मध्यप्रदेश की राजनीति में आदिवासी चेतना का उभार

Written by जावेद अनीस | Published on: September 14, 2018
इस साल के अंत तक मध्यप्रदेश में चुनाव होने हैं, लेकिन इधर पहली बार दोनों प्रमुख पार्टियों से इतर राज्य के आदिवासी समुदाय में स्वतन्त्र रूप से सियासी सुगबुगाहट चल रही है. गोंडवाना गणतंत्र पार्टी तो पहले से ही थी जिसका कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में अहम् रोल माना जाता है.अब “जयस” यानी  “जय आदिवासी युवा शक्ति” जैसे संगठन भी मैदान में आ चुके हैं जो विचारधारा के स्तर पर ज्यादा शार्प है और जिसकी बागडोर युवाओं के हाथ में हैं. जयस की सक्रियता दोनों पार्टियों को बैचैन कर रही है. डेढ़ साल पहले आदिवासियों के अधिकारों की मांग के साथ शुरू हुआ यह संगठन आज ‘“अबकी बार आदिवासी सरकार”’ के नारे के साथ 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर  रहा है.



जयस द्वारा निकाली जा रही “आदिवासी अधिकार संरक्षण यात्रा” में उमड़ रही भीड़ इस बात का इशारा है कि बहुत ही कम समय में यह संगठन प्रदेश के आदिवासी सामाज में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहा है. जयस ने लम्बे समय से मध्यप्रदेश की राजनीति में अपना वजूद तलाश रहे आदिवासी समाज को स्वर देने का काम किया है. आज इस चुनौती को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियां महसूस कर पा रही हैं शायद इसीलिये जयस के राष्ट्रीय संरक्षक डॉ. हीरालाल अलावा कह रहे हैं कि “आज आदिवासियों को वोट बैंक समझने वालों के सपने में भी अब हम दिखने लगे हैं”.

आदिवासी वोटरों को साधने के लिए आज दोनों ही पार्टियों को नए सिरे से रणनीति बनानी पड़ रही है. शिवराज अपने पुराने हथियार “घोषणाओं” को आजमा रहे हैं तो वहीँ कांग्रेस आदिवासी इलाकों में अपनी सक्रियता और गठबंधन के सहारे अपने पुराने वोटबैंक को वापस हासिल करना करना चाहती है.

मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी 21 प्रतिशत से अधिक है. राज्य विधानसभा की कुल 230 सीटों में से 47 सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं. इसके अलावा करीब 30 सीटें ऐसी मानी जाती हैं जहां पर्याप्त संख्या में आदिवासी आबादी है. 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में भाजपा को 32 तथा कांग्रेस को 15 सीटों मिली थी.
 
पिछले तीन विधानसभा चुनाव के दौरान आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की स्थिति
 
वर्ष कुल सीटें भाजपा कांग्रेस
 
2003 41     34   2
2008   47       29   17
2013           47       32   15
 
 
दरअसल मध्यप्रदेश में आदिवासियों को कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता है लेकिन 2003 के बाद से इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हो गया जब आदिवासियों के लिये आरक्षित 41 सीटों में कांग्रेस को महज 2 सीटें ही हासिल हुई थीं जबकि भाजपा के 34 सीटों पर कब्ज़ा जमा लिया था. 2003 के चुनाव में पहली बार गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी जो कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने में एक प्रमुख कारण बना.

वर्तमान में दोनों ही पार्टियों के पास कोई ऐसा आदिवासी नेता नहीं है जिसका पूरे प्रदेश में जनाधार हो, जमुना देवी के जाने के बाद से कांग्रेस में प्रभावी आदिवासी नेतृत्व नहीं उभर पाया है पिछले चुनाव में कांग्रेस ने कांतिलाल भूरिया को प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया था लेकिन वे अपना असर दिखाने में नाकाम रहे, खुद कांतिलाल भूरिया के संसदीय क्षेत्र झाबुआ में ही कांग्रेस सभी आरक्षित सीटें हार गईं थी.

वैसे भाजपा में फग्‍गन सिंह कुलस्‍ते, विजय शाह, ओमप्रकाश धुर्वे और रंजना बघेल जैसे नेता जरूर हैं लेकिन उनका व्यापक प्रभाव देखने को नहीं मिलता है, इधर आदिवासी इलाकों में भाजपा नेताओं के लगातार विरोध की खबरें भी सामने आ रही हैं जिसमें मोदी सरकार के पूर्व मंत्री फग्गनसिंह कुलस्ते और शिवराज सरकार में मंत्री ओमप्रकाश धुर्वे शामिल हैं. ऐसे में 'जयस' की चुनौती ने भाजपा की बैचैनी को बढ़ा दिया है और कांग्रेस भी सतर्क नजर आ रही है.

