राष्ट्रीय और मुख्यधारा कहे जाने वाले मीडिया में वैसे तो हमेशा से ही उत्तर-पूर्व के राज्यों की खबरें हाशिये पर रही हैं, लेकिन इस बार मामला थोड़ा ज्यादा गंभीर है। असम में बड़े पैमाने पर हिंसा और तनाव पैदा होने की स्थित बन रही है क्योंकि कुल 48 लाख लोगों की नागरिकता के ऊपर तलवार लटक गई है। ये सभी औरतें हैं जो मूल में पूर्वी बंगाल की हैं। इनमें 44 लाख औरतें विवाहित हैं। यह राज्य एक विभाजन के कगार पर खड़ा है, लेकिन पूरे देश में इस बारे में कोई जि़क्र तक नहीं है।
Image: PTI
दरअसल, सारा मामला राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनआरसी) को अद्यतन किए जाने की प्रक्रिया से जुड़ा है। एनआरसी में 1951 के बाद से अब तक कोई बदलाव नहीं हुआ है जबकि हर 10 साल पर इसे ताज़ा किए जाने का प्रावधान है। असम में एनआरसी को अपडेट करने के लिए केंद्र सरकार ने 1985 के असम संधि के अंतर्गत मंजूरी दे दी थी लेकिन यह प्रक्रिया 2010 से ही शुरू हो सकी। बीच में हिंसा के कारण काम रुक गया था, लेकिन एक बार फिर मार्च 2013 से इसे शुरू किया गया।
अक्टूबर 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि एनआरसी के अपडेशन का काम 31 जनवरी, 2016 तक पूरा हो जाना चाहिए लेकिन एनआरसी अथॉरिटी इस तारीख का अनुपालन नहीं कर पाया। उसके बाद से सुप्रीम कोर्ट सीधे इस प्रक्रिया पर निगाह रखे हुए है। असम में विवाद का आरंभ फरवरी 2017 में हुआ जब गोहाटी उच्च न्यायालय ने एक आदेश पारित करते हुए ग्राम पंचायतों की ओर से लोगों को दिए गए निवास प्रमात्र पत्र को नागरिकता का प्रमाण मानने से इनकार कर उसे खारिज कर डाला।
असम समझौता 14 अगस्त 1985 को हुआ था जिसमें ”विदेशियों” की रिहाइश का मसला निटाने के लिए 25 मार्च 1971 की कटऑफ तारीख तय की गई। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते संभावित विदेशी रहवासियों की पहचान और प्रत्यर्पण का मुद्दा अटका ही रह गया, जिसके चलते पूर्वी बंगाल के मूल लोगों को संदिग्ध वोटर होने के आरोप में प्रताडि़त किया जाता रहा है। इनमें बंगाली हिंदू और मुसलमान दोनों ही शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एनआरसी को अप्डेट करने पर किसी को कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन बीजेपी की सरकार आने के बाद सभी गैर-मुस्लिम विदेशियों को भारतीय नागरिकता दिए जाने की राज्य सरकार की कवायद ने एनआरसी की प्रक्रिया में पहली बाण्धा डालने का काम किया।
नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 के माध्यम से राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के काम में अड़ंगा डाला, तो अदालत ने मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल की कड़ी आलोचना भी की। इसके बावजूद एनआरसी का काम चलता रहा। अब नया रोड़ा यह आया है कि पंचायत द्वारा जारी किए गए दस्तावेजों को स्वीकार नहीं किया जा रहा है। एनआरसी अपडेट करने के दिशानिर्देश कहते हैं कि विवाहित औरतों के लिए एक ”लिंकेज” प्रमाणपत्र समेत पंचायत सचिव और सर्किल राजस्व अधिकारी द्वारा जारी किया गया प्रमाणपत्र स्वीकार किया जाएगा। इसके बाद पता चला कि कुल 48 लाख लोगों ने पंचायत के दिए कागजात जमा कराए थे। एनआरसी के राज्य समन्वयक ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि इनमें से 17.40 लाख राज्य के ”मूलनिवासी” हैं और इनके नाम एनआरसी में शामिल किए जा सकते हैं। बाकी को एनआरसी में से निकाल दिया गया, लिहाजा 29 लाख से ज्यादा लोगों के सिर पर संदेह की तलवार लटक रही है।
