेहतर सिलेबस डिज़ाइन नहीं होने पर सवाल खड़ा करते हुए उन्होंने बेहद ज़रूरी बात कही, “बिल्कुल व्यापारिक ढंग से शिक्षा चलाई जा रही है। जहाँ तक पाठ्यक्रम का सवाल है, आज देखा जाता है कि अच्छे से अच्छे लेखक की जो किताबें हैं, उनको रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाता है और आज जिनका संपर्क, जिनका संबंध शिक्षा मंत्रालय से है, वे चाहे जितनी भी घटिया क़िस्म की किताब लिखें, टेक्स्ट बुक कमिटी में उनकी किताब चल जाती है। यह पूरे देश की बात है”।

20 सूत्री कार्यक्रम की चर्चा करते हुए सीताराम सिंह ने भक्त और भाट में बुनियादी व बारीक फर्क बताया जिस अंतर को आज के दौर में रेखांकित करना और भी ज़रूरी लगता है। वो कहते हैं, “मुझे नेहरू जी का वेलफेयर स्टेट, लोककल्याण राज देखने का मौका मिला है और इंदिरा गाँधी का “ग़रीबी हटाओ” का नारा भी सुनने का मौक़ा मिला है। जो 20 सूत्री कार्यक्रम चल रहा है, मैं कहना चाहता हूँ कि यह उसी तरह का ढोल है जैसे हमने अपने बचपन में एक ड्रामा देखा था, एक जोकर का कहना था कि ख़ुशामद में ही आमद है, इसलिए बड़ी ख़ुशामद है। जितने ढोल पीटने वाले लोग हैं, मैं सही मायने में कहना चाहता हूँ कि उनमें प्रधानमंत्री के भक्त कम हैं और भाट ज़्यादा हैं। भक्त और भाट में फर्क हुआ करता है। भक्त हर मौक़े पर क़ुर्बानी देने के लिए तैयार रहता है। इसके विपरीत भाट अपना मतलब निकालने के लिए, अपना उल्लू सीधा करने में ही लगा रहता है”।

दलित महिलाओं पर हैवानी अत्याचार का मामला उन्होंने उठाया, “पूर्णिया के फारबिसगंज में दो पुलिस कांस्टेबल और एक पुलिस सब-इंस्पेक्टर ने रिक्शा चालकों की औरतों के साथ बलात्कार किया। सहरसा में जो बड़े लोग हैं, उन्होंने चार दलित औरतों के गुप्तांगों का लोहा तपा करके दागा। इस तरह के अत्याचार देश में दलितों पर हो रहे हैं, इनकी जाँच हो”।

पूँजीपतियों को रियायत देने और जनता पर अतिरिक्त टैक्स लादने पर सरकार की जम कर खिंचाई की थी, “जहाँ तक रेलवे में ज़्यादा किराया बढ़ाने का सवाल है, पोस्टल पर ज़्यादा पाँच फीसदी टैक्स बढ़ाने का सवाल है, और किन-किन टैक्सों को मैं बतलाऊँ-

लेकर नश्तर हाथ में जर्राह ने कहा
रग-रग में ज़ख़्म है लगाऊँ कहाँ-कहाँ।

इस देश में लगभग 550 करोड़ रुपये देश के बड़े उद्योगपतियों पर, पूँजीपतियों पर बाक़ी हैं। अगर यह सरकार वही पैसा वसूल लेती, तो फिर नये टैक्स लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। और टैक्स लगाने का भी क्या सिद्धांत है? एक आदमी जो तगड़ा है, 5 मन वजन का कोई सामान उठा सकता है, उस पर भी उतना ही टैक्स और मलेरिया से पीड़ित है, उस पर भी उतना ही टैक्स। यह कैसा सिद्धांत है? यह किस देश का सिद्धांत है? यह मेरी समझ में नहीं आया कि करोड़पति पर वही टैक्स और जो झाड़ू लगाने वाला आदमी है, उस पर भी उसी तरह का टैक्स। कोई अनुपात में फर्क नहीं किया गया। चुनाव में वचन दिया गया कि ग़रीबी हटाएंगे, लेकिन वह बात तो दूर रह, ग़रीबों को ज़रूर हटाया जा रहा है”।

