आवाज़ दबाने का षड्यंत्र: भीमा कोरेगांव केस के प्रथम शिकार, दलित प्रवासी कामगार

Written by Sabrangindia Staff | Published on: October 17, 2018

10 महीने के बाद भी पुरुष जेल में क़ैद हैं और उनकी पत्नियाँ न्याय के लिए दर दर भटक रही हैं.


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12 जनवरी, 2018 को, पुणे में भीमा कोरेगांव एल्गार परिषद कार्यक्रम के दो हफ्ते बाद, महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवाद विरोधी दल (एटीएस) ने रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर के चार श्रमिकों, एक ठेकेदार और एक अनियत श्रमिक को उठा लिया. गिरफ्तारी से पहले घंटों तक देर रात झोपड़पट्टी में उनके घरों पर छापा मारा गया था. एक दिन पहले एक यूनियन कार्यकर्ता को भी गिरफ्तार कर लिया गया था. एटीएस टीम ने अगले कुछ दिनों तक उसी  कंपनी के कई अन्य श्रमिकों से पूछताछ की और आखिरकार 25 जनवरी को रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर से एक और व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया. यह गौरतलब है कि सभी आठ गिरफ्तार पुरुष आंध्र प्रदेश और तेलंगाना क्षेत्र के प्रवासी मजदूर हैं. उन सभी पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) जैसे काले कानून के तहत आरोप लगाया गया है.
 

शायद ही किसी को मालूम हो कि भीमा कोरेगांव हिंसा के संबंध में यूएपीए के तहत गिरफ़्तारी का पहला षड्यंत्र इन कामगारों के खिलाफ हुआ है. और कई न्यूज़ रिपोर्ट में इन कामगारों की गिरफ्तारी को मुंबई पुलिस द्वारा सात माओवादियों की गिरफ्तारी बता कर पेश किया गया. हालांकि, जैसे जैसे सच्चाई सामने आई, यह स्पष्ट हो गया कि सिवाय पुलिस द्वारा मीडिया का ध्यान भटकाने के, इन गिरफ्तारियों का भीमा कोरेगांव कार्यक्रम से कोई संबंध था ही नहीं.




हम सीजेपी की ओर से इन कामगारों के खिलाफ आधारहीन आरोपों की निंदा करते हैं, और सवाल करते हैं कि आखिर राज्य सरकार जानबूझ कर सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों और प्रवासी मजदूरों को क्यों निशाना बना रही है? एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए, हम सब को समानता, शांति और न्याय के साझा मूल्यों की रक्षा का दृढ़ संकल्प लेना होना.


यूएपीए के कठोर काले कानून के तहत गिरफ्तार किये गए सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और इन कामगारों तथा यूनियन के कार्यकर्ताओं के मामले यही दर्शाते हैं, कि आज की सरकार, भीमा कोरेगाव में हुई हिंसा और माओवादी हाथ और ऐसी अन्य बेबुनियाद न मानने योग्य कहानियां रच कर, किसी भी तरह उन लोगों की आवाज़ दबाना चाहती है जो देश के पिछड़े तब्कों के लिए काम रहे हैं.

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