'निर्दोष बच्चे भून दिए गोलियों से देश रक्षा के नाम पर'

Written by अनिता भारती | Published on: March 10, 2017
गुरिंदर आज़ाद के काव्य संग्रह 'कंडीशन्स अप्लाई' की समीक्षा

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युवा क्रांतिकारी कवि गुरिंदर आज़ाद दलित मुद्दों पर जितनी पावरफुल फिल्म बनाते है उतनी ही पावरफुल उनकी कविताएं है। क्योंकि कवि एक जागरुक सामाजिक कार्यकर्ता भी है इसलिए सामाजिक बदलाव व चेतना के जितने आयाम है वह उनसे रोज़-ब-रोज़ रुबरु होता है। शायद यही कारण है कि गुरिंदर आज़ाद के पहला कविता संग्रह 'कंडीशंस अप्लाई' में शामिल कविताओं में जो तपिश है वह जलाती नही है अपितु पाठक के दिल- दिमाग को झकझोर कर रख देती है।
 
गुरिंदर आज़ाद की कविताओं का मुख्य स्वर शोषण और अत्याचार के खिलाफ आक्रोश है। दमन से उपजी निराशा न होकर उसको बदलने का ख्वाब है। कवि जाति शोषण, लिंग भेद, जल-जंगल-जमीन के सवाल, गांव से मजदूरी की तालाश में आए विस्थापित मजदूर मजदूरनियों के दर्द और संघर्ष का आँखों देखा यथार्थ बयान करता है। शहर के तालकोर की सड़क पर बेघर हरमा टुडू, बीना, चम्पी अम्मा या फिर जातिवाद के शिकार होकर मारे गए प्रतिभाशाली दलित छात्र अजय श्री चंद्रा, रोहित वेमुला कवि को संत्रास से भर देते है।
 
इससे भी आगे जाकर युवा कवि गुरिंदर आज़ाद खुद अपने आप से और समाज में गहरे बैठे अंधविश्वास, पाखंड, घृणित मान्यताओं परंपराओं के ख़िलाफ जलती तिल्ली-सा संघर्ष अनवरत जारी रखता है। कवि को पूरा विश्वास है कि बदलाव और क्रांति का रास्ता संघर्ष और चेतना की मशाल सोनी सोरी, बिरसा मुंडा, साहेब , बाबा साहेब, ज्योतिबाफुले, सावित्रीबाई फुले के रास्ते से चलकर ही अपना पूरा जलवा बिखेरेगी।
 
अपनी एक कविता में कवि बच्चों की निर्मम हत्या पर अपना रोष प्रकट करते हुए कहता है-
 
निर्दोष बच्चे भून दिए गोलियों से देश रक्षा के नाम पर
सीने में है उठती बेचैनी उस पर भी कर्फ्यू लगा दीजिए (पेज-130)
 
जंगल के घुसपैठिए कौन है यह सब जानते है। यह घुसपैठिए ही आदिवासियों के हक पर कुंडली मारे बैठे है। जंगल की लकड़ी से लेकर इंसान तक को इन्होने अपना गुलाम बना रखा है। कवि इसका फर्क करता है-
 
जमशेदपुर और टाटा नगर
कहते है इन लफ्ज़ो के
मायने एक ही है
लेकिन मेरे लिए
दोनों लफ्ज़ो के बीच
इक गहरी खाई है
है अमिट इक फ़ासला
मेहमान से घुसपैठिये का 
गाढ़ा- सा फर्क है
और इस फर्क में जाने कितनी 
जिन्दगियाँ 
खिंच के रह गयी है ( पेज-39)
 
कवि की संवेदना का दायरा शहर हो या गांव, जंगल हो या पहाड़ या फिर खेत खलिहान पार कर, सब जगह पसरे अन्याय अत्याचार और असमानता के खिलाफ दीवार सी खडा हो जाता है।
 