इस चक्कर में दो समुदायों के बीच तनाव पैदा हो गया है। राज्य सरकार ने ”मूलनिवासी” की श्रेणी को बेीच में लाकर संदिग्ध विदेशियों में दासे फांक कर दी है जिससे हिंदू-मुस्लिम विभाजन और गहरा गया है। दिलचस्प यह है कि न तो 1955 का नागरिकता कानून और न ही कोई संवैधानिक अधिकरण असम के ”मूलनिवासी” को परिभाषित करता है। पिछले दिनों 2 नवंबर को भारत के महापंजीयक के समक्ष मसले पर चर्चा के लिए सभी पक्षों को बुलाया गया था। बैठक आपसी झड़प और विवाद का शिकार रही, जो बताता है कि आगे क्या-क्या हो सकता है।
उस पर से 28 फरवरी 2017 को मोनोवारा बेवा उर्फ मोनोरा बेवा के वाद संख्या WP(C) 2634/2016 की सुनवाई करते हुए गोहाटी उच्च न्यायालय ने पंचायत सचिव द्वारा जारी निवास प्रमाणपत्र को ”लिंक प्रमाणपत्र” मानने से इनकार कर दिया और उसे ”असंवैधानिक” करार दिया क्योंकि उसकी कोई ”वैधता” नहीं है। ऐसा ही प्रमाणपत्र कुल 48 लाख औरतों ने जमा किया है जिनमें 44 लाख विवाहित हैं, जिनके पास 1971 से पहले के किसी निवासी के साथ ”लिंकेज” का कोई और प्रमाण नहीं है। इनमें से अधिकतर औरतों का कहना है कि वे कभी स्कूल नहीं गईं और 18 साल की उम्र से पहले ही उनकी शादी हो गई। इसलिए उनके पास स्कूल का भी कोई प्रमाणपत्र मौजूद नहीं है, न ही उनके मूल परिवार की मतदाता सूची में उनके नाम हैं क्योंकि वे तो ब्याहने के बाद पति के घर आ गईं।
ज़ाहिर है, एक ओर जहां उच्च न्यायालय ने अपने फैस्ले से 48 लाख औरतों की नागरिकता को खतरे में डाल दिया है, वहीं दूसरी ओर राज्य सरकार समुदायों के बीच ”मूलनिवासी” की अपरिभाषित श्रेणी से फूट डालने में जुटी है। नतरीजा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ती नफ़रत है जिसका कोई भी दुष्परिणाम कभी भी सामने आ सकता है।
दिल्ली में इस मसले पर कुछ लोग इधर बीच सक्रिय हुए हैं। दिल्ली ऐक्शन कमेटी फॉर असम (डीएसीए) ने सोमवार 13 नवंबर को कांस्टिट्यूशन क्लब में एक बैठक बुलाई है जिसमें एनआरसी के अद्यतनीकरण और असम की नागरिकता के सवाल से राज्य में उपजे राजनीतिक गतिरोध पर चर्चा होनी है। असम से डॉ. हीरेन गोहाईं, प्रो. अपूर्बा बरुआ, वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंजालविस चर्चा में हिस्सा लेंगे।
इस मसले पर अंग्रेज़ी के अखबार और वेबसाइटें तो निगाह रखे हुए हैं, लेकिन टीवी की दुनिया से यह पूरी तरह गायब है।
डीएसीए द्वारा जारी प्रेस नोट पर आधारित
साभार: मीडिया विजिल
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दरअसल, सारा मामला राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनआरसी) को अद्यतन किए जाने की प्रक्रिया से जुड़ा है। एनआरसी में 1951 के बाद से अब तक कोई बदलाव नहीं हुआ है जबकि हर 10 साल पर इसे ताज़ा किए जाने का प्रावधान है। असम में एनआरसी को अपडेट करने के लिए केंद्र सरकार ने 1985 के असम संधि के अंतर्गत मंजूरी दे दी थी लेकिन यह प्रक्रिया 2010 से ही शुरू हो सकी। बीच में हिंसा के कारण काम रुक गया था, लेकिन एक बार फिर मार्च 2013 से इसे शुरू किया गया।
अक्टूबर 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि एनआरसी के अपडेशन का काम 31 जनवरी, 2016 तक पूरा हो जाना चाहिए लेकिन एनआरसी अथॉरिटी इस तारीख का अनुपालन नहीं कर पाया। उसके बाद से सुप्रीम कोर्ट सीधे इस प्रक्रिया पर निगाह रखे हुए है। असम में विवाद का आरंभ फरवरी 2017 में हुआ जब गोहाटी उच्च न्यायालय ने एक आदेश पारित करते हुए ग्राम पंचायतों की ओर से लोगों को दिए गए निवास प्रमात्र पत्र को नागरिकता का प्रमाण मानने से इनकार कर उसे खारिज कर डाला।
असम समझौता 14 अगस्त 1985 को हुआ था जिसमें ”विदेशियों” की रिहाइश का मसला निटाने के लिए 25 मार्च 1971 की कटऑफ तारीख तय की गई। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते संभावित विदेशी रहवासियों की पहचान और प्रत्यर्पण का मुद्दा अटका ही रह गया, जिसके चलते पूर्वी बंगाल के मूल लोगों को संदिग्ध वोटर होने के आरोप में प्रताडि़त किया जाता रहा है। इनमें बंगाली हिंदू और मुसलमान दोनों ही शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एनआरसी को अप्डेट करने पर किसी को कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन बीजेपी की सरकार आने के बाद सभी गैर-मुस्लिम विदेशियों को भारतीय नागरिकता दिए जाने की राज्य सरकार की कवायद ने एनआरसी की प्रक्रिया में पहली बाण्धा डालने का काम किया।
नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 के माध्यम से राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के काम में अड़ंगा डाला, तो अदालत ने मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल की कड़ी आलोचना भी की। इसके बावजूद एनआरसी का काम चलता रहा। अब नया रोड़ा यह आया है कि पंचायत द्वारा जारी किए गए दस्तावेजों को स्वीकार नहीं किया जा रहा है। एनआरसी अपडेट करने के दिशानिर्देश कहते हैं कि विवाहित औरतों के लिए एक ”लिंकेज” प्रमाणपत्र समेत पंचायत सचिव और सर्किल राजस्व अधिकारी द्वारा जारी किया गया प्रमाणपत्र स्वीकार किया जाएगा। इसके बाद पता चला कि कुल 48 लाख लोगों ने पंचायत के दिए कागजात जमा कराए थे। एनआरसी के राज्य समन्वयक ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि इनमें से 17.40 लाख राज्य के ”मूलनिवासी” हैं और इनके नाम एनआरसी में शामिल किए जा सकते हैं। बाकी को एनआरसी में से निकाल दिया गया, लिहाजा 29 लाख से ज्यादा लोगों के सिर पर संदेह की तलवार लटक रही है।
इस चक्कर में दो समुदायों के बीच तनाव पैदा हो गया है। राज्य सरकार ने ”मूलनिवासी” की श्रेणी को बेीच में लाकर संदिग्ध विदेशियों में दासे फांक कर दी है जिससे हिंदू-मुस्लिम विभाजन और गहरा गया है। दिलचस्प यह है कि न तो 1955 का नागरिकता कानून और न ही कोई संवैधानिक अधिकरण असम के ”मूलनिवासी” को परिभाषित करता है। पिछले दिनों 2 नवंबर को भारत के महापंजीयक के समक्ष मसले पर चर्चा के लिए सभी पक्षों को बुलाया गया था। बैठक आपसी झड़प और विवाद का शिकार रही, जो बताता है कि आगे क्या-क्या हो सकता है।
उस पर से 28 फरवरी 2017 को मोनोवारा बेवा उर्फ मोनोरा बेवा के वाद संख्या WP(C) 2634/2016 की सुनवाई करते हुए गोहाटी उच्च न्यायालय ने पंचायत सचिव द्वारा जारी निवास प्रमाणपत्र को ”लिंक प्रमाणपत्र” मानने से इनकार कर दिया और उसे ”असंवैधानिक” करार दिया क्योंकि उसकी कोई ”वैधता” नहीं है। ऐसा ही प्रमाणपत्र कुल 48 लाख औरतों ने जमा किया है जिनमें 44 लाख विवाहित हैं, जिनके पास 1971 से पहले के किसी निवासी के साथ ”लिंकेज” का कोई और प्रमाण नहीं है। इनमें से अधिकतर औरतों का कहना है कि वे कभी स्कूल नहीं गईं और 18 साल की उम्र से पहले ही उनकी शादी हो गई। इसलिए उनके पास स्कूल का भी कोई प्रमाणपत्र मौजूद नहीं है, न ही उनके मूल परिवार की मतदाता सूची में उनके नाम हैं क्योंकि वे तो ब्याहने के बाद पति के घर आ गईं।
ज़ाहिर है, एक ओर जहां उच्च न्यायालय ने अपने फैस्ले से 48 लाख औरतों की नागरिकता को खतरे में डाल दिया है, वहीं दूसरी ओर राज्य सरकार समुदायों के बीच ”मूलनिवासी” की अपरिभाषित श्रेणी से फूट डालने में जुटी है। नतरीजा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ती नफ़रत है जिसका कोई भी दुष्परिणाम कभी भी सामने आ सकता है।
दिल्ली में इस मसले पर कुछ लोग इधर बीच सक्रिय हुए हैं। दिल्ली ऐक्शन कमेटी फॉर असम (डीएसीए) ने सोमवार 13 नवंबर को कांस्टिट्यूशन क्लब में एक बैठक बुलाई है जिसमें एनआरसी के अद्यतनीकरण और असम की नागरिकता के सवाल से राज्य में उपजे राजनीतिक गतिरोध पर चर्चा होनी है। असम से डॉ. हीरेन गोहाईं, प्रो. अपूर्बा बरुआ, वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंजालविस चर्चा में हिस्सा लेंगे।
इस मसले पर अंग्रेज़ी के अखबार और वेबसाइटें तो निगाह रखे हुए हैं, लेकिन टीवी की दुनिया से यह पूरी तरह गायब है।
डीएसीए द्वारा जारी प्रेस नोट पर आधारित
साभार: मीडिया विजिल