अरावली के नाम पर विकास, इतिहास के नाम पर राजनीति हिंदुत्व का पूंजीवादी–ब्राह्मणवादी राजस्थान मॉडल 

Written by Aditya Krishna | Published on: December 24, 2025
यह निबंध इस दोहरी रणनीति को समझने का प्रयास है। यह आलोचना किसी सामाजिक समुदाय की नहीं, बल्कि राजस्थान राज्य में हिंदुत्व की नीतियों को उजागर करता है ।


साभार : आजतक; प्रतीकात्मक तस्वीर

दिसंबर 2025 की शुरुआत में ही राजस्थान के शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने 6 दिसंबर अर्थात बाबरी विध्वंस दिवस को "शौर्य दिवस" के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा। और लगभग उसी समय सुप्रीम कोर्ट में अरावली क्षेत्र में खनन को लेकर एक नई प्रस्तावना पारित हुई, जिसके अनुसार 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों में ,अर्थात अधिकतर पर्वतमाला में, खनन को वैध करार दिया गया। पहली दृष्टि में इन दोनों में संबंध  नहीं दिखता हो किन्तु गहराई से देखने पर, ये एक ही राजनीतिक–आर्थिक परियोजना के दो पूरक चेहरे साबित होते हैं। एक और जहां इतिहास के नाम पर समाज को धार्मिक और जातिगत रूप से उलझाया जा रहा है , तो दूसरी ओर विकास के नाम पर थार के ओरण और अरावली जैसी जीवनदायी को पूंजीपतियों को कानून रूप से हवाले किया जा रहा है। 

इसे मात्र संयोग मानना भूल होगी।मात्र संयोग मानना भूल होगी। राजस्थान में हिंदुत्व की राजनीति दरअसल एक व्यापक पूंजीवादी–ब्राह्मणवादी मॉडल के भीतर काम करती है—जहाँ ब्राह्मणवादी वैचारिकी इतिहास और संस्कृति पर नियंत्रण स्थापित करती है, और पूंजीवादी हित प्राकृतिक संसाधनों, भूमि और श्रम का दोहन करते हैं। इतिहास के नाम पर राजपूत–मुस्लिम विमर्श को उछालना और विकास के नाम पर अरावली का खनन—दोनों का साझा उद्देश्य यही है कि वास्तविक सत्ता संरचना, कॉरपोरेट लाभार्थी और संस्थागत वर्चस्व कभी भी जनता के सवालों के केंद्र में न आएँ।

यह निबंध इस दोहरी रणनीति को समझने का प्रयास है। यह आलोचना किसी सामाजिक समुदाय की नहीं, बल्कि राजस्थान राज्य में हिंदुत्व की नीतियों को उजागर करता है ।

कैबिनेट और नेतृत्व: संख्याएं कहानी बताती हुई 

2024 की शुरुआत में, जब बीजेपी ने भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री, सी.पी. जोशी को प्रदेश अध्यक्ष और बाबूलाल शर्मा को जयपुर प्रांत प्रचारक बनाया, तो यह स्पष्ट संकेत था कि सत्ता ब्राह्मण-राज की ओर बढ़ रही है—राज्य की आबादी में बेहद कम हिस्सेदारी के बावजूद शीर्ष तीन पदों पर ब्राह्मण नेतृत्व। हालांकि कुछ विरोध के बाद सी.पी. जोशी की जगह ओबीसी तेली समुदाय के मदन राठौड़ को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया।
नौकरशाही: सत्ता का सबसे शक्तिशाली और छिपा औज़ार

नौकरशाही वह जगह है जहाँ वास्तविक इंजीनियरिंग होती है। राष्ट्रीय अध्ययनों से स्पष्ट है कि वरिष्ठ आईएएस/आईपीएस पदों पर ब्राह्मणों का भारी प्रतिनिधित्व है, जबकि उनकी जनसंख्या बेहद कम है। राजस्थान में कई बार पदोन्नति और चयन विवाद हुए हैं जहां ब्राह्मण–बनिया उम्मीदवारों को राजपूत, एससी, एसटी और ओबीसी उम्मीदवारों पर बढ़त मिली। उदाहरण के लिए, राजस्थान के निवर्तमान मुख्य सचिव सुधांश पंत, नए मुख्य सचिव बी श्रीनिवासन और वित्त सचिव वैभव गैलरिया ब्राह्मण हैं। 

