हाशिमपुरा नरसंहारः हाईकोर्ट के फैसले से तसल्ली तो है, लेकिन सुकून नहीं

Written by आस मोहम्मद कैफ | Published on: November 2, 2018
मेरठ- हाशिमपूरा, मेरठ की गली के लड़के अब नहीं पढ़ते हैं. ना पढने की वजह उनकी तीन दशक पुरानी हैं.



हाशिमपुरा को अंसारियो वाली गली भी कहते है. हाशिमपुरा काण्ड में मारे गए अधिकतर भी इसी समुदाय से थे, यह सभी गरीब बुनकर थे, इनमे कुछ मजदूर भी थे. अदालत के यह फैसला जिन पांच गवाहों की गवाही पर आया है उनमें से एक मिन्हाजउदीन बिहार के दरभंगा के रहने वाले हैं. उस दिन के चश्मदीद मिन्हाज तीन गोली खाकर भी जिन्दा बच गए मिन्हाज कहते है” क़ातिल की सज़ा सिर्फ मौत है. इन्हें भी फांसी होनी चाहिए थी”. मिन्हाज अपने पीठ और पैर पर लगी गोली दिखाते हुए कहते हैं ”उन्होंने हमें मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी बल्कि गोली मारकर नहर में फेंक दिया था. जाहिर है उन्होंने सोच लिया था हम मर गए.  मगर अल्लाह ने हमें बचा लिया.  हमारे साथ के 43 लोगो को उन्होंने मार दिया था वो बांह पकड़कर देख रहे की कौन ताक़तवर है! जो कमजोर था वो जेल गया जो मजबूत था वो मारा गया.



वहां मौजूद मिन्हाज बताते है कि पहले कहा गया कि जो पढ़ रहे हैं वो हाथ खड़े कर लो कुछ बच्चों को लगा कि शायद इन्हें छोड़ देंगे. मगर सबसे पहले उन्ही लड़कों के गोली मारी गई, यहाँ के जावेद (34) के मुताबिक अब यहाँ लड़के नहीं पढ़ते हैं. उनके अंदर बेहद नाकारात्मक छवि बन गई है. उन्हें लगता है पढाई से सिर्फ नुकसान होता है.



हाशिमपुरा मेरठ के बीचों-बीच है, यहाँ की मशहूर शाहपीर मज़ार के सामने,हफ़ीज़ मेरठी मार्ग पर, इसी मार्ग के लगभग चार फुट गहराई वाली गली में चीजें अस्त व्यस्त है, गली के बाहर गुलजार अहमद(43) कहते हैं' ”31 साल से जिनका जेहन ही बुरी तरह डैमेज हो चुका हो वो घरों की बनावट और गलियों के रखरखाव पर क्या ध्यान देंगे!”.



गली के अंदर दाखिल होते ही एक किरयाना की दुकान है. इसे 80 साल के जमालुदीन चलाते है, किसी भी गली में पहला घर और पहली दुकान ‘एडवांटेज’ होती है, जमालुदीन की यह दुकान उनके घर का एक हिस्सा है, यही ‘एडवांटेज’ उनके लिए काफी तकलीफदेह हो गया, 31 साल पहले 22 मई 1987 को सबसे पहले उन्ही के बेटे कमालुदीन (19) को पीएसी के जवानों ने घर से उठा लिया, कमालुदीन की शादी को अभी एक साल भी नही हुआ था, उसके दूल्हा बने हुए तस्वीर को जमालुदीन अपने बरामदे में खाने की टेबिल पर रखते है और आज भी रोज निहारते है, जमालुदीन के बूढ़े दिल में आज भी इस बात की टीस है कि उनके बेटे की लाश को भी वो खुद नही दफ़्न कर सके, ठीक ईद के दिन उसके खून में सने हुए कपडे गली के इस सबसे पहले घर पर सबसे पहले आये.



दिल्ली हाईकोर्ट के हाशिमपुरा कांड पर आये फैसले के बाद एक बार फिर हाशिमपुरा में हलचल है, यहाँ तसल्ली है तो मगर सुकून नही है, प्रदेश के सबसे घिनोने पीएसी के अत्याचार वाले 31 साल पुराने इस ‘सरकारी’ हत्याकांड में 43 मुसलमानों की प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी (पीएसी) ने गोली मारकर हत्या कर दी थी, मेरठ में दंगे के बाद पीएसी ने यहाँ सरकारी आतकंवाद की नई परिभाषा गढ़ते हुए, सैकड़ो मुसलमानो का अपहरण किया और फिर इनमे से 43 को गोली मारकर गंगनहर में फेंक दिया, 5 दूसरे लोगो को भी गोली लगी उन्हें भी मरा हुआ समझ लिया गया, मगर वो बच गए और अब गवाह है , बाक़ियों को बुरी तरह पीटकर जेल भेज दिया गया, अब अदालत ने 19 सिपाहियों को इसके लिए गुनाहगार माना है. इनमे 3 की मौत हो चुकी है जबकि बचे हुए 16 को उम्रकैद की सज़ा सुनाई है.



