''जब हमारी बच्ची जीते जी कह रही है कि मैं जातिगत भेदभाव का शिकार हूं तो हमें बस पहुंचना है ना हमें मोमबत्तियां लेकर पहुंचना है ना हमें झंडे लेकर मार्च करना है।''
दिल्ली यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस में आर्ट फैकल्टी के गेट के बाहर अगस्त के आख़िरी हफ़्ते से चल रहे दलित एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. ऋतु सिंह के धरने को क़रीब पचास दिन होने को आए। देर शाम हम उनके धरने में एक बार फिर पहुंचे, तमाम लोगों की भीड़ में कुछ चेहरे अपनी तरफ ध्यान खींच रहे थे। माइक पर बारी-बारी से लोग आ रहे थे और डॉ. ऋतु के समर्थन में अपनी बात रख रहे थे। लोग बता रहे थे कि पूरे देश में 2023 में भी दलितों को क्या कुछ झेलना पड़ रहा है। बहुत ही कम रौशनी में हमारा ध्यान गया उन चेहरों पर जो बहुत ही ध्यान से हर किसी की बात सुन रहे थे। अपनी समझ के मुताबिक जब उन्हें सही लग रहा था तो वे ताली भी बजाते। चेहरे पर कोई भाव नहीं, दुबला-पतला शरीर इस बात की चुगली कर रहा था कि पता नहीं इन लोगों ने आख़िरी बार पेट भर पौष्टिक भोजन कब किया था?
''बाबा साहेब की तस्वीर थी तो हमें पता चल गया कि हमारे लोग हैं''
लोगों की भीड़ में बैठे लेकिन अपने हालात की कहानी बयां करते इन लोगों से हमने बात की तो पता चला वे दलित मजदूर हैं। बलबीर वर्मा, बांदा, यूपी से और लल्लू राम, महोबा से इनके साथ एक 12-13 साल का लड़का भी था ये तीनों डॉ ऋतु सिंह के प्रोटेस्ट में शामिल होने हर शाम अपनी बेलदारी, मजदूरी का काम ख़त्म कर पहुंच जाते हैं। वे बताते हैं उन्ही के जैसे क़रीब 20-25 लोग दलित मजदूर हैं और आजकल दिल्ली यूनिवर्सिटी में ही चल रहे कंस्ट्रक्शन के काम में बेलदारी और मजदूरी का काम कर रहे हैं। हमने उनसे पूछा कि उन्हें इस प्रोटेस्ट के बारे में कैसे पता चला तो वे बताते हैं कि '' हम तो काम करके आ रहे थे इस बैनर को देखा जिसपर बाबा साहेब की तस्वीर थी तो हमें पता चल गया कि हमारे लोग हैं तो हम इसमें सम्मिलित हो गए। फिर उन्होंने (डॉ. ऋतु सिंह) हमें सब बताया तो हमें पता चला कि ये हमारे समाज की लड़ाई है, धरना है।''
दिल्ली यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस में आर्ट फैकल्टी के गेट के बाहर अगस्त के आख़िरी हफ़्ते से चल रहे दलित एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. ऋतु सिंह के धरने को क़रीब पचास दिन होने को आए। देर शाम हम उनके धरने में एक बार फिर पहुंचे, तमाम लोगों की भीड़ में कुछ चेहरे अपनी तरफ ध्यान खींच रहे थे। माइक पर बारी-बारी से लोग आ रहे थे और डॉ. ऋतु के समर्थन में अपनी बात रख रहे थे। लोग बता रहे थे कि पूरे देश में 2023 में भी दलितों को क्या कुछ झेलना पड़ रहा है। बहुत ही कम रौशनी में हमारा ध्यान गया उन चेहरों पर जो बहुत ही ध्यान से हर किसी की बात सुन रहे थे। अपनी समझ के मुताबिक जब उन्हें सही लग रहा था तो वे ताली भी बजाते। चेहरे पर कोई भाव नहीं, दुबला-पतला शरीर इस बात की चुगली कर रहा था कि पता नहीं इन लोगों ने आख़िरी बार पेट भर पौष्टिक भोजन कब किया था?