इसके अलावा मुख्यमंत्री कार्यालय में तैनात 24 अधिकारियों में से 09 ब्राह्मण हैं—यानी एक-तिहाई से अधिक। यही प्रवृत्ति विश्वविद्यालयों और न्यायपालिका की नियुक्तियों में भी दिखाई देती है। राजस्थान विश्वविद्यालय में 8 में से 5 डीन ब्राह्मण हैं। प्रदेश के 32 सरकारी विश्वविद्यालयों में से 11 में ब्राह्मण कुलपतियों की नियुक्ति—इतनी छोटी जनसंख्या के लिए चौंकाने वाली अधिकता है।
इसी तरह, जहाँ कई जिलों में एसपी के पदों पर ब्राह्मण और बनिया अधिकारी हैं, वहीं सिर्फ एक राजपूत एसपी है और एक भी मुस्लिम नहीं।

ये प्रशासनिक संरचनाएँ तय करती हैं कि कौन-सी किताबें छपेंगी, किन धार्मिक बोर्डों को फंड मिलेगा और किन मामलों में पुलिस कार्रवाई प्राथमिकता से होगी। ब्राह्मण अधिकारियों का वर्चस्व यह सुनिश्चित करता है कि हिंदुत्व एजेंडा ब्राह्मण-पक्षीय दृष्टिकोणों के साथ लागू हो। उदाहरण के लिए, भजनलाल शर्मा और जोशी (भले ही अब प्रदेश अध्यक्ष नहीं हैं) अक्सर परशुराम-आधारित आयोजनों में उपस्थित रहते हैं । हाल ही में शर्मा ने परशुराम ज्ञानपीठ का उद्घाटन किया।
इस प्रकार, चयन और नियुक्तियों के माध्यम से संस्थागत कब्ज़ा नीति-निर्माण और उसके प्रवर्तन को इन जातियों के पक्ष में सुनिश्चित करता है । विप्र बोर्ड, विप्र फाउंडेशन, ब्राह्मण-नियंत्रित ज्ञानपीठ, शाकाहार का प्रसार और गौ-रक्षा कानूनों का चयनात्मक प्रयोग इसकी मिसालें हैं।

राजस्थान में ब्राह्मणवाद-पूंजीवादी गठजोड़

हाल ही में अतिरिक्त मुख्य सचिव शिखर अग्रवाल को रीको (RIICO) का अतिरिक्त प्रभार दिया गया। राजस्थान विशेषकर मारवाड़, जयपुर–शेखावटी हमेशा से बिरला, बजाज, मित्तल, गोदरेज, झुनझुनवाला, अग्रवाल और खत्री जैसे प्रमुख बनिया उद्योगपतियों का केंद्र रहा है। राजस्थान में हिंदुत्व का ढांचा सिर्फ ब्राह्मण वैचारिक प्रभुत्व और नौकरशाही पकड़ पर नहीं टिका है, बल्कि बनिया कॉरपोरेट पूंजी पर भी टिकता है। ब्राह्मण वैचारिक वैधता और प्रशासनिक नियंत्रण देते हैं; बनिये पूंजी, चुनाव फंडिंग और मीडिया पर स्वामित्व रखते हैं ।
खनन, रियल एस्टेट और ऊर्जा क्षेत्र मे  मुख्यतः बनिया-नियंत्रित कंपनियों को लाभ पहुंचाया जाता है। सोलर पार्क, सीमेंट और इंफ्रास्ट्रक्चर के ठेके अदाणी, बिरला और मित्तल समूहों के पास अधिक जाते हैं। जीएसटी के केंद्रीकरण ने छोटे व्यापारियों को कमजोर कर बड़े कॉरपोरेट्स को मजबूत किया है।
अदाणी समूह का खनन, सौर परियोजनाओं और लॉजिस्टिक्स में तेजी से विस्तार; बिरला और मित्तल समूहों के सीमेंट, दूरसंचार और शिक्षा क्षेत्र में सुरक्षित हित; स्थानीय खत्री–महाजन नेटवर्क का एसएमई सुधारों के तहत सुरक्षित विस्तार यह सब इसी गठबंधन को दर्शाता है। 

दूसरी ओर, राजस्थान के मुसलमान जो कला, हस्तशिल्प और स्थानीय व्यापार में मजबूत थे, उन्हें बदनाम कर आर्थिक रूप से हाशिये पर धकेला जा रहा है। इसी तरह, छोटे राजपूत किसानों की कृषि भूमि और ओरणों, तथा राजपूत कुलीनों की परंपरागत धरोहर को प्रायः "सामंतवाद" के नाम देकर  निशाना बनाया जाता है। जबकि सरकार ब्राह्मण, बनिया और जाट आर्थिक वर्चस्व को बढ़ावा देती  है एवं दूसरी और भ्रमित सामाजिक विमर्श द्वारा मुस्लिम और क्षत्रिय समाज को सुनियोजित तरीके से आर्थिक चोट पहुंचाई जाती है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली क्षेत्र में खनन को लेकर दी गई 100 मीटर की परिभाषा व्यापारी-पूंजीपति वर्ग और किसान-पशुपालक-आदिवासी वर्ग के द्वंद्व को दर्शाता है और राज्य सरकार की  पूंजीपति वर्ग से गठबंधन को रेखांकित करता है।  

