'कभी हम सिंधियों पर कोई बड़ा संकट आया तो हम अपने कौन से गांव जाएंगे?'

Written by Girish Malviya | Published on: April 15, 2020
बहुत से लोग इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते है कि कोरोना संकट के समय मजदुर इन बड़े बड़े महानगरों से जहां हर तरह की सुख सुविधाए मौजूद है वहां पलायन क्यों कर रहे है? ऐसी क्या तड़प है जो सुख सुविधाओं को छोड़कर सेकड़ो किलोमीटर दूर आठ आठ दिन तक पैदल चलकर अपने गाँव में वापस जा रहे है? अभी जब बांद्रा स्टेशन पर मजदूरों के जमा होने वाली घटना पर पोस्ट डाली तो एक भद्र महिला ने कमेंट किया। ....... 'ये कौन लोग हैं जिन्हें घर बैठे बगैर काम के चार टाइम खाना मिल रहा.....फिर भी घर जाना चाह रहे? बात तो सही है उन्हें सरकार खाना दे रही है चार बार कहना अतिश्योक्ति है लेकिन दो बार या एक बार उन्हें खाना तो मिल ही रहा है तो क्या वजह है ऐसी क्या बेचैनी है उनके मन में ?



इस विषय पर कुछ दिन पहले मित्र संजय वर्मा ने एक बहुत अच्छी पोस्ट लिखी थी मित्र संजय वर्मा के दादा विभाजन के समय स्वंय इस पलायन की त्रासदी के शिकार हुए थे, वे लिखते हैं। 

'कोरोना' अपने पीछे इंसानी स्वभाव की जो पहेलियां छोड़ जाएगा, उनमें सबसे खास होगी - भारत के हजारों हजार गरीब गुरबों की गांव वापसी !

हम , जो 3 दिन के पैकेज टूर पर निकलने से पहले (जिसमें टिकिट, पिकअप ,ड्रॉप ,साइट सीइंग , होटल सब कुछ महीनों पहले बुक होता है ), ऐसी तैयारियां करते हैं जैसे कोई जंग लड़ने जा रहे हो , इस एडवेंचर टूर को कैसे समझें ? हम जो किसी सुहाने मौसम में करीबी पहाड़ी पर 5 किलोमीटर पैदल चलने को एडवेंचर ट्रैकिंग कह कर फेसबुक पर फोटो डालकर लाइक कमाते हैं, हम कैसे समझें कि वह क्या ताकत है , जिसके भरोसे कोई मजदूर अपनी बीमार पत्नी और छोटे बच्चों के साथ खाली जेब और टूटी चप्पल लिए अचानक अनजान रास्ते पर सैकड़ों किलोमीटर लम्बे सफर पर पैदल ही निकल जाता है !

शहर में बने रहने से शायद भूखे मरने का खतरा था, पर ख़तरा तो इस सफर में भी था । शायद शहर में बने रहने से ज्यादा ! यह कल्पना दिलचस्प है कि आम दिनों में इस तरह के सफर पर भेजने के लिए इन्हें कितना बड़ा प्रलोभन देना पड़ता ? यह सफर हर लिहाज से उनकी ज़िंदगी का सबसे मुश्किल फैसला रहा होगा । क्या वे नहीं जानते थे कि यह सफर उनके जिस्म की बर्दाश्त करने की आखरी हदों की आजमाइश लेने वाला है । ...........कहते हैं हिस्टीरिया में इंसान के शरीर में बहुत ताकत आ जाती है । उस समय शरीर भविष्य की ताकत को वर्तमान में इस्तेमाल कर लेता है ।

क्या यह कोई मास हिस्टीरिया था ?