2013 में डॉ हीरा लाल अलावा द्वारा जय आदिवासी युवा शक्ति’ (जयस) का गठन किया गया था जिसके बाद इसने बहुत तेजी से अपने प्रभाव को कायम किया है. पिछले साल हुये छात्रसंघ चुनावों में जयस ने एबीवीपी और एनएसयूआई को बहुत पीछे छोड़ते हुये झाबुआ, बड़वानी और अलीराजपुर जैसे आदिवासी बहुल ज़िलों में 162 सीटों पर जीत दर्ज की थी. आज पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों अलीराजपुर, धार, बड़वानी और रतलाम में “जयस” की प्रभावी उपस्थिति लगातार है यह क्षेत्र यहां भाजपा और संघ परिवार का गढ़ माना जाता था.
 
दरअसल “जयस” की विचारधारा आरएसएस के सोच के खिलाफ है, ये खुद को हिन्दू नहीं मानते है और इन्हें आदिवासियों को वनवासी कहने पर भी ऐतराज है. खुद को हिंदुओं से अलग मानने वाला यह संगठन आदिवासियों की परम्परागत संस्कृति के संरक्षण और उनके अधिकारों के नाम पर आदिवासियों को अपने साथ जोड़ने में लगा है. यह संगठन आदिवासियों की परम्परागत पहचान, संस्कृति के संरक्षण व उनके अधिकारों के मुद्दों को प्रमुखता उठता है.

“जयस” की प्रमुख मांगें
  • 5वीं अनुसूचि के सभी प्रावधानों को पूरी तरह से लागू किया जाए.
  • वन अधिकार कानून 2006 के सभी प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाए.
  • जंगल में रहने वाले आदिवासियों को स्थायी पट्टा दिया जाए.
  • ट्राइबल सब प्लान के पैसे अनुसूचित क्षेत्रों की समस्याओं को दूर करने में खर्च हों.
 
“जयस” का मुख्य जोर 5वीं अनुसूचि के सभी प्रावधानों को लागू कराने में हैं, दरअसल भारतीय पांचवी अनुसूचि की धारा 244(1) के तहत आदिवासियों को विशेषाधिकार दिए गये हैं जिन्हें सरकारों ने लागू नहीं किया है.

मध्यप्रदेश में आदिवासी की स्थिति खराब है, शिशु मृत्यु और कुपोषण सबसे ज्यादा आदिवासी बाहुल्य जिलों में देखने को मिलता है, इसकी वजह यह है कि सरकार के नीतियों के कारण आदिवासी समाज अपने परम्परागत संसाधनों से लगातार दूर होता गया है, विकास परियोजनाओं की वजह से वे व्यापक रूप से विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर हुए हैं और इसके बदले में उन्हें विकास का लाभ भी नहीं मिला, वे लगातार गरीबी व भूख के दलदल में फंसते गये हैं.

भारत सरकार द्वारा जारी ‘‘रिर्पोट आफ द हाई लेबल कमेटी आन सोशियो इकोनामिक, हैल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस आफ ट्राइबल कम्यूनिटी 2014” के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर आदिवसी समुदाय में शिशु मृत्यु दर 88 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 113 है, इसी तरह से राष्ट्रीय स्तर पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 129 है वही प्रदेश में यह दर 175 है, आदिवासी समुदाय में टीकाकरण की स्थिति चिंताजनक है.

रिर्पोट के अनुसार देश में 12 से 23 माह के बच्चों के टीकाकरण की दर 45.5 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 24.6 है. इसी तरह से एक गैर सरकारी संगठन बिंदास बोल संस्था द्वारा जारी किये गये अध्यन रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश के आदिवासी जिलों के करीब 40 प्रतिशत बच्चे अभी से स्कूल नहीं जा रहे हैं इसका प्रमुख कारण यह है कि पिछले कुछ सालों  आदिवासी क्षेत्रों में स्कूलों की संख्या में करीब 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी तो हुयी है लेकिन मानकों के आधार पर यहां अभी भी करीब 60 प्रतिशत टीचरों की कमी है. जाहिर है सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा कीलगातार की गयी अवहेलना के कारण ही आज आदिवासी समाज गरीबी कुपोषण और अशिक्षा की जकड़ में बंधा हुआ है.

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