आदिवासियों और जंगल निवासी समुदायों पर कोविड-19 और लॉकडाउन का असर

Written by sabrang india | Published on: June 29, 2020
सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों और प्रचलनों ने परंपरागत रूप से सामुदायिक निर्णय प्रक्रिया में औरतों को बाग लेने से रोका है और उन्हें औपचारिक और प्रथागत कानूनों के तहत समान विरासत और संपत्ति अधिकारों से वंचित रखा जाता है। वन अधिकार कानून, 2006 ऐसे चंद प्रगतिशील कानूनों में एक है जो वन अधिकारों को मान्यता देने के मामले में इस ऐतिहासिक नाइंसाफी को खत्म कर लैंगिक समानता को मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिश करता है। 



यह बुलेटिन आदिवासी और विशेष रूप से असुरक्षित आदिवासी समूहों (पीवीटीजी), पारंपरिक जंगल निवासी और चरवाहा समुदायों की जिंदगी और आजीविका पर लॉकडाउन के असर के बारे में औरतों के बयानों को सामने लाता है। इनमें से कई औरतें जंगलों में रहती हैं, जहां उन्हें पट्टे की सुरक्षा हासिल है, कई उत्पीड़न और बेदखली के खिलाफ लड़ रही हैं और कई अपनी दास्तान सुनाने के लिए जिंदा नहीं रह पाईं। कई संरक्षित क्षेत्रों में रहती हैं, जबकि कई शहरों में मजदूरी करती हैं। कई के ऊपर अपने पूरे परिवार के भरण पोषण का जिम्मा है, जबकि कई अकेली औरतें हैं जो अपनी जिंदगी के लिए लड़ रही हैं। उम्मीद है आप इनके मार्फत लघु वनोपज सहकारी समितियों के सदस्य, अपनी ग्राम सभाओं और वन संरक्षा समितियों के नेता के रूप में औरतों के संघर्षों और उम्मीदों के अनुभवों को समझ सकेंगे।

औरतों के जीवन के हर क्षेत्र में लॉकडाउन के कई विशिष्ट असर  हुए हैं : खाद्य असुरक्षा और पोषण संबंधी मुद्दे, आवाजाही, पर पाबंदी, बाजार के कमजोर होने, आबोहवा में बदलाव, जंगलों का अन्य इस्तेमाल और औरतों की देख-रेख में जमीन के टुकड़ों, जिनपर वे आश्रित हैं, उन पर वनीकरण, लिंग आधारित हिंसा, लघु वनोपजों के संग्रह और बिक्री में कमी और समुचित आजीविका के विकल्पों के अभाव में प्रवासी महिला मजदूरों की बंधुआ मजदूरी। उन ग्राम सभाओं में, जहां औरतों को बराबरी का हक हासिल है, जहां वे बराबर की भागीदार या नेता हैं, वहां इन दास्तानों से स्पष्ट है कि जंगल निवासी समुदायों को ज्यादा सुरक्षा, संप्रभुता और स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल हैं और माहौल ज्यादा अच्छा है। 



इस बुलेटिन को अदिति और संघमित्रा ने तैयार किया है। इसमें उन्हें मधु, तुषार, अर्चना और सुष्मिता का सहयोग मिला है। संध्या और अनिरूद्ध ने इसका डिजाइन किया है और इसका हिंदी अनुवाद ध्रुव ने किया है। दास्तानों का श्रेय हीरा मकाम (उत्तराखंड), सृष्टि (छत्तीसगढ़), ध्वनि और शिवांगी (मध्यप्रदेश), मारग (गुजरात) और पास्टोरल विमन एलांयस को जाता है।  

त्रिलोकी देवी की कहानी (उत्तराखंड की एक वनराजी आदिम अनुसूचित जनजाति महिला) -

मैं त्रिलोकी देवी, 65 साल की, वनराजी बस्ती गांव में रहने वाली वनराजी आदिम अनुसूचित जनजाति की महिला हूं। वनराजी बस्ती (ब्लॉक खटीमा, जिला- उधम सिंह नगर) जो नेपाल के बॉर्डर में एक छोटा सा गांव है। गांव में 40 परिवार निवास करते हैं। इस क्षेत्र में हम वनग्राम समुदाय जंगलों पर ही अपनी आजीविका के लिए आश्रित हैं। मुख्यत: लकड़ी, घास, चारा, जड़ी-बूटी, कन्ध मूल, मछली आदि पर निर्भर हैं। लॉकडाउन के दौरान हो या और समय कन्ध मूल फल, जिबुरा, लिंगुड़ा, परमल, कोचू मछली, जंगली पक्षी की सब्जी ही बनती है। हम होटलों में सुखी जलौनी लकड़ी का व्यवसाय करते थे जो बंद है। हवा तूफान से कच्चे घर टूट गए हैं जिससे हम लोगों को बहुत दिक्कत हुई है। 



