अगर इस तरह के पैकेज पहले आए होते तो कोरोना फैलता ही नहीं। कायदे से सरकार को शुरू में ही ऐसे क्वारंटीन सेंटर बनवाने थे और विदेश से आने वाले हर व्यक्ति को क्वारंटीन किया जाना था या उनका आना रोक देना चाहिए था। पता नहीं सरकार को “आपदा में अवसर” का आईडिया कब आया। पर आपदा को इसीलिए नहीं आने दिया गया हो तो कहा जा सकता है कि आईडिया देर से आया। संभव है, वह पीएम केयर्स को ही अवसर मानने में उलझी हो। अगर कारोबारियों को मौका दिया गया होता ऐसी सुविधा कबकी शुरू हो गई होती। होटलों में भी चल रहा होता। अस्पताल में बेड की कमी नहीं होती।
हालांकि, अभी भी समय है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अभी तक की सरकारी व्यवस्था बेहद लचर रही है और मजबूरी में उसका उपयोग करने वालों ने उसकी भरपूर आलोचना की है। वैसे, शुरू में दिल्ली के छावला स्थित क्वारंटीन सेंटर की तारीफ करने वाले वीडियो खूब आए थे। अब जब सरकारी सुविधा की जरूरत है तो सरकार ने लगभग हाथ खड़े कर दिए हैं। सारे कायदे कानून तीन महीने में उलट-पलट गए। सबसे दिलचस्प रहा दिल्ली सरकार का यह कह देना कि दिल्ली के अस्पतालों में सिर्फ दिल्ली के निवासियों का इलाज होगा और फिर एलजी का उसे पलट देना।
कायदे से , एक निर्वाचित सरकार को ऐसा फैसला लेने और फिर केंद्र सरकार के प्रतिनिधि द्वारा उसे पलटने जैसी यह स्थिति आनी ही नहीं चाहिए थी। पर बीमा कराने वाली सरकार और उसपर बम-बम करने वाली जनता पहले कुछ सोचा होता तो शायद मामला संभल जाता। पर सरकार शायद नसीब के भरोसे बैठी थी और जनता ताली-थाली बजाकर खुश थी। अभी यह स्थिति स्कूलों और दूसरे कई व्यवसायों के मामले में है। स्कूलों से फीस नहीं लेने के लिए कहा जा रहा है। लोग ऐसी मांग भी कर रहे हैं। कुछ लोग नहीं दे रहे हैं। अदालतों का फैसला साफ नहीं है।
मेरे ख्याल से हो भी नहीं सकता है पर वह अलग मुद्दा है। लेकिन चार छह महीने बाद जब भी स्थिति सुधरेगी और बच्चे स्कूल जाएंगे (या जाना चाहेंगे या जाना जरूरी होगा) तब तक क्या वह स्कूल वैसे ही रहेगा। रहना चाहिए? अगर इमारत हो भी तो क्या वेतन नहीं पाने वाले शिक्षक कर्मचारी आएंगे? क्या फीस नहीं पाने वाले स्कूलों ने शिक्षकों कर्मचारियों को वेतन दिया होगा? क्या महीनों बिना वेतन पाए शिक्षक कर्मचारी इस स्थिति में होंगे कि वे बुलाने पर चले आएं? और अगर नहीं आए तो? क्या सरकार तब फिर जबरदस्ती करेगी?
ऐसी ही हालत अस्पतालों का बिल चुकाने के मामले में है। अगर किसी के पास वाकई पैसे न हों तो क्या करे? लोग कहते हैं, इन दिनों तो जमीन जेवर भी नहीं बिक पा रहे हैं। कोई अस्पताल का बिल कैसे चुकाएगा। बीमा की राशि अस्पताल के बिल से कम हो, नहीं हो तो? मध्य प्रदेश की एक खबर कल ही अखबारों में थी जहां अस्पताल ने एक बुजुर्ग मरीज को बांध दिया था क्योंकि उसके पैसे नहीं आए थे। अब पैसे नहीं आने पर मरीज को बांध देना चाहे जितना बड़ा अपराध हो, पैसे नहीं मिलेंगे तो अस्पताल कैसे चलेंगे। जो अस्पताल पैसे लेकर ही इलाज करते हैं वो लोकोपकारी कैसे हो जाएं? अभी ऐसे छिटपुट मामले आ रहे हैं।
संभव है भविष्य में बढ़ जाएं। अगर कोई रास्ता नहीं निकाला गया, सर्वमान्य नियम नहीं बनाए गए तो अराजकता फैल जाएगी। सरकार ऐसी ही स्थितियों के लिए होती है। उसका काम पीएम केयर्स के लिए पैसे जमा करना और जब विवाद हो तो उसका बिल चुका देना नहीं है। उसका काम स्थायी व्यवस्था करना है। आज जिस व्यवस्था की चर्चा या प्रचार है वह मध्यम वर्गीय या जिनके पास पैसे हैं उनके लिए है। पर गरीबों के लिए क्या होगा? सरकार तो चुनाव लड़ रही है या ऐसा कहिए कि जहां चुनाव है वहां की जनता से ‘संपर्क’ कर रही है।