''बाबा साहेब की तस्वीर थी तो हमें पता चल गया कि हमारे लोग हैं''
लोगों की भीड़ में बैठे लेकिन अपने हालात की कहानी बयां करते इन लोगों से हमने बात की तो पता चला वे दलित मजदूर हैं। बलबीर वर्मा, बांदा, यूपी से और लल्लू राम, महोबा से इनके साथ एक 12-13 साल का लड़का भी था ये तीनों डॉ ऋतु सिंह के प्रोटेस्ट में शामिल होने हर शाम अपनी बेलदारी, मजदूरी का काम ख़त्म कर पहुंच जाते हैं। वे बताते हैं उन्ही के जैसे क़रीब 20-25 लोग दलित मजदूर हैं और आजकल दिल्ली यूनिवर्सिटी में ही चल रहे कंस्ट्रक्शन के काम में बेलदारी और मजदूरी का काम कर रहे हैं। हमने उनसे पूछा कि उन्हें इस प्रोटेस्ट के बारे में कैसे पता चला तो वे बताते हैं कि '' हम तो काम करके आ रहे थे इस बैनर को देखा जिसपर बाबा साहेब की तस्वीर थी तो हमें पता चल गया कि हमारे लोग हैं तो हम इसमें सम्मिलित हो गए। फिर उन्होंने (डॉ. ऋतु सिंह) हमें सब बताया तो हमें पता चला कि ये हमारे समाज की लड़ाई है, धरना है।''
लगातार जारी धरने को समर्थन देने के लिए ना सिर्फ दिल्ली से बल्कि देश के दूसरे हिस्सों से भी लोग पहुंच रहे हैं। प्रोफेसर धर्मपाल ने भी जब सोशल मीडिया पर डॉ. ऋतु के बारे में देखा-सुना तो दिल्ली पहुंच गए। प्रोफेसर धर्मपाल बुद्धिस्ट समाज से आते हैं। वे बताते हैं कि अब वो रिटायर हो चुके हैं। वो उस्मानिया विश्वविद्यालय में फैकल्टी ऑफ आर्ट्स के डीन रह चुके हैं साथ ही हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे कहते हैं कि '' मुझे सोशल मीडिया के द्वारा पता चला था कि डॉ. ऋतु के साथ जातिगत भेदभाव हुआ है और उन्हीं के कॉलेज की प्रिंसिपल ने उनके साथ अन्याय किया है। ये बहुत शर्म की बात है कि आज भी हमारे देश में जातिवाद बहुत ज़्यादा बढ़ा हुआ है बल्कि मैं कहूंगा पहले से ज़्यादा जातिवाद आज हमारे देश में हावी है और आज भी देश में जिनको SC या ST कहा जाता है उनके साथ जातिगत भेदभाव होता है।'' प्रोफेसर धर्मपाल मनुवाद और मनुस्मृति की कई बातों को कोट करते हुए कहते हैं ''जो लोग मनुस्मृति को मानते हैं वो बाबा साहब के संविधान को नहीं मानते बल्कि संविधान का अपमान करते हैं और पूरे देश में इन्होंने यही माहौल बना रखा है।'' वे आगे कहते हैं कि ''डॉ. ऋतु सिंह को न्याय दिलाने के लिए बहुजन समाज को एक होकर मनुवाद के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी।''
इस धरने में दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों से पहुंचे कुछ लोगों से भी हमने बात की। करावल नगर से आए तारा भइया मिले। वे बताते हैं कि कैसे उन्हें इस धरने के बारे में पता चला और कैसे वो इस धरने के साथ जुड़ गए ''जैसे ही हमें पता चला डॉ. ऋतु अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ रही हैं तो हमने अपने एरिया में छोटी-छोटी मीटिंग की कि समाज की बेटी वहां बैठी है तो हमें उसका साथ देना चाहिए और एक बहुत बड़ा समूह बना और उस दिन से हम लगातार आ रहे हैं। जिस तरह से कॉलेजों में अन्याय बढ़ रहा है हम उसके खिलाफ हैं। यहां जो लोग रुकते हैं उनके लिए हम घर से खाना ले आते हैं। हम फिर से अपने इलाके में मीटिंग कर रहे हैं जब भी डॉ. ऋतु कहेंगी, जब दोबारा उनका प्रोटेस्ट मार्च निकलेगा तो हम समाज के लोगों के साथ पहुंचेगे।''