हम लॉकडाउन से ज्यादा संकट में हैं। मेरे पास जमीन बहुत कम है वो भी वन विभाग हमेशा धमकाता है। दावा पत्र भरने के बाद भी ये हाल है। सरकार ने अभी तक पट्टा नहीं दिया है। मेरे पेटे के साथ दारू पिलाकर वन विभाग के लोगों ने मारपीट किया और जब मैने आवाज उठाया तो वन विभाग ने गांव से निकालने की धमकी दी। हम रिपोर्ट भी नहीं कर सकते हमारी को नहीं सुनता है। लॉकडाउन की वजह से मजदूरी नहीं कर सकती हूं। मेरे पास जॉब कार्ड नहीं है, श्रम विभाग में रजिस्ट्रेशन नहीं है, जन-धन योजना का खाता नहीं है। बीमार रहती हूं लेकिन अपना इलाज नहीं करा पा रही हूं।

त्रिलोकी देवी की प्रमुख मांग- 
सरकार से हमारी मांग है कि हमको वन अधिकार कानून के तहत मिलने वाले पूर्ण अधिकार दिए जाएं जिससे हम वनराजी समुदाय को सामूहि और व्यक्तिगत दावा में मालिकाना हक मिले व वनराजी जनजाति समाज को समाज की मुख्यधार से जोड़ा जाए। लॉकडाउन के दौरान भी हमारे साथ तरह-तरह की हिंसा होती है। सरकार अन्य गांव में राशन देता है। हम आदिम जनजाति को क्यों नहीं मिला है?



ओडिशा में कैंपा वनीकरण का विरोध करने वाले एक महिला समूह और रंजाती मलिक की दास्तान

मेरा नाम रंजाती मलिक है। मैं ओडिशा के कंधमाल जिला के दरिंगबादी ब्लॉक के पिडोरमहा गांव में रहती हूं। इस लॉकडाउन के दौरान जब हमें घर में ही रहने की सलाह दी गई, उसी समय वन विभाग ने हमारे कुदरती जंगलों को तहस-नहस कर दिया और काट डाला। वे आए और बसे-बसाए जंगल को साफ कर दिया। हम अपने भोजन और आजीविका के लिए उन्हीं पर आश्रित थे। हम हर साल नए पेड़ लगाते थे। उस दिन 28 मई को हमारे महिला समूह ने जंगल के ईर्द-गिर्द घेरा डाल दिया और अपना विरोध जताने लगे। 

कोरोना वायरस लॉकडाउन के कारण हम अपने सैली और साल पत्तियों और प्लेटों, तेंदू और बहाड़ा को बेच नहीं पाए और ये सब बर्बाद होने लगे हैं। हम असहाय महसूर कर रहे हैं और यह समझ नहीं पा रहे हैं कि अपने बाल बच्चों का भरण पोषण कैसे करें। इस संकट में, लॉकडाउन की पाबंदियों और वन विभाग की ज्यादतियों के बीच हम अपने को असहाय पा रहे हैं। हम जिंदा कैसे रहें?

मनिया धुर्वे और मयकालीबाई की जिंदगी में लघु वनोपज का महत्व (मध्यप्रदेश की भूमिहीन गोंड आदिवासी औरतें) 

प्रचलित श्रम विभाजन के लिहाज से जंगलों से संसाधनों को इकट्ठा करने का काम सामाजिक रूप से औरतों के जिम्मे होता है। इसलिए, जब असुरक्षित जंगल आश्रित समुदायों के लिए, खासकर औरतों के लिए वन उ्तपादों को इकट्ठा करने की गुंजाइश नहीं होती तो उससे उनके जीवन में व्यवधान आता है। 