अगर आप अस्पतालों में जगह न होने की खबरों से चिन्तित हैं तो परेशान मत होइए। लिंक देख लीजिए – व्यवस्था हो रही है। बस पैसे होने चाहिए। गरीबों की पूछ पहले भी नहीं थी आप उनके लिए दुबले न हों। वो आत्म निर्भर हो रहे हैं।
हालांकि, अभी भी समय है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अभी तक की सरकारी व्यवस्था बेहद लचर रही है और मजबूरी में उसका उपयोग करने वालों ने उसकी भरपूर आलोचना की है। वैसे, शुरू में दिल्ली के छावला स्थित क्वारंटीन सेंटर की तारीफ करने वाले वीडियो खूब आए थे। अब जब सरकारी सुविधा की जरूरत है तो सरकार ने लगभग हाथ खड़े कर दिए हैं। सारे कायदे कानून तीन महीने में उलट-पलट गए। सबसे दिलचस्प रहा दिल्ली सरकार का यह कह देना कि दिल्ली के अस्पतालों में सिर्फ दिल्ली के निवासियों का इलाज होगा और फिर एलजी का उसे पलट देना।
कायदे से , एक निर्वाचित सरकार को ऐसा फैसला लेने और फिर केंद्र सरकार के प्रतिनिधि द्वारा उसे पलटने जैसी यह स्थिति आनी ही नहीं चाहिए थी। पर बीमा कराने वाली सरकार और उसपर बम-बम करने वाली जनता पहले कुछ सोचा होता तो शायद मामला संभल जाता। पर सरकार शायद नसीब के भरोसे बैठी थी और जनता ताली-थाली बजाकर खुश थी। अभी यह स्थिति स्कूलों और दूसरे कई व्यवसायों के मामले में है। स्कूलों से फीस नहीं लेने के लिए कहा जा रहा है। लोग ऐसी मांग भी कर रहे हैं। कुछ लोग नहीं दे रहे हैं। अदालतों का फैसला साफ नहीं है।
मेरे ख्याल से हो भी नहीं सकता है पर वह अलग मुद्दा है। लेकिन चार छह महीने बाद जब भी स्थिति सुधरेगी और बच्चे स्कूल जाएंगे (या जाना चाहेंगे या जाना जरूरी होगा) तब तक क्या वह स्कूल वैसे ही रहेगा। रहना चाहिए? अगर इमारत हो भी तो क्या वेतन नहीं पाने वाले शिक्षक कर्मचारी आएंगे? क्या फीस नहीं पाने वाले स्कूलों ने शिक्षकों कर्मचारियों को वेतन दिया होगा? क्या महीनों बिना वेतन पाए शिक्षक कर्मचारी इस स्थिति में होंगे कि वे बुलाने पर चले आएं? और अगर नहीं आए तो? क्या सरकार तब फिर जबरदस्ती करेगी?
ऐसी ही हालत अस्पतालों का बिल चुकाने के मामले में है। अगर किसी के पास वाकई पैसे न हों तो क्या करे? लोग कहते हैं, इन दिनों तो जमीन जेवर भी नहीं बिक पा रहे हैं। कोई अस्पताल का बिल कैसे चुकाएगा। बीमा की राशि अस्पताल के बिल से कम हो, नहीं हो तो? मध्य प्रदेश की एक खबर कल ही अखबारों में थी जहां अस्पताल ने एक बुजुर्ग मरीज को बांध दिया था क्योंकि उसके पैसे नहीं आए थे। अब पैसे नहीं आने पर मरीज को बांध देना चाहे जितना बड़ा अपराध हो, पैसे नहीं मिलेंगे तो अस्पताल कैसे चलेंगे। जो अस्पताल पैसे लेकर ही इलाज करते हैं वो लोकोपकारी कैसे हो जाएं? अभी ऐसे छिटपुट मामले आ रहे हैं।
संभव है भविष्य में बढ़ जाएं। अगर कोई रास्ता नहीं निकाला गया, सर्वमान्य नियम नहीं बनाए गए तो अराजकता फैल जाएगी। सरकार ऐसी ही स्थितियों के लिए होती है। उसका काम पीएम केयर्स के लिए पैसे जमा करना और जब विवाद हो तो उसका बिल चुका देना नहीं है। उसका काम स्थायी व्यवस्था करना है। आज जिस व्यवस्था की चर्चा या प्रचार है वह मध्यम वर्गीय या जिनके पास पैसे हैं उनके लिए है। पर गरीबों के लिए क्या होगा? सरकार तो चुनाव लड़ रही है या ऐसा कहिए कि जहां चुनाव है वहां की जनता से ‘संपर्क’ कर रही है।
अगर आप अस्पतालों में जगह न होने की खबरों से चिन्तित हैं तो परेशान मत होइए। लिंक देख लीजिए – व्यवस्था हो रही है। बस पैसे होने चाहिए। गरीबों की पूछ पहले भी नहीं थी आप उनके लिए दुबले न हों। वो आत्म निर्भर हो रहे हैं।