जमालुदीन कह देते हैं ''इस फैसले से तसल्ली तो है मगर दिल को सुकून नही है, कलेजा अब भी बेचैन है, रोज़ अपने बेटे की फोटो देखता हूँ, फ़ोर्स रक्षक होती है, उस दिन वो भक्षक बन गई थी मगर सिर्फ सिर्फ मुसलमानो के लिए. यहाँ हिन्दू भी रहते है मगर चुन-चुन कर मुसलमान लड़को को उठाया गया, मेरा बेटा उनमे सबसे पहला था, इस गली में हमारा घर भी सबसे पहला है”.



हाशिमपुरा में अदालत और सिस्टम पर भरोसे का आलम यह है कुछ चुनिंदा लोगो को छोड़कर पीड़ित परिवारों को मीडिया से पता चला की आज इस मामले पर अदालत का कोई फैसला आया है, ज़रीना (68) ने उस दिन अपने शौहर, जेठ और बेटे को खो दिया था, अब वो कहती है”अच्छी बात है सज़ा हुई है. मगर हम कैसे माने हमें तो अदालत ने बुलाया नहीं उनके (पीएसी के जवान) के हाथों में हथकड़ी डालकर हमारे सामने जेल लेकर जाएँ, उन्हें फांसी हो, उनके घरवालों को भी तकलीफ का अहसास हो जो हमें हो रहा है, अख़बार वालो ने आकर बताया है कि 16 सिपाहियों को उम्रकैद हो गई है, जरीना तब 37 की थी जब उसके 14 साल के बेटे को मार दिया गया, उनके शौहर और जेठ दोनों को पीएसी घर से उठाकर ले गए, जबकि बेटा उनके इसी गली में उनके रिश्तेदार के घर था, उसे वहीँ से उठा लिया.

इस्लामुदीन (49) हाशिमपुरा के पीड़ितों के लिए बनाई गई ‘इन्साफ कमेटी’ के सदस्य है उनके भाई निजामुदीन (13) को भी पीएसी के जवानों ने अपने ट्रक में अपहरण कर लिया था, वो कागजों में आज भी उलझे है, काग़ज़ उलटते-पलटते वो अक्सर भूल जाते है कि वो क्या तलाश रहे हैं! इस्लामुदीन कहते हैं”आखरी दम तक लड़ूंगा हिम्मत नही हरूँगा अफसरों की मानसिकता में बहुत अधिक बदलाव नही आया है अब मुआवज़ा देने में रोड़े अटका रहे हैं, पीएसी उन जवानों ने एक बार जान ली थी इनका बर्ताव हर रोज क़त्ल करता है, इस्लामुद्दीन उन 7 परिवारों में से एक है जिनके परिवार के सदस्य की हाशिमपुरा काण्ड में हत्या की गई मगर मुआवज़ा नही मिला.



इस्लामुदीन 1987 में मिली 20-20 हजार की मुआवजे की रसीद दिखाते है और कहते है कि उनके भाई की लाश नही मिली, कपड़े मिले, मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए उन्हें ग़ाज़ियाबाद और मुरादनगर के बीच धक्के खाने पड़े,अफसरों ने हमें कहीं सपोर्ट नही किया, अदालत ने तारीख़ पर तारीख़ लगाई और अफसरों ने शर्त पर शर्त,इस सबके बीच हम बर्बाद हो गए, अंदर से हम जलते रहे और कारोबार सब ठप हो गया.



इस गली में  दीवारो पर गोली के निशाँ अब भी बाकी है,वाजिद (42) कहते है कि निशान सिर्फ दीवारों पर नही बल्कि लोगो के जिस्म पर भी है,31 साल बाद भी हमें यह नही पता चल पाया है कि हमें क्यों मारा गया! रियाजुदीन (56) के अनुसार शायद सरकार मुसलमानो को सबक सिखाना चाहती थी मगर हम तो बहुत गरीब है.



हाशिमपुरा की इस लंबी सी गली में कुछ लोग चर्चा कर रहे हैं कि स्थानीय सांसद राजेंद्र अग्रवाल का एक अखबार (दैनिक जागरण) में बयान छपा है कि उस दिन अगर पीएसी ने बहुसंख्यकों की रक्षा की थी वरना बहुत भारी मारकाट मच जाती,रियाजुदीन बताते है हाशिमपुरा के चारो तरफ बहुसंख्यक आबादी है जो तादाद में कई गुना ज्यादा है खतरा उन्हें ज्यादा यह हमें!



इस्लामुदीन के अनुसार मुसलमानो को सबक सिखाने के लिए हाशिमपुरा का चुनाव हुआ यहाँ तीन दिन तक कत्लेआम हुआ और हेलीकॉप्टर ऊपर मंडराता रहा,

जमालुदीन कहते है कि हाशिमपुरा में हुए इस कत्लेआम के पीछे उस समय के स्थानीय अख़बार भी जिम्मेदार थे उन्होंने इस मौहल्ले की छवि खूंखार की गढ़ दी थी,जिसका रद्देअमल यह देखने को मिला.



पीएसी के जवानों को उम्रकैद के फैसले के बाद भी स्थानीय लोगो के दिल को सुकून नहीं है.

साभारः टू सर्किल डॉट नेट

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