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दलित आंदोलन के अपने आदर्श है। इन्हीं आदर्शों से दलित आंदोलन एक क्रियाशील, सचेत और जिंदगी से लबालब भरा हुआ आंदोलन है। इन आदर्शों में कवि जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित है वह है भारत की प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई फुले, सामाजिक क्रांति के अग्रदूत ज्योतिबा फुले और संविधान निर्माता बाबा साहेब जिनके लिए कवि का मानना है-
लाखों अणु सिमट गए
सावित्री बने
फुले बने
बाबा साहेब बने
और सिमटकर 
फैले जब लाखों अणु
तो दलित आंदोलन बना (पेज-26)
 
दलित आंदोलन की जान बाबा साहेब के प्रति अपना आभार प्रकट करते हुए कवि कहता है - 
शुक्रिया बाबा साहेब
आपके चलते
मैं यह सब लिख पा रहा हूँ
डंके की चोट पर (पेज-52)
 
और इसी दलित आंदोलन की राह पर युवा क्रांतिकारी कवि गुरिंदर आज़ाद अपने आप को तैयार करना चाहता है। वह समाज की उस बंजर जमीन पर एक फूल की तरह खिलना चाहता है। बराबरी और हक की जमीन जो सवर्ण समाज को पैदायशी मिली है दलितों को उसके लिए संघर्ष करना पड़ता है इसलिए कवि का मानना है-
उस जमीं पर हमें खिलना है
जो सदियों से बंजर है
यह जो है हमको उकसाता है
यह बराबरी का मंजर है (पेज-53)
 
कहीं कहीं कवि के शब्दों की धार बड़ी तीखी हो जाती है, ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि कवि जिस समुदाय से वास्ता रखता है वह सदियों से उत्पीड़ित और प्रताड़ित है। इसलिए उसके शब्द अगर जूते बनाने वाले कारीगर की रांपी की धार से नुकीले हो जाएं तो उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए- 
दलित का बेटा हूँ साहेब
शब्दों की रांपी ज़रा तेज है (पेज-36)
 
दलित बच्चियों के शरीर के साथ होने वाले उत्पीड़न पर कवि मन चुप नही रहता। वह क्रोध से चिंघाड उठता है। समाज के दोहरे मानदंड, लोकतंत्र के चारों खम्बों का दोगलापन जग जाहिर है। लोकतंत्र के चारों खम्बे समाज में व्यक्ति की जाति और हैसियत देखकर अपना 'फर्ज़' निभाते है। यही वजह है कि दबे कुचले हाशिये पर पटक दिए गए लोग अकेले पड़ जाते है। वे न्याय के लिए दर दर भटकते है पर उन्हें न्याय नही मिलता। कवि गुरिंदर आज़ाद की एक कविता दुख हमें भी है, पर की बानगी है - 
जुर्म उनके साथ हुआ 
हमारे साथ भी
मगर
ना मैं जेसिका लाल थी
ना थी प्रियदर्शनी मट्टू
हमारे बलात्कारों पर 
अक्सर चौथे स्तम्भ का
पैर दुखने लगता है
हमारे बलात्कारों पर
इंडिया गेट की रंगीन शामें
कभी गमगीन नहीं होतीं ! (पेज-96)
 
 सोनी सोरी के संघर्ष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के साथ साथ इस देश में देशभक्ति की परिभाषा जो कुछ शब्दों में, कुछ प्रतीकों में सिमट कर रह गई है उनपर व्यंग्य करते हुए सोनी सोरी के माध्यम से कवि का कहना है-
दरअसल-मैं 
जिस मुल्क में रहती हूँ- वहाँ
देशभक्ति के मायने
इंसाफ के मायने
और हक़ के मायने
गमले में उगाये बोनसाई हैं
ड्राइंग रुम की शोभा बढ़ाते
हार्मलेस नमूने
- और जहाँ
कुदरत के विशाल अर्थों वाली
किसी भी आँख को 
इन गमलों को घूरकर देखने की 
कीमत वसूल की जा सकती है ! (पेज-98)
 