वयस्क मताधिकार की आयु घटाकर 18 वर्ष किये जाने के भूपेश गुप्त के बिल का ज़ोरदार समर्थन करते हुए सीताराम सिंह ने सदन में कहा, “सत्ताधारी दल के लायक़ दोस्तों से कहना चाहता हूँ कि जब श्री भूपेश गुप्त जी के साथ उनकी पार्टनरशिप चल रही है, तो फिर वे उनके इस पवित्र बिल का विरोध क्यों कर रहे हैं? मैं समझता हूँ कि उसका एक कारण है और वह यह है कि 18 वर्ष की उम्र वाले नौजवान जब इस देश के शहरों में या गाँवों में निकल जायेंगे वोट देने के लिए तो यह संख्या काफी है किसी भी राजसत्ता को बदलने के लिए। असली यही डर राज सत्ता के लोगों को है और इसलिए इतने प्रगतिशील और इतने पवित्र बिल का सत्ताधारी दल के लोग विरोध करते हैं। हर इलेक्शन में चाहे वह सत्ताधारी दल के लोग हों या विरोधी दल के, इन नौजवानों का अपने चुनाव में इस्तेमाल करते हैं और उनसे काम लेते हैं, लेकिन उनको लीगल राइट देने के लिए फिर यह सारी नुक़्ताचीनी क्यों है। मैं जानना चाहता हूँ कि क्यों उनको अधिकार नहीं मिलना चाहिए। नाजायज तरीके से हम उनसे काम लेंगे, लेकिन जायज हक़ उनको न दें। यह कोई युक्तिसंगत तर्क नहीं है। उनको हर हालत में यह अधिकार हासिल होना चाहिए। न इस दुनिया में विज्ञान पूर्ण है, न मानव समाज। दुनिया के इतिहास में सभ्यता और संस्कृति में नित नई कड़ी जुड़ा करती है। तो यह मान लेना कि हमारे संविधान निर्माता जो कर गये, वहाँ से हम आगे नहीं बढ़ेंगेग, तो यह बुद्धिमानी नहीं होगी।

जहाँ तक 18 साल की उम्र का सवाल है, मेरा निवेदन है कि यदि उनको कोर्ट-कचहरी में जाने का अधिकार है और 18 साल की उम्र में ही जब वह बाप बन जाता है, तो उनको वोट देने का अधिकार न देना कोई युक्तिसंगत बात नहीं है। हम ज़ोरदार शब्दों में इस बिल का समर्थन करते हैं और हम चाहते हैं कि हमारे लायक़ दोस्त जो सत्ताधारी दल के हैं, वे बगैर किसी झिझक के और संकोच के इस बिल का समर्थन करें। यह न समझें कि क्योंकि उस पार्टी से आया है, इस पार्टी का नहीं है, इसलिए विरोध करें। राष्ट्रहित, देशहित तथा देश की राजनीति में व्यापक परिवर्तन लाने के लिए इस बिल का ज़ोरदार शब्दों में हम सपोर्ट करते हैं और सदन के मार्फत हम आह्वान करते हैं कि देश के बाहर जो जनता है, वह सरकार पर दबाव डालें कि तत्काल यह बिल पास करे”।