डॉ. ऋतु सिंह के इस संघर्ष को 'मिशन सेव कॉन्स्टिट्यूशन' नाम की संस्था सहयोग कर रही हैं। सीनियर एडवोकेट महमूद प्राचा समेत कई सीनियर वकील उनकी इस लड़ाई में शामिल हो गए हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि डॉ. ऋतु सिंह की लड़ाई अब एक आंदोलन में तब्दील होती नज़र आ रही है जिस पर उनका कहना है कि ''ये लड़ाई आंदोलन में बदल गई है क्योंकि समाज को इस दर्द का, इस पीड़ा का एहसास हो गया है कि हमारी बच्ची जब सड़क पर बैठी है इतने दिनों से, ये दर्द हर उस मां को महसूस होगा, हर बाप को लग रहा होगा, हर उस भाई और दादा को लग रहा होगा कि मेरी पोती सड़क पर बैठी है तो मुझे जाना है। 5 अक्टूबर को यहां जो जनसैलाब था वो इसी पीड़ा को दिखा रहा था जब हमारी बच्ची जीते जी कह रही है कि मैं जातिगत भेदभाव का शिकार हूं तो हमें पहुंचना है ना की हमें मोमबत्तियां लेकर पहुंचना है, ना कि हमें झंडे लेकर मार्च करने जाना है।''
''समरवीर के जीते जी किसी ने साथ नहीं दिया, मौत के बाद रैली निकाल रहे थे''
इसके साथ ही डॉ. ऋतु सिंह नाराज़गी भरे लहजे़ में कहती हैं कि ''इस आंदोलन से कई छात्र संगठन और टीचर्स के संगठन भी एक्सपोज़ हुए हैं। क्योंकि जब रोहित वेमुला दुनिया से चले गए तो लोग झंडा और मोमबत्तियां लेकर आ गए थे। हिंदू कॉलेज के शिक्षक समरवीर का जब इंस्टीट्यूशनल मर्डर हुआ तो सब आ गए लेकिन जीते जी किसी ने उनका साथ नहीं दिया। परिवार का इकलौता कमाने वाला था। जिस दिन उनकी मौत हो गई उस दिन सारे रैली कर रहे थे। मोमबत्तियां जला रहे थे। प्रदर्शन कर रहे थे। जो लोग ऐसा कर रहे वो अवसरवादी थे। अब हमारे समाज के लोगों की आंखें खुल गई है इस प्रदर्शन से।''
डॉ. ऋतु सिंह कहती हैं कि '' शुरुआत मनुवादियों ने की थी ख़त्म आंबेडकरवादी करेंगे और सत्य को जितना मजबूर करते हैं तो वो उतना मजबूत होता है और ये आने वाले वक़्त में दिखेगा।''
''दलित की बेटी भारत की बेटी नहीं होती''
हमने डॉ ऋतु सिंह से जानने की कोशिश की इतने दिनों से वो धरने पर बैठी हैं क्या एडमिनिस्ट्रेशन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया आई? जिसके जवाब में ऋतु सिंह कहती हैं कि '' इतने दिन हो गए यूनिवर्सिटी ने रिएक्ट नहीं किया इसमें कोई टेक्निकल चीज़ नहीं है बहुत आसान चीज़ है मैं जो फील कर रही हूं वो ये कि दलित की बेटी भारत की बेटी नहीं होती। ये याद रखना दलित की बेटी के लिए आंदोलन करने के लिए सिर्फ दलित आते हैं। दलित की बेटी के लिए जंतर-मंतर पर भीड़ इकट्ठा नहीं होती।'' वे आरोप लगाते हुए आगे कहती हैं कि ''अगर सविता रॉय पर कार्रवाई होगी तो और भी कई नाम सामने आएंगे, इसलिए सब चुप हैं।''
वे और भी गंभीर आरोप लगाते हुए कहती हैं कि '' मुझे चुप करवाने की कोशिश की गई। वॉशरूम जाते वक़्त मुझे रोका गया और जिसे हमने पकड़ा उसने ख़ुद कई खुलासे किए। उन सबूतों के आधार पर वीसी, प्रॉक्टर और यहां के सिक्योरिटी इंचार्ज पर SC, ST एक्ट के तहत FIR दर्ज करवाई गई है।''
हमने इन आरोप के बारे में प्रतिक्रिया लेने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रॉक्टर डॉ. विकास गुप्ता से संपर्क करने की बहुत कोशिश की लेकिन ख़बर लिखे जाने तक उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिल पाई।
कौन हैं डॉ. ऋतु सिंह?
