अब बाबरी मस्जिद महज़ एक याद है !

Written by एच आई पाशा | Published on: January 21, 2019
कई मुसलमान आज भी इस ग़लतफ़हमी के शिकार हैं कि अदालत का फैसला उनके पक्ष में आएगा और वे मस्जिद बना लेंगे. हकीक़त यह है कि आज के ज़्यादातर मुसलमान जिन्हें रोज़मर्रा की रोज़ी-रोटी की झंझटों से फुर्सत नहीं है उन्हें बाबरी मस्जिद के बनने न बनने में क्या दिलचस्पी हो सकती है. उनके गाँव-मोहल्ले की मस्जिदें ही उनके लिए काफी हैं. ये तो मुस्लिम समाज के तथाकथित प्रतिनिधि के तौर अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं.

क्या इन तथाकथित मुस्लिम नेताओं को सचमुच अंदाज़ा नहीं है कि इस झगड़े के निहितार्थ क्या हैं? यह बात बिल्कुल साफ़ है कि अदालत का फैसला हिन्दू दक्षिणपंथियों के पक्ष में आये या उनके खिलाफ आये वे वही करने वाले हैं जो वे ठान चुके हैं. चाहे वे विजय का जुलूस निकालें या अपनी हार की खिसियाहट, निशाना बनेग आम मुसलमान. नेताओं का कुछ नहीं होगा. वे तो उस वक़्त भी सुरक्षित थे जब बाबरी की तबाही के बाद देश जल रहा था. अयोध्या से लेकर मुंबई तक ग़रीब और हाशिये के मुसलमानों के घर और दुकानें फूंकी जा रही थीं और उनका क़त्ल हो रहा था.

इन मुस्लिम नेताओं से मेरी गुज़ारिश है कि वे अपना अड़ियल रवैया छोड़ें और हालात की नज़ाकत को समझें. फैसला किसी के पक्ष में हो मारा जाएगा ग़रीब मुसलमान. फैसला आने से पहले ही जो उनका आक्रामक अंदाज़ है क्या आप देख नहीं रहे हैं? जब मौजूदा सरकार ही उनके साथ है तो आप कुछ भी नहीं कर सकते. छोड़िये अपनी जिद को. मस्जिद सन 1992 में ख़त्म हो चुकी है. अब वहां एक टुकड़ा विवादित ज़मीन के सिवा कुछ नहीं है. बाबरी मस्जिद सिर्फ यादों में है और उसे यादों में ही रहने दीजिये. हिंदुस्तान में मस्जिदों की कमी नहीं है, उनकी फ़िक्र कीजिये. अपनी जिद के लिए आम मुसलामानों की जान, माल, इज़्ज़त को खतरे में मत डालिए. आप लाख कोशिशें कर डालें, बाबरी मस्जिद दोबारा नहीं बनने वाली.

हमारा संविधान वास्तव में एक आदर्श संविधान है जो हर वर्ग और सम्प्रदाय के लिए समान न्याय की गारन्टी देता है. अफ़सोस कि ये सब कहने की बातें हैं. संविधान की दुहाई तो सभी देते हैं पर उनका पालन कौन करता है! सन 1992 के दंगा पीड़ितों को कितना न्याय मिल गया? किस सियासी पार्टी ने ज़िम्मेदारी और ईमानदारी इस मामले में निभाई? श्री कृष्ण कमीशन की रिपोर्ट हमेशा के लिए ठन्डे बस्ते में डाल दी गयी.. कहाँ से लेकर आएँगे उनके लिए इन्साफ जो तबाह हो गए. दंगों के बाद हुए बम ब्लास्ट के मुजरिमों की तलाश आज भी जारी है. निर्दोष मुसलमानों पर जो क़यामत टूटी उसका तो अब ज़िक्र भी नहीं होता.

अक्लमंद वही है जो वक़्त के तकाज़े को समझे. मुसलमानों की सलामती यही है कि बाबरी मस्जिद को एक बुरे ख्वाब की तरह भुला दें, अदालत का फ़ैसला कुछ भी हो मुसलामानों को कुछ नहीं मिलने वाला.

बाबरी मस्जिद नाम की मृगया के पीछे भागने और अपने को ख़्वार करने के बजाय क्या यह ज़्यादा व्यावहारिक नहीं होगा कि मुसलमान अपने आपको आर्थिक रूप से मज़बूत बनाएं. ऐसा मुमकिन है सिर्फ ऊंची गुणवत्ता वाली शिक्षा हासिल करने से और तकनीकी व आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल करने से. देश के आर्थिक स्तर पर मुसलमान सबसे नीचे हैं. उनका धार्मिक कट्टरपन और अपने आपको सबसे अलग रखने का उनका जुनून और आपस में ही उनका न पटना...ये बातें उन्हें कहीं नहीं ले जातीं, सिर्फ पीछे ले जाती हैं. यह बात याद रखने की है कि कमज़ोर आदमी का कोई दोस्त नहीं होता. कोई भी उस पर ज़ोर आज़माईश कर सकता है. मुसलामानों के साथ यही हो रहा है. इसलिए मज़बूत बनिए. 

जब आप मज़बूत होंगे और मज़बूत नज़र आयेंगे, तभी देश और दुनिया में आपकी कद्र और मांग होगी. सिर्फ आपस में ही एक दूसरे के साथ रिश्ता बेहतर बनाने की कोशिश न करें. हमारे देश में करोड़ों लोग हैं जो मुसलमान नहीं हैं मगर उनकी हालत कमोबेश आप ही के जैसी है. भाइयों की तरह उनसे हाथ मिलाइए, उनके सुखदुख में भागीदार बनिए. अलगाववाद और सबसे अलग नज़र आने की आपकी चाहत सिर्फ़ और सिर्फ आपको ही नुकसान देने वाली है. मुख्य धारा से अलग नज़र आने वाले लोग कुदरती तौर पर दूसरों की नज़र में संदिग्ध होते हैं. ज़रूरी है कि खुद अपने फायदे के लिए हर उस गैर मुस्लिम को अपनी तरफ से reach out करें जो उनसे दोस्ती का रिश्ता रखना चाहते हैं. हिन्दुत्ववादियों को एक तरफ रख दें तो आपके सामने हकीक़त यह नज़र आयेगी कि दक्षिणपंथ के बढ़ते असर के बावजूद ज़्यादातर बहुसंख्यक मुसलमानों के साथ शांति का रिश्ता रखना चाहते हैं. 

भूल जाइए बाबरी मस्जिद को. ज़रुरत है उससे आगे बढ़ने की. इंसान की सलामती से ज़्यादा अहम कुछ भी नहीं हो सकता. मंदिर, मस्जिद भी नहीं.

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