चिपको आंदोलन की 45वीं वर्षगांठ: जब पेड़ बचाने के लिए गोली खाने को तैयार हो गई थीं वीरांगनाएं

Written by Lalit Kumar | Published on: March 26, 2018
"वृक्षों को आंलिगन" करने वाले इस आंदोलन की कहानी किसी फ़िल्म की रोम-रोम सिहरा देने वाली कहानी जैसी ही है। गढ़वाल हिमालय में बसे रैणी गाँव के पास सरकार ने जनवरी 1974 में करीब 2500 पेड़ों को कटाई के लिए "छाप" दिया गया। इन पेड़ों को काटने के कार्य की नीलामी की गई थी। सरकार इन पेड़ों को काटकर वहाँ सड़क बनाना चाहती थी। जब रैणी निवासियों को सरकार की इस मंशा का पता चला तो रैणी व आस-पास के गाँवों में लोग समूह बनाकर सरकार की इस चाल का विरोध करने लगे।


गाँव के लोग नहीं चाहते थे कि पेड़ कटें क्योंकि अलकनंदा के किनारे बसे इन गाँवों ने उस तबाही को देखा था जो 1970 में अलकनंदा की बाढ़ लेकर आई थी। पेड़ों की कमी की वजह से नदी ने आसानी से मिट्टी काट दी और गाँव के गाँव तबाह हो गए। लेकिन अब गाँव के लोग जाग चुके थे और वे पेड़ों को बचाने के लिए जान भी देने को तैयार थे...

प्रशासन यह देख रहा था कि गाँव वाले पेड़ नहीं काटने देंगे... सो, प्रशासन ने एक ज़ोरदार रणनीति बनाई... 23 मार्च 1974 को रैणी गाँव के पेड़ों की कटान के ख़िलाफ़ गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन किया गया था। इसका फ़ायदा उठाते हुए प्रशासन ने गाँव वालों को सूचना दी की सड़क बनने की वजह से हुए नुक्सान का मुआवज़ा 26 मार्च को चमोली में दिया जाएगा। अधिकारियों ने सोचा था कि गाँवों के पुरुष तो मुआवज़ा लेने चमोली चले जाएँगे और विरोध का नेतृत्व कर रहे "दशोली ग्राम स्वराज्य संघ" के कार्यकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर की रैली में बुला लेंगे। इससे गाँव में केवल महिलाएँ ही रह जाएँगी और पेड़ आसानी से काट लिए जाएँगे।

सब कुछ योजना के मुताबिक ही हुआ... by the way यहाँ यह बता देना चाहूँगा कि सरकार की ऐसी कोई योजना नहीं थी चमोली बुला कर गाँव वालों को मुआवज़ा दिया जाएगा... यह सब झूठ था...

25 मार्च को रैणी गाँव के बाहर उस कम्पनी के लोग आ गए जिसे पेड़ काटने का ठेका मिला था। उस समय गाँव के सभी पुरुष या तो चमोली में थे या गोपेशवर में...

और... गाँव के बाहर गुपचुप कटाई शुरु हो गई...

शुक्र है कि गाँव की एक छोटी बच्ची ने यह कटाई होते देख ली... वह दौड़कर गाँव के भीतर गई और उसने बताया कि बाहर क्या हो रहा है...

उस समय रैणी गाँव के "महिला मंगल दल" की मुखिया गौरा देवी समेत गाँव में केवल 27 महिलाएँ मौजूद थीं...

और ये मुठ्ठी भर महिलाएँ गौरा देवी के नेतृत्व में अपने पेड़ों को बचाने निकल पड़ीं... इन्होनें जाकर कटाई करने वालों को रोका... लेकिन जब लकड़हारों ने महिलाओं को गालियाँ दीं... उन पर थूका... और उन्हें बंदूक दिखा कर डराया तो इन साहसी महिलाओं ने पेड़ों को अपने शरीर से घेर लिया और कटाई रुकवा दी...

उन्होनें कहा कि पेड़ काटना है तो पहले हमें काट डालो... गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुए कहा, 'लो मारो गोली और काट लो हमारा मायका'

महिलाओं के इस दुस्साहस के आगे लकड़हारे भी चुप हो बैठ गए... उन्हें लगा कि ये औरतें कुछ देर में थक-हार कर चली जाएँगी और फिर हम अपना काम शुरु कर देंगे...

लेकिन...

लेकिन ये महिलाएँ पूरा दिन और पूरी रात पेड़ों को अपने आलिंगन में लिए खड़ी रहीं...

तब तक... जब तक कि अगले दिन का सवेरा नहीं हो गया और गाँव के पुरुष लौटने लगे...

उसके बाद इस "चिपको आंदोलन" की ख़बर आस-पास के गाँवों में फैलने लगी और अन्य गाँवों के स्त्री-पुरुष भी रैणी निवासियों का साथ देने आने लगे...

लकड़हारों और गाँव वालों के बीच यह संघर्ष चार दिन तक चला... और आखिरकार लकड़हारे हार गए और वहाँ से चले गए...

"चिपको आंदोलन" में महिलाओं की भूमिका बेहद सराहनीय रही... पेड़ काटने वाले न केवल पेड़ काटते थे बल्कि गाँवों के पुरुषों को शराब भी सप्लाई करते थे। पुरुषों को शराब की लत लगाकर उन्होनें पेड़-कटाई का अपना काम आसान कर लिया था... लेकिन महिलाओं ने "चिपको" के ज़रिए न केवल अपने पेड़ बचाए, बल्कि पेड़ काटने वालों को गाँवों से दूर कर पुरुषों से शराब की लत भी छुड़वाई...

गौरा देवी इस आंदोलन के बाद पूरे देश और दुनिया की हीरो बन गईं... पाँचवी कक्षा तक पढ़ी गौरा देवी को 'चिपको वूमेन फ्रॉम इंडिया' के रूप में पूरे विश्व में जाना गया...

उत्तराखंड के एक जनकवि घनश्याम रतूड़ी "शैलानी" जी को "चिपको आंदोलन का कवि" भी कहा जाता है... उनके लिखे गीत इस आंदोलन में खूब प्रयोग हुए...

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