क्षत्रिय-मुस्लिम इतिहास विकृतिकरण : वर्चस्व से ध्यान भटकाने हेतु सामाजिक टकराव

राजस्थान को लेकर आज जो राजनीतिक उद्देश्यों से गढ़ा गया लोकप्रिय विमर्श है, वह प्रायः अठारहवीं सदी से पहले के दौर में स्थानीय राज्यों और दिल्ली की तुर्की-तैमूरी शक्तियों के बीच हुए संघर्षों तक ही सीमित कर दिया जाता है । जबकि इसके विपरीत, उन्नीसवीं सदी से आज तक राजस्थान का ऐतिहासिक यथार्थ यह रहा है कि वह हमेशा से एक ओर किसान, पशुपालक और आदिवासी समाजों, तथा दूसरी ओर शहरी व्यापारी-साहूकार हितों के बीच टकराव का प्रमुख क्षेत्र रहा है ।

राजस्थानी मुसलमान या तो एससी–एसटी परिवर्तित हैं या राजपूत परिवर्तित। कयामखानी (मारवाड़–बीकानेर), सिंधीसिपाही (जैसलमेर), और ख़ानज़ादा  (मेवात) मुस्लिम राजपूत हैं। इसी तरह मिरासी, रंगरेज, लांगा, मेव—सभी क्षत्रियों की परंपरागत संस्कृति का हिस्सा हैं। अधिकांश रियासतों में मुसलमानों की क्षत्रियों से निकटता के कारण एंटी-मुस्लिम ध्रुवीकरण ब्रिटिश इंडिया के मुकाबले नगण्य था।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में संस्कृतिकरण और क्षत्रियकरण की रणनीतियों से यह तेजी से बदल गया है। गौर कीजिये कि राजस्थान के इतिहास में मुगलों को मुख्य विलेन स्थापित करने के लिए 18वी में हुए पेशवाों द्वारा लूट को ऐतिहासिक विमर्श से गायब कर दिया गया। इसी प्रकार, स्थानीय मुसलमानों को विदेशी हमलावर साबित करने के साथ-साथ, राजपूतों के खिलाफ भी विरोधाभासी हमले बढे हैं — जहां एक ओर आम राजपूत नागरिकों (मिडल क्लास, किसान, स्टूडेंट्स) को 'सामंतवादी' बोलकर टारगेट किया जाता है, तो दूसरी ओर मध्यकालीन राजपूत शासकों और सामंतों की सामुदायिक पहचान पर आक्रामक दावे किय जाते हैं। जाट और गुज्जर समुदायों का मिहिर भोज प्रतिहार, अनंगपाल तोमर और पृथ्वीराज चौहान पर दावा और भाजपा द्वारा उन्हें प्रोत्साहित करना इसी  राजनैतिक षड्यंत्र का हिस्सा रहा है।

दलित खटीक समाज से आने वाले शिक्षा मंत्री मदन दिलावर द्वारा बाबरी विध्वंस दिवस (6 दिसंबर) को शौर्य दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव या 6 दिसंबर को एक बड़े पॉडकास्ट में दलित लेखक ताराराम गौतम द्वारा राजपूत समाज को लेकर कहना कि राजपूतों की उत्पत्ति मुगलों को बेटियां देने से हुई - इसी सामाजिक प्रक्रिया को उल्लेख करती हैं जहां ‘प्रॉक्सी इंटरवेंशन’ के ज़रिये मुस्लिम और क्षत्रिय समाज को बारी बारी टारगेट किया जाता है। अतः इतिहास के चयनित उल्लेखों और उसके विकृतिकरण के माध्यम से आम जन को यह अहसास करवाया जा रहा है, मानो आज भी दिल्ली में मुस्लिम शासकों का राज है और राजस्थान में राजपूत शासकों का।   दिलावर मुस्लिम समाज को टारगेट करते  हैं, ताराराम राजपूत समाज को, जबकि संस्थाओं, संसाधनों और राजनीति में जिनका दबदबा है - वे लोकविमर्श से सुरक्षित रहते हैं ।    

यह है हिंदुत्व का राजस्थान मॉडल जहां अरावली, ओरण इत्यादि जैसे जीवनदायी स्त्रोतों को पूंजीवाद के हवाले किया जा रहा है, सरकार प्रशासन में खुलकर ब्राह्मणवाद चलाया जा रहा है - और इन सबसे ध्यान भटकाने के लिए इतिहास का इस्तेमाल हो रहा है।  

अस्वीकृति: यहाँ व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, और यह अनिवार्य रूप से सबरंग इंडिया के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

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