मनिया धुर्वे एक भूमिहीन गोंडी आदिवासी है जो अपने पति और दो शिशुओं के साथ मध्य प्रदेश के मांडला जिला के बिछिया ब्लॉक के गुबरी गांव में रही है। उसके परिवार ने जमीन के एक छोटे-से टुकड़े को (लगभग आधा एकड़) धान उगाने के लिए पट्टे पर लिया है। उसे सार्वजनिक राशन की दुकान से चावल मिलता है लेकिन मनिया का नाम राशन कार्ड में दर्ज नहीं है। नतीजतन, चार लोगों के लिए खाना पूरा नहीं पड़ता। ऐसे में, गैर-इमारती वन उत्पाद (एनटीएफपी) तक पहुंच परिवार को संकट से पार पाने में मदद करती रही है। अप्रैल के महीने में मनिया और अशोक ने 15-20 किलो महुआ इकट्ठा किया जिसे उन्होंने लगभग 25-30 रूपये की दर पर बेचा। चूंकि बाजार बंद था इसलिए व्यापारी गांव-गांव जाकर संग्रहकर्ताओं से महुआ खरीदते थे। मनियाबाई कहती है कि अगर वे बाजार जाकर उसे बेचते तो शायद वे थोड़ी ऊंची दर पर बेच पाते लेकिन अहम बात थी कि वे समय पर उसे बेच  पाए। मनिया कहती हैं, 'अगर महुआ के फूल नहीं होते तो ल़ॉकडाउन में हमें और हमारे बच्चों को खाना मिलना मुश्किल हो जाता।'



मयकाली बाई 50 वर्षीय बुजुर्ग महिला है जो कान्हा नेशनल पार्क के बफर के भीमपुरी गांव में रहीत है। जमीन के किसी टुकड़े पर स्वामित्व का अधिकार नहीं होने से उसे अपने देवर की जमीन से उपज का एक छोटा सा हिस्सा मलता है। ऐसे में वह दिहाड़ी से होने वाली आय से गुजर-बसर करती है। कोविड 19 लॉकडाउन के कारण इस साल वह लगभग 300 बंडल तेंदू पत्ता ही जमा कर पाई और बेच पाई जिससे उसे कुल 750 रूपये मिले। वह सुबह 4 बजे उठकर पत्ता जमा करने निकल पड़ती है और दोपहर तक वापस आ पाती है। जल्दी -जल्दी खाना खाकर वह पत्तों का बंडल बांधने लग जाती और 3 बजे फाड़ (वह जगह जहां पत्ते बेचे जाते थे) के लिए चल पड़ती है। इस मामले में फाड़ गांव से 5 किलोमीटर की दूरी पर मयकाली बाई गांव की कई और औरतों के साथ पैदल फाड़ तक जाती है और पत्ते बेचकर अंधेरा होने पर ही वापस आ पाती है। 



वह कहती हैं कि इस साल वन विभाग ने महुआ संग्रह के मौसम में कई सावधानियां बरतने की चेतावनी जारी की है। लोगों के ऊपर बाघों के हमलों और हाथियों के आवागमन के चलते वन विभाग बफर के गांवों में कई सावधानियां बरतने की चेतावनी दी है और लोगों को चेताया है कि वे सुबह जल्दी या साम को देर से महुआ जमा करने जंगल में न जाएं। मयकाली बाई कहती हैं कि उसके महुआ के पेड़ जंगल के अंदर हैं और उसे फूल जमा करने सुबह जल्दी जाना पड़ता है क्योंकि फूल रात में ही पेड़ से झडते हैं। लगातार चेतावनी जारी करने से वह कई दिनों तक फूल जमा करने नहीं जा पाई। इस मौका को खोने की कीमत काफी बड़ी थी। अगर ये पाबंदियां नहीं होती तो वह 8-10 किलो ज्यादा फूल जमा कर पाती। 

कई मर्तबा अप्रत्यासित मौसम के कारण भी पाबंदियां आ जाती हैं। मिसाल के लिए, इस लॉकडाउन और महामारी के तनावों के साथ-साथ आबोहवा में बदलाव के कारण जंगल निवासियों को संसाधन संग्रह की अनिश्चितता तनाव भी झेलना पड़ा। यह खासतौर पर तेंदू पत्ता और महुआ के फूलों के संग्रह के मामले में स्पष्ट था। 

