असहमति पर हमला : असीम सरोदे का मामला और न्याय की दोहरी नीति 

Written by sabrang india | Published on: November 5, 2025
पुणे के वकील असीम सरोदे को इसलिए सजा दी गई क्योंकि उन्होंने न्यायपालिका की निष्क्रियता और राजनीति के बढ़ते दखल पर सवाल उठाए। लेकिन दूसरी ओर, वे वकील जिन्होंने खुलेआम नफरत फैलाने वाले भाषण दिए, आज भी बिना किसी सजा के वकालत कर रहे हैं। बार काउंसिल की यह कार्रवाई वकीलों की बोलने की आजादी के लिए एक डराने वाला संदेश है। 


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महाराष्ट्र और गोवा बार काउंसिल (बीसीएमजी) ने 12 अगस्त, 2025 को 19 पृष्ठों का एक आदेश जारी कर अधिवक्ता असीम सरोदे को तीन महीने के लिए निलंबित कर दिया और उन पर 25,000 रूपये का जुर्माना लगाया। उनका कथित अपराध 18 मार्च, 2024 को मुंबई के वर्ली में शिवसेना (यूबीटी) के एक कार्यक्रम में न्यायपालिका और कुछ संवैधानिक पदाधिकारियों के खिलाफ "अपमानजनक बयान" देना था।

दो महीने से भी ज्यादा समय बीतने के बाद नवंबर 2025 में सरोदे को भेजे गए इस आदेश में कहा गया है कि उनके शब्दों का "न्यायपालिका में जनता के सम्मान और विश्वास को कम करने वाला प्रभाव पड़ा।" बीसीएमजी ने पाया कि एक "अदालत के अधिकारी" के रूप में, सरोदे ने अपने पेशे की गरिमा का उल्लंघन किया और "न्यायपालिका के प्रति अविश्वास पैदा किया।"

फिर भी आदेश और साक्ष्यों का गहन अध्ययन करने पर कुछ और भी गंभीर बात सामने आती है कि यह पेशेवर अनुशासन का मामला नहीं, बल्कि असहमति की आवाज को निशाना बनाकर दबाने की सोची-समझी कोशिश है। 

शिकायत की पृष्ठभूमि 

अनुशासनात्मक कार्यवाही की शुरुआत अधिवक्ता राजेश दाभोलकर द्वारा दायर की गई एक शिकायत से हुई थी। उन्होंने सरोदे पर आरोप लगाया कि उन्होंने 18 मार्च 2024 को मुंबई के वर्ली स्थित एसवीपी स्टेडियम में आयोजित ‘जनता न्यायालय’ कार्यक्रम के दौरान “घृणास्पद भाषण” दिया और महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष, महाराष्ट्र के राज्यपाल तथा न्यायपालिका के प्रति व्यंग्यात्मक और अवमाननापूर्ण टिप्पणियां कीं। 

अपनी शिकायत में दाभोलकर ने आरोप लगाया कि सरोदे ने सभा में कहा था- “न्यायपालिका दबाव में है और अब जनता के पक्ष में फैसला देने वाली कोई न्यायपालिका नहीं बची,” तथा तत्कालीन राज्यपाल को “फालतू” कहा था। शिकायतकर्ता के अनुसार, ये बयान न केवल “अपमानजनक और मानहानि वाले” थे, बल्कि अदालत के अधिकारी से अपेक्षित पेशेवर आचरण और नैतिकता का उल्लंघन भी थे। 

जब सरोदे ने 19 मार्च 2024 को दाभोलकर द्वारा भेजे गए माफ़ीनामे और बयान वापसी के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया तो दाभोलकर ने बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा (BCMG) के समक्ष एक औपचारिक शिकायत दर्ज की। उन्होंने अपने आरोप के समर्थन में सरोदे के भाषण की वीडियो रिकॉर्डिंग साक्ष्य के रूप में पेश की।

बार काउंसिल के समक्ष कार्यवाही

बीसीएमजी (बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा) की अनुशासन समिति ने वीडियो देखने और दोनों पक्षों की लिखित प्रस्तुतियां पढ़ने के बाद यह टिप्पणी की कि सरोदे की टिप्पणियां “निंदनीय, आपत्तिजनक और एक अधिवक्ता के अनुरूप नहीं” थीं और उनका प्रभाव न्यायपालिका तथा संवैधानिक पदों के प्रति जनता के सम्मान और विश्वास को कमजोर करने वाला था।