आपातकाल लागू किये जाने पर सरकार की जमकर खिंचाई करते हुए उन्होंने जो तक़रीर की, वह याद किये जाने की ज़रूरत है, “आज सारे जनतांत्रिक मूल्यों को ख़त्म कर दिया गया है, सारी मान्यताओं को ख़त्म कर दिया गया है, और सारी परंपरा को ख़त्म करके एक तानाशाही का वातावरण अपने देश में कायम किया गया है। सदन को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए, क्योंकि डंडे का राज बहुत दिनों तक दुनिया में नहीं चलता है। दुनिया का इतिहास साक्षी है, जब जनता उठ खड़ी होती है, तो दुनिया में बड़े-बड़े तख़्त और ताज को गिरा देती है। डंडा राज अगर क़ायम रहता तो मुसोलिनी और हिटलर आज तक राज करते, कभी वे नहीं हटते। लेकिन हर जगह जनतांत्रिक मूल्यों के बल पर कोई भी शक्ति राज करती है – जन इच्छा और जनभावना के बल पर, न कि संगीन के बल पर। संगीन के बल पर अगर राज्य चलता, तो अंग्रेज़ हमारे देश से नहीं जाते जिन अंग्रेज़ों के राज्य में सूरज नहीं डूबता था। लेकिन जब जनता ने विद्रोह किया तो वो भी चले गए, इसलिए सत्ताधारी दल के दोस्त चेतें। आज दुहाई दी जा रही है आपातकाल की। मैं मानता हूँ कि संविधान में भी आपातकालीन स्थिति का प्रावधान है, लेकिन किस समय? आज अपने देश में कोई अर्थव्यवस्था फेल नहीं कर रही है, आज अपने देश में कोई सशस्त्र आंतरिक विद्रोह नहीं हो रहा है, आज कोई विदेशी हमलावर हमारे मुल्क पर तोप, फ़ौज़ और टैंक लेकर हमला नहीं कर रहा - इन तीनों में कोई भी स्थिति अपने मुल्क में नहीं है, पिर भी आपात स्थिति लागू है, और कुछ दिनों से नहीं, यह 8 महीने से लागू है, और इसका आकलन नहीं है कि कब तक यही स्थिति बनी रहेगी। दुहाई दी जाती है इस आपातकालीन स्थिति की कि उसके ज़रिए अनुशासन हुआ है, गाड़ी टाइम पर चलती है, दफ़्तर के बाबू लोग समय पर दफ़्तर जाते हैं। मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या गाड़ी समय पर चलाने के लिए, दफ़्तर के बाबुओं को समय पर ऑफिस में जाने के लिए आपातकालीन स्थिति दुनिया के इतिहास में कहीं और भी लागू की गई है? यह तो सामान्य प्रशासन का काम है। तो इससे ही साबित होता है कि आप प्रशासन चलाने में कितने सक्षम हैं, कितने योग्य रहे हैं। जो प्रशासनिक काम हैं, उनको भी आपने ठीक से नहीं किया, अपने कर्त्तव्य से च्युत रहे और सारी जनता को आपातकालीन संकट में झोंक दिया। कोई एकपक्षीय बात करके राष्ट्र का निर्माण नहीं किया जा सकता”।