गुजरात के गड़ेरिया मालधारी औरतों की परेशानियां 

कोविड-19 ने मालधारियों के प्रवास के ढर्रे को भी प्रभावित किया है। उनके आवागमन पर लगी दीर्घकाली पाबंदी की वजह से उन्हें नए रास्ते अपनाने पड़े। साथ ही इसकी दूसरी वजह यह थी कि किसान और गांववासी कोरोना वायरस के प्रसार के भय से डरते थे, नहीं तो पहले वे उन्हें अपने खतों में ठहरने के लिए आमंत्रित करते थे। कई जगहों पर मालधारियों के गांव में प्रवेश पर पूरी तरह रोक थी और कई बार उन्हें कड़वी बातें सुननी पड़तीं या छोटे-मोटे झगड़ों को झेलना पड़ता। 

यह सभी के लिे असहजता का कारण था। इसका सबसे बुरा असर औरतों पर पड़ा क्यों वे ही गांववालों के साथ, पानी, राशन, दूध की बिक्री आदि का सौदा करती थीं। नई जगहों पर यह कर्तव्य निभाना उनके लिए तोड़ा मुश्किल था। वे अनिश्चय, असहजता से भरी रहती थीं और अक्सर असुरक्षित महसूस करती थीं। गांववाले मालधारियों को गांव से पानी लेने से भी रोकते थे। चूंकि यह सब औरतों के जिम्मे होता था, वे घर बार और मवेशियों की जरूरतों के लिए पानी लाने से कतराती थीं। 




मालधारी अपना दूध डेयरी कोऑपरेटिव और निजी ठेकेदारों को बेचते थे लेकिन नए रास्तों में वे डेयरियों और निजी ठेकेदारों से अपरिचित थे। ऐसे में दूध बेचने का बोझ औरतों पर पर आ पड़ा। देखा जाए कि कई मामलों में उन्हें दूध और दुग्ध उत्पाद काफी सस्ते में बेचने पड़े। मिसाल के दौर पर, दूध के लिए पहले जहां उन्हें प्रति लीटर 40 रूपये मिलते थे, अब लॉकडाउन में 22 रूपये प्रति लीटर की दर से अपना दूध बेचना पड़ा। इसने मालधारियों को आर्थिक और सामाजिक, दोनों रूप से तोड़ दिया। मवेशियों की खरीद-बिक्री भी पूरी तरह बंद हो गई, लॉकडाउन में मवेशियों के दाम बढ़ गए और गर्मी के महीनों में भेड़ों का ऊन उतारने-जैसे कामों में किसी की मदद मिलना असंभव हो गया। इससे उनकी आर्थिक तंगी और बढ़ गई। 

औरतें इस वित्तीय नुकसान से सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं, क्योंकि प्रवास के दौरान वित्तीय संसाधनों के प्रबंधन की जिम्मेदारी मालधारी औरतों की होती है। चूंकि वे अपने मूल गांव से दूर थी, उन्हें सार्वजनिक राशन की दुकान से राशन मिलना बंद हो गया था। पहले के सालों में वे काम चला लेते थे, लेकिन अब आय के नुकसान के एक भारी वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा। कच्छी की एक औरत का कहना था कि 'हमें एक जून के काने के लिए 20 चपातियां लगती हैं, पर आजकल हमें 10 चपातियों से काम चलाना  पड़ रहा है। हम ऐसा इसलिए करते हैं कि राशन लंबे समय तक चलता रहे।' इसका सबसे भारी असर समूह की औरतों पर पड़ा है। कुछ समूहों का कहना था कि उन्हें खाने का सामान ऊंचे दर पर खरीदना पड़ता है और इसके लिए भी औरतों को लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। ऐसे में उनकी मेहनत और तनाव का स्तर बढ़ गया है।

दुधवा नेशनल पार्क, उत्तर प्रदेश के थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की दास्तान सहवनिया की जुबानी

मैं सुरमा गांवी की रहने वाली सहवनिया हूं और थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच का हिस्सा हूं। हमारा संगठन पुश्तों से लड़ाई लड़ रहा है: इससे पहले दुधवा नेशनल पार्क के अंदरूनी हिस्से से दो गांवों को हटाए जाने के खिलाफ, फिर राजस्व की स्थिति और अब सामुदायिक वन अधिकारों के लिए जिसे मान्यता देने में लॉकडाउन के कारण और देरी हो रही है। 