आदेश का हवाला देते हुए, परिषद् ने उल्लेख किया:“प्रतिवादी अधिवक्ता ने सार्वजनिक सभा में ऐसे बयान देकर और उन्हें सोशल मीडिया पर प्रसारित करके न्यायपालिका के प्रति अविश्वास और अनादर का माहौल पैदा किया है। प्रतिवादी अधिवक्ता का आचरण बेहद अनुचित, निंदनीय, आपत्तिजनक और बार के सदस्य के अनुरूप नहीं था।”

समिति ने आगे कहा कि एक “अदालत के अधिकारी” के रूप में अधिवक्ता का नैतिक और पेशेवर दायित्व है कि वह न्याय प्रणाली में विश्वास बनाए रखे - भले ही उसे न्यायिक निर्णयों या संवैधानिक पदाधिकारियों की आलोचना करने का अधिकार क्यों न हो।

यह स्वीकार करते हुए कि सरोदे पिछले दो दशकों से ज्यादा समय से वकालत कर रहे हैं और कानूनी जागरूकता अभियानों व सामाजिक कार्यों के लिए जाने जाते हैं, परिषद् ने पाया कि उनके बयान वैध आलोचना की सीमा पार कर सार्वजनिक रूप से अवमाननापूर्ण हो गए थे। इसलिए, परिषद् ने उन्हें स्थायी तौर पर निकालने जैसी कठोर सजा देने के बजाय तीन महीने के लिए निलंबित करने का निर्णय लिया, यह कहते हुए कि यह निर्णय “सहज” (lenient) है क्योंकि यह उनका दुर्व्यवहार का पहला मामला था।

आदेश में कहा गया: “हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अधिवक्ता सरोदे ने न्यायपालिका के प्रति कुछ अनादरपूर्ण टिप्पणियां करके दुर्व्यवहार किया है। हालांकि, चूंकि वे दो दशकों से ज्यादा समय से सामाजिक जागरूकता गतिविधियों में सक्रिय रहे हैं, समिति यह उचित नहीं समझती कि उनको स्थायी निष्कासन जैसी कठोर सजा दी जाए।”

सरोदे का पक्ष और प्रतिक्रिया

फ्री प्रेस जर्नल के अनुसार, अपनी लिखित प्रतिक्रिया में अधिवक्ता असीम सरोदे ने किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार से इनकार किया और कहा कि उनके बयान निष्पक्ष और लोकतांत्रिक आलोचना थे, न कि अवमानना या मानहानि।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने तर्क दिया कि उन्होंने न्यायपालिका या किसी संवैधानिक पद के खिलाफ कोई असंवैधानिक या अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल नहीं किया था और उनके बयान की “कमजोर मानसिकता वाले लोगों ने गलत व्याख्या” की है।

राज्यपाल को “फालतू” कहने के आरोप पर सरोदे ने स्पष्ट किया कि यह शब्द सामान्य बोलचाल में, बिना किसी मानहानि के आशय के इस्तेमाल किया गया था। उन्होंने कहा कि उस समय पूर्व राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी पद पर नहीं थे और यदि उन्हें मानहानि का अनुभव होता तो वे स्वयं कार्रवाई कर सकते थे। सरोदे ने शिकायतकर्ता की लोकस स्टैंडी (कानूनी अधिकारिता) पर भी सवाल उठाया, यह तर्क देते हुए कि दाभोलकर को राज्यपाल की ओर से मानहानि का दावा करने का कोई अधिकार नहीं था।

सरोदे ने आगे कहा कि विधानसभा अध्यक्ष राहुल नरवेकर - जिन्होंने जनवरी 2024 में एकनाथ शिंदे गुट को “वास्तविक शिवसेना” माना था - पर उनकी टिप्पणी उस आदेश पर आधारित एक विश्लेषणात्मक आलोचना थी, न कि कोई अपमान। अपने जवाब में उन्होंने कहा, “किसी संवैधानिक निर्णय की आलोचना को अवमानना के समान नहीं ठहराया जा सकता।”
हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, बीसीएमजी का आदेश मिलने के बाद सरोदे ने पुणे में पत्रकारों से कहा कि वे इस निर्णय को दिल्ली स्थित बार काउंसिल ऑफ इंडिया में चुनौती देंगे।

अखबार की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा, “मैं इस आदेश से असहमत हूं और इसे चुनौती दूंगा। संविधान का सम्मान करने वाले व्यक्ति के रूप में मेरा मानना है कि व्यवस्था की खामियों को उजागर करना मेरा कर्तव्य है।” सरोदे ने शिकायत के पीछे राजनीतिक मामला होने का भी आरोप लगाया और दाभोलकर को भाजपा नेता आशीष शेलार का नजदीकी भाजपा समर्थक बताया। उन्होंने कहा, “ऐसा लगता है कि उनके पीछे एक पूरा तंत्र काम कर रहा है।”