बिहार के लेनिन कहे जाने जाने वाले अमर शहीद बाबू जगदेव की क्रूर हत्या पर सदन को झकझोरते हुए सीताराम सिंह ने भाषण किया था, “सदन का ध्यान एक अत्यंत दुखद और गंभीर घटना की ओर खींचना चाहता हूँ। बिहार में विगत 5 तारीख़ (5 सितंबर 1974) को श्री जगदेव प्रसाद जो बिहार के भूतपूर्व मंत्री थे और मौजूदा शोषित समाज दल के हिन्दुस्तान के जनरल सेक्रेटरी थे, वह गया ज़िले में कुरथा ब्लॉक में प्रदर्शन करने के लिए गये थे और वह वहाँ पर प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे। उस समय वहाँ के सरकारी मुलाजिमों, वहाँ बड़े-बड़े भूपतियों और तमाम लोगों ने साठ-गांठ करके प्रिप्लान्ड, पुलिस से गोली चलवाई और इस प्रकार वहाँ उनकी हत्या कर दी गई और इस हत्या के पीछे बदले लेने की भावना है। राजनीतिक उद्देश्य है और आज इस तरह की घटनाएँ आये दिन घट रही हैं। श्रीमन्, आपके पुराने मित्र और हमारे साथी श्री सूरज नारायण सिंह की हत्या भी इसी प्रकार करवा दी गई थी। अभी एक 16 साल के विद्यार्थी की, जो वहां प्रदर्शन कर रहा था, इसकी भी हत्या कराई गई। तो मैं बिहार की स्थिति के बारे में कहना चाहता हूँ कि वहाँ आज पुलिस का राज है, वहां आज जंगल का क़ानून है और किसी को जानोमाल की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। यह जो जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में वहां आंदोलन चल रहा है, उसमें अनेक लोगों को गोली के घाट उतार दिया गया है। श्रीमन्, मैं सरकार से और जो हमारे गृहमंत्री जी हैं, उनसे चाहूँगा कि वह ऐसी घटनाओं पर ध्यान दें और वस्तुस्थिति की जानकारी सदन को करावें और मैं माँग करता हूँ कि श्री जगदेव प्रसाद की हत्या में जिन लोगों का हाथ है, उसका पता लगाने के लिए एक न्यायिक जाँच बैठाई जाय और तत्काल वहाँ के अधिकारियों को मुअत्तल किया जाय और इसकी पूरी छानबीन की जाय और परिवार को मुआवज़ा दिया जाय। हम उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, उनके परिवार के प्रति संवेदना प्रकट करते हैं। श्रीमन्, आप देखें कि उनका अपराध क्या था। अपराध उनका यह था कि वह ग़रीबों के लिए, मज़दूरों के लिए, शोषित-पीड़ित जनता के लिए सतत संघर्ष करते थे। उनको रोटी दिलाने के लिए, उनको न्याय दिलाने के लिए लड़ते थे और यही उनका अपराध था जिसके लिए गोली मार कर उनकी हत्या कर दी गई। आज बिहार में अन्याय है, अत्याचार है, शोषण है और भुखमरी है, और कोई भी लॉ एंड ऑर्डर वहाँ नहीं है। वहाँ कोई सरकार नहीं है और साज़िश करके जो राजनीति में विरोधी लोग हैं, उनकी सुनियोजित तरीके से हत्या कराई जाती है। यहाँ तक कि श्री अब्दुल गफूर साहब ने पब्लिकली बयान दिया था कि वह जयप्रकाश नारायण जी को सही मुकाम तक पहुँचा देंगे। तो जयप्रकाश नारायण जी की ज़िंदगी को भी ख़तरा है। मैं सदन के ज़रिये चाहूँगा कि उनकी सुरक्षा का इंतज़ाम किया जाय। बिहार के मंत्रिमंडल को भंग किया जाय और उससे आगे जाकर मैं कहना चाहूँगा कि सारे अपराधों के दोषी उमाशंकर दीक्षित हैं। उनको इस्तीफ़ा देना चाहिए क्योंकि उनकी देखरेख में ही बिहार में क़त्ल हो रहे हैं और लोग गोलियों से मारे जाते हैं, कोई इंसाफ़ वहां नहीं है और बिहार में जनता तबाह और बर्बाद हो रही है। आज वहां अनार्की है”।

इस तरह हम पाते हैं कि संसद में आमजन की भाषा में जितनी उर्वर चर्चा उन्होंने की, वो विरले देखने को मिलती है। आज हमारे सामने लेजिस्लेटर्स तो उभरे हैं, पर सही मायने में सीताराम सिंह की मानिंद संघर्ष में तपे लीडर्स प्रोड्युस नहीं हो रहे हैं।

संसदीय परंपरा और संवैधानिक मूल्यों का 100 साल की उम्र में भी उन्हें कितना ख़याल था कि न्यायपालिका से जुड़ा एक प्रसंग आया तो बोले कि रिकॉर्डिंग थोड़ी देर के लिए बंद कर दीजै तो मज़ेदार बात बताऊं। अपने जेएनयू जाने के प्रसंग को याद कर भी वो ख़ुशी से भर उठे, आँखें सजल हो गईं।

मैं तब ख़ुशी से भर उठा जब देवचंद कॉलिज हाजीपुर में राजनीति विज्ञान विभाग के अध्यक्ष रहे प्रो. गंगा प्रसाद जी का ज़िक्र सीताराम बाबू और उनकी बिटिया अर्पणा जी ने किया। मैंने बताया कि वो मेरे पिताजी के राजनीतिक गुरु थे और मां-पिताजी की शादी भी उन्होंने ही कराई।