जब से लॉकडाउन की घोषणा हुई है, लोग जंगल नहीं जा पा रहे हैं क्योंकि फॉरेस्ट गार्ड उन्हें तंग कर रहे हैं और जो लोग जलावन इकट्ठा करने जाते हैं उनसे मनमाना पैसा वसूल रहे हैं। इसके अलावा संरक्षित क्षेत्रों से संबंधित छह अप्रैल के आदेश केबाद फॉरेस्ट गार्ड लोगों को जंगल में नहीं जाने दे रहे हैं। कहते हैं कि मनुष्यों से जानवरों में संक्रमण फैलने का खतरा है। चूंकि लोग गांव के पड़ोस में स्थित जमीन के टुकड़ों पर खाद्यानों की उपज, मुख्यतौर पर गेहुं और साग सब्जी की पैदावार पर जिंदा रहते हैं, इसलिए जंगल में नहीं जा पाने से वे उनका इस्तेमाल नहीं कर सकते। कजरिया गांव में लोग लंबे समय से जमीन को जोत-बो रहे हैं। हाल में वन विभाग ने गांव के चारों और खंदक खोद दिए हैं ताकि लोग जंगल में घुस न पाएं। इससे न सिर्फ लोगों का जंगल जाना रूक गया बल्कि खेतों में बाढ़ आने का खतरा भी बन गया है। सुरमा में ग्राम प्रधान लॉकडाउन का फायदा उठाते हुए लोगों को संगठित नहीं होने दे रहा है। संगठन को भी अपनी बैठक बुलाने में दिक्कत हो रह है हालांकि हम जानते हैं कि जब तक हम संगठित नहीं होते अधिकारियों पर दबाव नहीं डाल पाएंगे। 

हिमाचल प्रदेश की दलित महिला, दिवंगत दमा देवी की कहनी

अनुसूचित जाति समुदाय की 52 साल की दमा देवी मंडी जिले की सियारी पंचायत के टिक्करी राजस्व गांव में रहती थीं। लगभग एक साल पहले, 26 जुलाई 2019 को दमा देवी का निधन हो गया। उनके गांव का दौरान करने वाली एक फैक्ट फाइंडिंग टीम ने पाया कि इससे पहले उसी दिन दमा देवी पानी भरने गई थीं, जब 6 वन विभाग के अधिकारी बिना किसी पूर्व सूचना के अपनी खाकी वर्दी में आए थे और उन्हें वन भूमि से बेदखल करने की धमकी दी। दमा देवी के परिवार के पास केवल 3 बिस्वा भूमि थी और जीवित रहने के लिए 1-2 बीघा पड़ोसी भूमि पर खेती के लिए उपयोग करते थे। दमा देवी के परिवार का गांव के कुछ अन्य परिवार के साथ, जिन्होंने पास में वन भूमि पर कब्जा कर मंदिर बना रखा था, आपसी झगड़ा था। वास्तव में, गांव के अधिकांश परिवार अपनी आवश्यकताओं के लिए कुछ वन भूमि का उपयोग कर रहे थे। 

26 जुलाई 2019 को पूरे गांव के सामने वन विभाग के अचानक उत्पीड़न के कारण दमा देवी को डर लगने लगा और यह कहते हुए रो पड़ीं कि उनका परिवार वन भूमि पर निर्भर था। बाद में दमा देवी बेहोश हो गई और वन अधिकारी गांव से बाहर निकल गए। दमा देवी की वास्तव में मृत्यु हो गई थी। उसी शाम उनके परिवार ने अनुसूचित जाति /अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत एक एफआईआर दर्ज की और उनकी मौत की जिम्मेदारी 6 वन विभाग अधिकारियों के साथ-साथ कुछ पड़ोसी परिवारों पर भी डाल दी, जो उनसे लड़ते थे। उनकी एफआईआर 28 अगस्त 2019 तक थाने द्वारा दर्ज की गयी। दमा देवी का परिवार करीब एक साल से इंसाफ के इंतजार में है। मुकदमा मार्च 2020 के लिए तय किया गया था हालांकि लॉकडाउन के कारण स्थगित कर दिया गया है।
 

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