डॉ. ऋतु सिंह एक दलित शिक्षक हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के साइकोलॉजी डिपार्टमेंट से पीएचडी पूरी करने के एक महीने बाद ही दौलत राम कॉलेज में एससी कैटेगरी में एडहॉक की वैकेंसी निकली जिसमें उन्होंने आवेदन किया और जॉइनिंग होने पर वे असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर पढ़ाने लगीं। अगस्त 2019 से अगस्त 2020 तक उन्होंने कॉलेज में पढ़ाया। लेकिन 2020 में उन्हें कॉलेज से हटा दिया गया। ऋतु सिंह का आरोप है कि उन्हें जातिगत आधार पर हटाया गया और एक साल (2019 से 2020) जब उन्होंने कॉलेज में पढ़ाया था उस दौरान भी कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. सविता रॉय ने उनके साथ जातिगत भेदभाव किया। हटाए जाने के विरोध में ऋतु सिंह ने उस वक़्त कॉलेज के बाहर धरना दिया जो दस दिन से ज़्यादा चला। लेकिन कोविड गाइडलाइन की वजह से उन्हें धरने से उठना पड़ा। तब से वे लगातार क़ानूनी लड़ाई लड़ रही हैं। ये मामले एससी कमीशन पहुंचा। कई गंभीर धाराओं के साथ मामला दर्ज हो चुका है, चार्जशीट भी दायर की जा चुकी है।
देश के नामी विश्वविद्यालय के बाहर बैठी एक दलित बेटी संघर्ष कर रही है और ये संघर्ष कब तक चलेगा कोई नहीं जानता। लेकिन यूनिविर्सिटी प्रशासन को भी क्या इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता?
दिल्ली यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस में आर्ट फैकल्टी के गेट के बाहर अगस्त के आख़िरी हफ़्ते से चल रहे दलित एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. ऋतु सिंह के धरने को क़रीब पचास दिन होने को आए। देर शाम हम उनके धरने में एक बार फिर पहुंचे, तमाम लोगों की भीड़ में कुछ चेहरे अपनी तरफ ध्यान खींच रहे थे। माइक पर बारी-बारी से लोग आ रहे थे और डॉ. ऋतु के समर्थन में अपनी बात रख रहे थे। लोग बता रहे थे कि पूरे देश में 2023 में भी दलितों को क्या कुछ झेलना पड़ रहा है। बहुत ही कम रौशनी में हमारा ध्यान गया उन चेहरों पर जो बहुत ही ध्यान से हर किसी की बात सुन रहे थे। अपनी समझ के मुताबिक जब उन्हें सही लग रहा था तो वे ताली भी बजाते। चेहरे पर कोई भाव नहीं, दुबला-पतला शरीर इस बात की चुगली कर रहा था कि पता नहीं इन लोगों ने आख़िरी बार पेट भर पौष्टिक भोजन कब किया था?