गुरिंदर आज़ाद अपनी कविताओं में बार बार दलितों को शारीरिक और मानसिक तौर पर बनाने वाले ब्राह्मणवाद पर चोट करते है। हिन्दू धर्म के वेद पुराण और उसके अन्य साधनों पर एकाधिकार और सर्वाधिकार के सवाल पर कसकर व्यंग्य करते है- 
वेदों की गरिमा बनी रहे
गुरुकुलों के कायदे न आहत हो
घूमती मछली की आँख पर
अर्जुन के तीर का कोटा है
तुम ऐसी कोई जुर्रत न करना
अंगूठा तुम्हारा लेना पड़े (पेज-32)
 
सिर्फ इतना ही नही कि कवि इनका मात्र विरोध करता है बल्कि कवि को लगता है कि उसकी चीख से या विरोध से सारे के सारे पाषाण देवता भरभरा कर जमीन पर आ गिरेगे।
धकेल दो कहीं भी तुम हमें
हमारी चीख़ से
थरथरा के नीचे आ गिरेंगे
शोख दीवारों पर टँगे
सारे देवता (पेज-119)
 
युवा कवि गुरिंदर आज़ाद समाज में उन लोगों से सीधा लोहा लेते है जो दलित समाज को दुबारा से गजालत की जिंदगी में धकेलना चाहते है। यह धकेलना चाहे विचारों से हो या फिर किसी षड़यंत्र के चलते हो। 'कंडीशंस अप्लाई' में एक कविता है- 'आशीष नंदी'। इस कविता में आशीष नंदी द्वारा दलित समाज के लिए दिए गए विवादास्पद बयान पर अपना आक्रोश प्रकट करते हुए और उसे लताड़ते हुए कवि कहता है-
 ये करोड़ों एकलव्य 
कब से
अपनी दो उँगलियों से ही
तुम्हारे हर शब्द पर निशाना लगाना सीख गए है
और वो उस हलक़ को
जहाँ से भ्रष्टाचार का गन्दा नाला बहता है
तीरों से भरना भी जानते है
आशीष नंदी
इस कड़वी घुट्टी वाले
असली समाजशास्त्रियों से
तुम्हारा अभी पाला ही कहाँ पड़ा है ! (पेज 35)
 
'कंडीशंस अप्लाई' कविता संग्रह के लिए यह बात बिना किसी लाग लपेट के कही जा सकती है कि युवा क्रांतिकारी कवि में प्रतिभा का विस्फोट है जो कविता के रुप में उभर का आता है। कवि बेहद संवेदनशीलता से समाज के वंचित दलित पीड़ित तबकों के सवालों को उठाता है। सवाल उठाने के साथ-साथ वह वंचित तबके को संघर्ष के लिए तैयार भी करता है। गुरिंदर आज़ाद अपनी कविताओं में ऊर्दू के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग करते है परंतु कहीं भी यह शब्द आपको चुभते नही है बल्कि कविता में पठनीयता का इज़ाफ़ा ही करते है। वैसे तो युवा कवि गुरिंदर आज़ाद का यह पहला काव्य संग्रह है परंतु कविताएं अपने भाव बोध, विषय बोध और इतिहास बोध होने के कारण बेहद सशक्त बन पड़ी है। इसलिए यह कहना गलत नही होगा कि गुरिंदर आज़ाद का प्रथम कविता संग्रह 'कंडीशंस अप्लाई' दलित साहित्य की अमूल्य नीधि है।

 
अनीता भारती एक प्रसिद्ध लेखिका, कहानीकार एवं कवयित्री हैं। वह हिंदी आलोचना के क्षेत्र में भी अपनी दस्तक दे रही हैं। दलित-बहुजन लोकेशन से उनके लेखन ने अपनी अलग पहचान बनाई है। उनसे anita.bharti@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
 

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