मगर बड़ा सवाल यह है कि इतना बड़ा खतरा उन्होंने क्यों उठाया ? मेरे एक उद्योगपति मित्र ने उनके यहां काम करने वाले मजदूरों को भरोसा दिलाया कि उन्हें खाने रहने की कोई मुश्किल नहीं होगी मगर फिर भी वे रातों रात बगैर बताए अपने गांव चले गए । इस संकट में कैसे भी अपने गांव पहुंचना चाहते थे !
कोरोना ने हमें बताया है कि इंसान की जिंदगी में ' गांव ' लफ्ज़ क्या मायने रखता हैं, हम उसे ठीक से नहीं जानते ! अभी शायद हमने उस तेज़ गुरुत्वाकर्षण बल को नहीं पहचाना है जिसके चलते इंसान जान बचाने के लिए नहीं , जान की बाजी लगाकर भी गांव पहुंचना चाहता है ।

आप लाख उन्हें समझाएं कि आप अपने देश में हैं, सुरक्षित हैं, पर संकट के समय वे अपने 'देस' जाएंगे । अपने गांव ! कहते हैं ,खतरे के समय इंसान का आदिम दिमाग फैसले लेने लगता है । सभ्यता जो बातें सिखाती है दिमाग उन्हें पीछे धकेल कर अपनी इंस्टिकट्स के भरोसे फैसले करता है। इंसान की आदिम स्मृतियों में कबीले हैं कुटुंब है । 'नेशन स्टेट' सभ्यता की देन है। आदिम दिमाग के लिए वह दुनिया के ग्लोब पर खींची काल्पनिक लकीरों के बीच की जगह है , जिस पर वह भरोसा नहीं करता। क्या नेशन-स्टेट पर बहुत भरोसा करने वाले विद्वान कोरोना के इस सबक के बाद समझ पाएंगे कि राष्ट्रवाद मानव सभ्यता की राह में बस एक पड़ाव है , मंजिल नहीं ! डेढ़ सौ दो सौ साला जिंदगी में नेशन स्टेट, इंसान के दिमाग में कोई बहुत गहरा प्रभाव नहीं डाल पाया है । जब कभी संकट आएगा इंसान राष्ट्र पर नहीं 'देस' पर भरोसा करेगा।

मेरे एक परिचित हैं । उत्तर प्रदेश में उनका गांव है, जहां कोई नहीं रहता । उन्होंने कर्जा लेकर वहां अपने कच्चे मकान को पक्का करवाया। मैंने कहा इस पैसे से आप इंदौर में अपना घर बना सकते थे । उनके पास कोई तर्क नहीं था कि उन्होंने ऐसा क्यों किया ! मैं अब समझ पा रहा हूं कि इस तरह के फैसलों को तर्क के सहारे समझा नहीं जा सकता।

मैं जिस व्यवसाय में हूं , हमारे ज्यादातर ग्राहक उत्तर प्रदेश के गांवों में रहने वाले मजदूर ठेकेदार हैं। वे हर बरस एक महीने के लिए गांव जाते हैं । उनका जीवन , उनकी सोच जैसे इस एक महीने के इर्द-गिर्द घूमती है। शहर में बिताए ग्यारह महीनें , जैसे इस एक महीने की तैयारी लगते हैं । कभी लगता है ,शहर तो बस उनका तन आया है वे अपनी आत्मा गांव में ही छोड़ आए हैं । शहर के सुनसान अंधेरे जंगल में ,गांव दूर कहीं टिमटिमाता दिया है जो उन्हें ये ग्यारह महीने की रात काटने का हौसला बंधाता है ।

कोराना के इस रिवर्स माइग्रेशन पर लिखते, उसकी तस्वीरें देखते मुझे इस देश के सबसे बड़े विस्थापन की याद आई । आजादी के बाद हम सिंधी भी अपना गांव हमेशा के लिए छोड़ कर आ गए थे और कभी वापस नहीं जा पाए ।..................आज यह सब लिखते हुए एक सिंधी कहानी याद आई । एक सिंधी बच्ची अपनी मां से पूछती है - मां हर साल मेरे सब दोस्त छुट्टियों में अपने गांव जाते हैं । हम क्यों नहीं गांव जाते ? क्या हमारा कोई गांव नहीं है ?

मेरे रिश्तेदार ने मुझे कल फोन पर पूछा - कभी हम सिंधियों पर कोई बड़ा संकट आया तो हम अपने कौन से गांव जाएंगे ?

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