राजनीतिक और कानूनी परिप्रेक्ष्य

इस निलंबन ने महाराष्ट्र के कानूनी और राजनीतिक हलकों में विवाद खड़ा कर दिया है, विशेषकर इसलिए क्योंकि सरोदे की नजदीकी उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले शिवसेना (यूबीटी) गुट से जानी जाती है।

गौरतलब है कि बीसीएमजी का आदेश सरोदे को उस समय मिला जब सुप्रीम कोर्ट में उद्धव ठाकरे की याचिका पर 12 नवंबर 2025 को सुनवाई निर्धारित थी - यह वही याचिका है जिसमें ठाकरे ने निर्वाचन आयोग के उस फैसले को चुनौती दी है, जिसमें एकनाथ शिंदे गुट को “वास्तविक शिवसेना” मानते हुए उसे “धनुष-बाण” चुनाव चिह्न आवंटित किया गया था।

सरोदे ने दावा किया कि उन्होंने अगस्त से अक्टूबर के बीच कई बार बार-काउंसिल से संपर्क कर निर्णय की स्थिति जानने की कोशिश की, लेकिन सोमवार तक कोई जवाब नहीं मिला जिससे आदेश के समय को लेकर सवाल उठने लगे। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, उन्होंने कहा, “कई लोगों ने यह सवाल उठाया है कि आदेश अभी क्यों भेजा गया।”

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पेशेवर नैतिकता और न्यायिक आलोचना

इस मामले ने वकीलों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पेशेवर नैतिकता के बीच नाजुक संतुलन पर एक बार फिर बहस छेड़ दी है। अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35 के तहत, पेशेवर दुर्व्यवहार में ऐसे कार्य शामिल हैं जो “अधिवक्ता की गरिमा के प्रतिकूल” हों या जिनसे विधिक पेशे की साख को ठेस पहुंचे।

सुप्रीम कोर्ट ने अरुंधति रॉय मामले (2002) और प्रशांत भूषण बनाम भारत के सर्वोच्च न्यायालय (2020) जैसे मामलों में बार-बार यह कहा है कि वकीलों को न्यायपालिका की निष्पक्ष आलोचना करने का अधिकार है। लेकिन साथ ही अदालत ने यह भी जोर दिया है कि ऐसी आलोचना “न्याय प्रणाली में जनता के भरोसे को कमजोर नहीं कर सकती।”

बीसीएमजी (BCMG) के आदेश ने इसी सिद्धांत का सहारा लिया है। उसका कहना है कि सरोदे की टिप्पणियां- खासकर जब वे एक राजनीतिक मंच से की गईं - वैध असहमति की सीमा पार कर गईं और “न्यायपालिका की गरिमा और अधिकार को कमजोर” करने वाली मानी जा सकती हैं।

जब आलोचना बन जाए ‘दुर्व्यवहार’

समय और चयनात्मक कार्रवाई का सवाल: निलंबन आदेश 12 अगस्त 2025 को जारी किया गया था, लेकिन सरोदे को इसकी जानकारी काफी देर बाद यानी नवंबर 2025 की शुरुआत में मिली।
सरोदे का कहना है कि यह राजनीतिक समय-निर्धारण को लेकर संदेह पैदा करता है, क्योंकि यह आदेश ठीक उस समय भेजा गया जब 12 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट में शिवसेना गुटों (एकनाथ शिंदे बनाम उद्धव ठाकरे) से जुड़े मामले की सुनवाई हो रही थी।

इससे यह धारणा बनती है कि एक राजनीतिक गुट से जुड़े वकील को उसी गुट के पक्ष में बोले गए भाषण के लिए सजा दिया गया, जबकि अन्य वकील - जिन्होंने सार्वजनिक रूप से इससे भी कठोर या विवादास्पद बयान दिए हैं - उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुआ या बहुत मामूली कार्रवाई हुई है।