''बाबा साहेब की तस्वीर थी तो हमें पता चल गया कि हमारे लोग हैं''
लोगों की भीड़ में बैठे लेकिन अपने हालात की कहानी बयां करते इन लोगों से हमने बात की तो पता चला वे दलित मजदूर हैं। बलबीर वर्मा, बांदा, यूपी से और लल्लू राम, महोबा से इनके साथ एक 12-13 साल का लड़का भी था ये तीनों डॉ ऋतु सिंह के प्रोटेस्ट में शामिल होने हर शाम अपनी बेलदारी, मजदूरी का काम ख़त्म कर पहुंच जाते हैं। वे बताते हैं उन्ही के जैसे क़रीब 20-25 लोग दलित मजदूर हैं और आजकल दिल्ली यूनिवर्सिटी में ही चल रहे कंस्ट्रक्शन के काम में बेलदारी और मजदूरी का काम कर रहे हैं। हमने उनसे पूछा कि उन्हें इस प्रोटेस्ट के बारे में कैसे पता चला तो वे बताते हैं कि '' हम तो काम करके आ रहे थे इस बैनर को देखा जिसपर बाबा साहेब की तस्वीर थी तो हमें पता चल गया कि हमारे लोग हैं तो हम इसमें सम्मिलित हो गए। फिर उन्होंने (डॉ. ऋतु सिंह) हमें सब बताया तो हमें पता चला कि ये हमारे समाज की लड़ाई है, धरना है।''
दिल्ली यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस में आर्ट फैकल्टी के गेट के बाहर अगस्त के आख़िरी हफ़्ते से चल रहे दलित एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. ऋतु सिंह के धरने को क़रीब पचास दिन होने को आए। देर शाम हम उनके धरने में एक बार फिर पहुंचे, तमाम लोगों की भीड़ में कुछ चेहरे अपनी तरफ ध्यान खींच रहे थे। माइक पर बारी-बारी से लोग आ रहे थे और डॉ. ऋतु के समर्थन में अपनी बात रख रहे थे। लोग बता रहे थे कि पूरे देश में 2023 में भी दलितों को क्या कुछ झेलना पड़ रहा है। बहुत ही कम रौशनी में हमारा ध्यान गया उन चेहरों पर जो बहुत ही ध्यान से हर किसी की बात सुन रहे थे। अपनी समझ के मुताबिक जब उन्हें सही लग रहा था तो वे ताली भी बजाते। चेहरे पर कोई भाव नहीं, दुबला-पतला शरीर इस बात की चुगली कर रहा था कि पता नहीं इन लोगों ने आख़िरी बार पेट भर पौष्टिक भोजन कब किया था?
''बाबा साहेब की तस्वीर थी तो हमें पता चल गया कि हमारे लोग हैं''
लोगों की भीड़ में बैठे लेकिन अपने हालात की कहानी बयां करते इन लोगों से हमने बात की तो पता चला वे दलित मजदूर हैं। बलबीर वर्मा, बांदा, यूपी से और लल्लू राम, महोबा से इनके साथ एक 12-13 साल का लड़का भी था ये तीनों डॉ ऋतु सिंह के प्रोटेस्ट में शामिल होने हर शाम अपनी बेलदारी, मजदूरी का काम ख़त्म कर पहुंच जाते हैं। वे बताते हैं उन्ही के जैसे क़रीब 20-25 लोग दलित मजदूर हैं और आजकल दिल्ली यूनिवर्सिटी में ही चल रहे कंस्ट्रक्शन के काम में बेलदारी और मजदूरी का काम कर रहे हैं। हमने उनसे पूछा कि उन्हें इस प्रोटेस्ट के बारे में कैसे पता चला तो वे बताते हैं कि '' हम तो काम करके आ रहे थे इस बैनर को देखा जिसपर बाबा साहेब की तस्वीर थी तो हमें पता चल गया कि हमारे लोग हैं तो हम इसमें सम्मिलित हो गए। फिर उन्होंने (डॉ. ऋतु सिंह) हमें सब बताया तो हमें पता चला कि ये हमारे समाज की लड़ाई है, धरना है।''