अपने अंतिम क्षण तक सीताराम सिंह जी हाजीपुर के गांधी आश्रम में स्वतंत्रता सेनानी संगठन के अध्यक्ष पद पर कार्यरत रहे, और सचिव ब्रहमदेव महतो का उनसे पहले इंतकाल हो गया था। समाज और देशसेवा के कार्यों से सीताराम जी का घर पर कम ही रहना होता था, उनके दो पुत्र एक ही दिन हैजा का शिकार हो गए थे। तीन पुत्रियां बचीं जिनमें से एक गुज़र गईं।

जीवन में अनेक झंझावातों को झेलने वाले सीताराम जी की लड़खड़ाती आवाज़ में भी ग़ज़ब का विश्वास था, दुनिया बदले, यह अंतिम अभिलाषा थी। अंगूर खिलाया उन्होंने। खाना देर से खाकर हम चले थे। मेरे साथी राजेश जी नहीं खा रहे थे, तो उन्होंने कहा, "अरे जवान आदमी हो, फांक जाओ। पहले खाओ, बाद में बात करेंगे", और फिर उनकी निश्छल हंसी। अचानक छपरा का ज़िक्र होने पर वो प्रो. वीरेन्द्र नारायण जी के बारे में पूछने लगे तो बताया कि थोड़ी देर पहले उन्हीं का फ़ोन आया था, तो राजेश जी से उन्होंने कहा कि बात करानी थी ना!

सीताराम जी स्वाधीनता संग्राम के दौरान छाती में भाला मार दिये जाने का निशान और बाद में पैर में लगी गोली का दाग़ दिखा रहे थे।

जब तस्वीर लेने का इसरार किया तो उन्होंने कहा, "रुकिए, टांगें ठीक करने दीजिए। अब उमर हो गई। चल नहीं पाता हूँ।" लेकिन, हमारी मदद नहीं ली, ख़ुद ही अपने को संभाला। हमसे नंबर लिया और अपने घर का नंबर दिया। बोले, कभी पूरा दिन लेकर आइए और पहले बता दीजिएगा फ़ोन करके। भूलने लगा हूं अब। इतनी लंबी दास्तान है कि एकाध घंटे में क्या कहें, क्या छोड़ें। लोहिया आए थे ढूंढते-ढूंढते, फिर हम उन्हीं के होके रह गए। आते वक़्त उन्होंने राज्यसभा में अपने भाषणों के संकलन वाली किताब उपहार में दी।

कई तरह के भाव आ-जा रहे थे। मन थोड़ा विह्वल भी था, थोड़ा उदास भी, थोड़ी आश्वस्ति भी, थोड़ी बेचैनी भी। सबको अपना किरदार निभाना है। सबका सीमित वक़्त है, इसी में अच्छा-बुरा जो भी करना है... एक-से बढ़कर एक मूल्यों को जीने वाली शख़्सियतें बिसरा दी जा रही हैं। नई रोशनी की यह भी नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वो पुरानी रोशनी की सोहबत में जाके अपने कलुष-तम को शनै:-शनैः मिटाए।

मुट्ठी भर ऊर्जा लेकर हाजीपुर से लौटा हूँ। एक भरोसा लेके कि जीवन में अच्छा करना है, एक भला इंसान बनना है। सस्ती शोहरत की ख़्वाहिश कल भी नहीं थी और आगे भी नहीं जन्म लेने देना है। बीएन मंडल के पौत्र दीपक प्रसाद जी ने सीताराम बाबू के साथ पहली व आख़िरी सुंदर भेंट कराई जो इतनी ख़ूबसूरत व मानीखेज़ रही कि ताउम्र नहीं भुलेगी।

सीताराम बाबू, आप हमारी यादों में हमेशा जिंदा रहेंगे, और क़दम-क़दम पर अच्छा करने के लिए, समाजवाद की जड़ों को सींचने के लिए प्रेरित करते रहेंगे।

मौत उसकी है करे जिसका ज़माना अफ़सोस
यूं तो दुनिया में सभी आए हैं मरने के लिए।

सलाम!

(जयन्त जिज्ञासु, डॉक्टोरल रिसर्च स्कॉलर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।)

Courtesy: Janpath

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