आलोचना और दंड के बीच असमानता

वकीलों पर एडवोकेट्स एक्ट के तहत यह जिम्मेदारी होती है कि वे पेशे और न्यायपालिका की गरिमा कायम रखें। लेकिन साथ ही, उन्हें संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी प्राप्त है। समिति ने सरोदे के सामाजिक कार्य और लंबे कानूनी अनुभव को स्वीकार किया, फिर भी उन्हें एक राजनीतिक कार्यक्रम के दौरान दिए गए कठोर बयानों के लिए दंडित किया। इससे सवाल उठता है कि क्या यह सच में दुर्व्यवहार (misconduct) है, या फिर अलोकप्रिय राजनीतिक अभिव्यक्ति के लिए दी गई सजा? सैद्धांतिक तौर पर देखा जाए तो परिषद ने संस्थाओं की आलोचना को असम्मान या अवमानना के बराबर मान लिया है। ऐसा करते हुए, यह निर्णय न्यायिक सुधार और जवाबदेही पर होने वाली वैध और ज़रूरी बहस को दबाने का खतरा पैदा करता है।

असमान जवाबदेही: तो उन वकीलों का क्या, जो घृणास्पद, लैंगिक भेदभावपूर्ण या भेदभाव फैलाने वाले भाषण देते हैं? यहीं असली अन्याय साफ नजर आता है। सरोदे पर की गई तुरंत और सख्त कार्रवाई असंगत लगती है, जब हम देखते हैं कि कई वकील जिन्होंने नफरत फैलाने वाले, स्त्री-विरोधी या सांप्रदायिक बयान दिए हैं वे अब तक अनुशासनात्मक कार्रवाई के बचे हुए हैं।

मीडिया की 2015 की रिपोर्टों के अनुसार, दिल्ली गैंगरेप मामले (निर्भया केस) में दोषियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील ए. पी. सिंह और एम. एल. शर्मा ने एक बीबीसी डॉक्युमेंट्री में बदनाम करने वाले बयान दिए थे। उन्होंने कहा था कि अगर उनकी बेटी “अशोभनीय व्यवहार” करे तो वे उसे “आग के हवाले कर देंगे” और यह भी कहा कि “एक सभ्य लड़की रात 9 बजे के बाद बाहर नहीं घूमती।” बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने उस समय कार्रवाई का आश्वासन दिया था लेकिन करीब एक दशक बीत जाने के बाद भी दोनों वकील बिना किसी सजा के वकालत कर रहे हैं।

2021 में, सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय को जंतर मंतर पर मुस्लिम-विरोधी नारेबाजी वाले मार्च का नेतृत्व करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। हालांकि, उन्हें सिर्फ एक दिन के भीतर जमानत मिल गई और तब से लेकर अब तक बार काउंसिल ऑफ इंडिया की ओर से उनके खिलाफ़ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं हुई है।

संस्थागत हित बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का टकराव: अनुशासनात्मक आदेश इस तर्क पर आधारित है कि सरोदे की टिप्पणियां “न्यायपालिका में जनता का भरोसा कमजोर करती हैं” इसलिए दंडनीय हैं। लेकिन यह मानदंड अस्पष्ट है और इसमें दुरुपयोग की संभावना है।

यदि यह नियम बन जाए कि “न्यायपालिका की सार्वजनिक आलोचना करना पेशेवर जोखिम उठाने के बराबर है” तो वकील किसी भी तरह की टिप्पणी करने से डरेंगे चाहे वह न्यायालयों या संवैधानिक संस्थाओं की वैध और रचनात्मक आलोचना ही क्यों न हो। ऐसा माहौल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कमजोर करेगा, न कि वकालत के पेशे की गरिमा की रक्षा।

निष्कर्ष: संस्थागत पाखंड का आईना

असीम सरोदे को दी गई सजा नैतिकता की नहीं, बल्कि चुप कराने की सजा है। यह एक ऐसे तंत्र को उजागर करती है जो शालीनता के नाम पर समानता और आजादी को दबाता है। जब वे वकील, जो महिलाओं या अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर फैलाते हैं, बिना किसी रोक-टोक के वकालत जारी रखते हैं,
लेकिन एक वकील जो न्यायपालिका की अधीनता पर सवाल उठाता है उसे निलंबित कर दिया जाता है तब यह अनुशासनात्मक प्रक्रिया न्याय का साधन नहीं, बल्कि एक राजनीतिक हथियार बन जाती है। 

सरोदे का मामला एक चिंताजनक सच्चाई उजागर करता है:  भारत की न्यायिक संस्थाएं अपनी छवि की रक्षा करने में अपनी नैतिकता की रक्षा करने से कहीं ज्यादा तेज हैं। असहमति को “दुर्व्यवहार” करार देकर, महाराष्ट्र और गोवा बार काउंसिल ने न केवल एक वकील के साथ अन्याय किया है, बल्कि उस संविधान की आत्मा से भी विश्वासघात किया है, जिसकी रक्षा करने का वह दावा करती है।

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