लगातार जारी धरने को समर्थन देने के लिए ना सिर्फ दिल्ली से बल्कि देश के दूसरे हिस्सों से भी लोग पहुंच रहे हैं। प्रोफेसर धर्मपाल ने भी जब सोशल मीडिया पर डॉ. ऋतु के बारे में देखा-सुना तो दिल्ली पहुंच गए। प्रोफेसर धर्मपाल बुद्धिस्ट समाज से आते हैं। वे बताते हैं कि अब वो रिटायर हो चुके हैं। वो उस्मानिया विश्वविद्यालय में फैकल्टी ऑफ आर्ट्स के डीन रह चुके हैं साथ ही हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे कहते हैं कि '' मुझे सोशल मीडिया के द्वारा पता चला था कि डॉ. ऋतु के साथ जातिगत भेदभाव हुआ है और उन्हीं के कॉलेज की प्रिंसिपल ने उनके साथ अन्याय किया है। ये बहुत शर्म की बात है कि आज भी हमारे देश में जातिवाद बहुत ज़्यादा बढ़ा हुआ है बल्कि मैं कहूंगा पहले से ज़्यादा जातिवाद आज हमारे देश में हावी है और आज भी देश में जिनको SC या ST कहा जाता है उनके साथ जातिगत भेदभाव होता है।'' प्रोफेसर धर्मपाल मनुवाद और मनुस्मृति की कई बातों को कोट करते हुए कहते हैं ''जो लोग मनुस्मृति को मानते हैं वो बाबा साहब के संविधान को नहीं मानते बल्कि संविधान का अपमान करते हैं और पूरे देश में इन्होंने यही माहौल बना रखा है।'' वे आगे कहते हैं कि ''डॉ. ऋतु सिंह को न्याय दिलाने के लिए बहुजन समाज को एक होकर मनुवाद के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी।''
इस धरने में दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों से पहुंचे कुछ लोगों से भी हमने बात की। करावल नगर से आए तारा भइया मिले। वे बताते हैं कि कैसे उन्हें इस धरने के बारे में पता चला और कैसे वो इस धरने के साथ जुड़ गए ''जैसे ही हमें पता चला डॉ. ऋतु अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ रही हैं तो हमने अपने एरिया में छोटी-छोटी मीटिंग की कि समाज की बेटी वहां बैठी है तो हमें उसका साथ देना चाहिए और एक बहुत बड़ा समूह बना और उस दिन से हम लगातार आ रहे हैं। जिस तरह से कॉलेजों में अन्याय बढ़ रहा है हम उसके खिलाफ हैं। यहां जो लोग रुकते हैं उनके लिए हम घर से खाना ले आते हैं। हम फिर से अपने इलाके में मीटिंग कर रहे हैं जब भी डॉ. ऋतु कहेंगी, जब दोबारा उनका प्रोटेस्ट मार्च निकलेगा तो हम समाज के लोगों के साथ पहुंचेगे।''
डॉ. ऋतु सिंह के इस संघर्ष को 'मिशन सेव कॉन्स्टिट्यूशन' नाम की संस्था सहयोग कर रही हैं। सीनियर एडवोकेट महमूद प्राचा समेत कई सीनियर वकील उनकी इस लड़ाई में शामिल हो गए हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि डॉ. ऋतु सिंह की लड़ाई अब एक आंदोलन में तब्दील होती नज़र आ रही है जिस पर उनका कहना है कि ''ये लड़ाई आंदोलन में बदल गई है क्योंकि समाज को इस दर्द का, इस पीड़ा का एहसास हो गया है कि हमारी बच्ची जब सड़क पर बैठी है इतने दिनों से, ये दर्द हर उस मां को महसूस होगा, हर बाप को लग रहा होगा, हर उस भाई और दादा को लग रहा होगा कि मेरी पोती सड़क पर बैठी है तो मुझे जाना है। 5 अक्टूबर को यहां जो जनसैलाब था वो इसी पीड़ा को दिखा रहा था जब हमारी बच्ची जीते जी कह रही है कि मैं जातिगत भेदभाव का शिकार हूं तो हमें पहुंचना है ना की हमें मोमबत्तियां लेकर पहुंचना है, ना कि हमें झंडे लेकर मार्च करने जाना है।''
''समरवीर के जीते जी किसी ने साथ नहीं दिया, मौत के बाद रैली निकाल रहे थे''
इसके साथ ही डॉ. ऋतु सिंह नाराज़गी भरे लहजे़ में कहती हैं कि ''इस आंदोलन से कई छात्र संगठन और टीचर्स के संगठन भी एक्सपोज़ हुए हैं। क्योंकि जब रोहित वेमुला दुनिया से चले गए तो लोग झंडा और मोमबत्तियां लेकर आ गए थे। हिंदू कॉलेज के शिक्षक समरवीर का जब इंस्टीट्यूशनल मर्डर हुआ तो सब आ गए लेकिन जीते जी किसी ने उनका साथ नहीं दिया। परिवार का इकलौता कमाने वाला था। जिस दिन उनकी मौत हो गई उस दिन सारे रैली कर रहे थे। मोमबत्तियां जला रहे थे। प्रदर्शन कर रहे थे। जो लोग ऐसा कर रहे वो अवसरवादी थे। अब हमारे समाज के लोगों की आंखें खुल गई है इस प्रदर्शन से।''
डॉ. ऋतु सिंह कहती हैं कि '' शुरुआत मनुवादियों ने की थी ख़त्म आंबेडकरवादी करेंगे और सत्य को जितना मजबूर करते हैं तो वो उतना मजबूत होता है और ये आने वाले वक़्त में दिखेगा।''
''दलित की बेटी भारत की बेटी नहीं होती''
हमने डॉ ऋतु सिंह से जानने की कोशिश की इतने दिनों से वो धरने पर बैठी हैं क्या एडमिनिस्ट्रेशन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया आई? जिसके जवाब में ऋतु सिंह कहती हैं कि '' इतने दिन हो गए यूनिवर्सिटी ने रिएक्ट नहीं किया इसमें कोई टेक्निकल चीज़ नहीं है बहुत आसान चीज़ है मैं जो फील कर रही हूं वो ये कि दलित की बेटी भारत की बेटी नहीं होती। ये याद रखना दलित की बेटी के लिए आंदोलन करने के लिए सिर्फ दलित आते हैं। दलित की बेटी के लिए जंतर-मंतर पर भीड़ इकट्ठा नहीं होती।'' वे आरोप लगाते हुए आगे कहती हैं कि ''अगर सविता रॉय पर कार्रवाई होगी तो और भी कई नाम सामने आएंगे, इसलिए सब चुप हैं।''
वे और भी गंभीर आरोप लगाते हुए कहती हैं कि '' मुझे चुप करवाने की कोशिश की गई। वॉशरूम जाते वक़्त मुझे रोका गया और जिसे हमने पकड़ा उसने ख़ुद कई खुलासे किए। उन सबूतों के आधार पर वीसी, प्रॉक्टर और यहां के सिक्योरिटी इंचार्ज पर SC, ST एक्ट के तहत FIR दर्ज करवाई गई है।''
हमने इन आरोप के बारे में प्रतिक्रिया लेने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रॉक्टर डॉ. विकास गुप्ता से संपर्क करने की बहुत कोशिश की लेकिन ख़बर लिखे जाने तक उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिल पाई।
कौन हैं डॉ. ऋतु सिंह?
डॉ. ऋतु सिंह एक दलित शिक्षक हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के साइकोलॉजी डिपार्टमेंट से पीएचडी पूरी करने के एक महीने बाद ही दौलत राम कॉलेज में एससी कैटेगरी में एडहॉक की वैकेंसी निकली जिसमें उन्होंने आवेदन किया और जॉइनिंग होने पर वे असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर पढ़ाने लगीं। अगस्त 2019 से अगस्त 2020 तक उन्होंने कॉलेज में पढ़ाया। लेकिन 2020 में उन्हें कॉलेज से हटा दिया गया। ऋतु सिंह का आरोप है कि उन्हें जातिगत आधार पर हटाया गया और एक साल (2019 से 2020) जब उन्होंने कॉलेज में पढ़ाया था उस दौरान भी कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. सविता रॉय ने उनके साथ जातिगत भेदभाव किया। हटाए जाने के विरोध में ऋतु सिंह ने उस वक़्त कॉलेज के बाहर धरना दिया जो दस दिन से ज़्यादा चला। लेकिन कोविड गाइडलाइन की वजह से उन्हें धरने से उठना पड़ा। तब से वे लगातार क़ानूनी लड़ाई लड़ रही हैं। ये मामले एससी कमीशन पहुंचा। कई गंभीर धाराओं के साथ मामला दर्ज हो चुका है, चार्जशीट भी दायर की जा चुकी है।
देश के नामी विश्वविद्यालय के बाहर बैठी एक दलित बेटी संघर्ष कर रही है और ये संघर्ष कब तक चलेगा कोई नहीं जानता। लेकिन यूनिविर्सिटी प्रशासन को भी क्या इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता?