यह बात लगभग स्पष्ट है कि बाबरी मस्जिद विवाद के मामले पर सुप्रीम कोर्ट शीघ्र ही निर्णय सुना देगा। सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णय पर गौर करते हुए ऐसा नहीं लगता कि अदालत अपने निर्णय में और देरी करेगा। हालिया फैसलों से भी हमें एक इशारा दिया है कि फैसला किसके हक़ में जाएगा। तथापि यह मानते हुए कि सुप्रीम कोर्ट अभी निष्पक्ष है, सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला ‘मुस्लिम पार्टी’ के हक़ में या “हिन्दू पार्टी” के हक़ में पेश करेगा। वह दोनों पक्षों को साझा विरासत का हकदार नहीं बना सकता क्योंकि यही इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले की रूह रवां थी जिसे सुप्रीम कोर्ट पहले ही रद्द कर चुका है। इस बार मुकदमा हमेशा के लिए हल हो जाएगा।
यह बात भी ना भूलें कि हम एक ऐसी मस्जिद की बात कर रहे हैं जिसे टीवी कैमरों के मुकम्मल नज़ारे में ढा दिया गया था। राजनीतिक रहनुमाओं पर ऐसे मुकदमात हैं जिन्होंने बाबरी मस्जिद के ढाए जाए में मुख्य भूमिका निभाई थी लेकिन वह सभी मुकदमें आज भी पुरे नहीं हैं। जिन लोगों ने भीड़ को मस्जिद तबाह करने की तलकीन की वह देश के आला कार्यालयों पर काबिज़ हो गए। अदालत के अंदर मजबूती के साथ जो समस्या उठी वह मस्जिद की आपराधिक तबाही नहीं बल्कि यह प्रशन उठा कि मस्जिद पहले मुसलामानों की ही थी।
किसी आखिरी फैसले के परिणाम में मुसलमानों को चाहिए कि वह अपनी प्रतिक्रिया के साथ तैयार रहें। यह कहना बहुत अच्छा है कि मुसलमान सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पासदारी करेंगे, लेकिन यह भी एक वास्तविकता है कि यह मुसलमानों के लिए एक जज़्बाती मसला है। मुसलामानों के लिए बंदिश किसी कानूनी फैसले के जरिये नहीं आएगी यह केवल इस मसले के संबंध में योजनाबद्ध जवाब के जरिये ही संभव है। इस फैसले के आने में दो संभावनाएं हैं और मुसलमानों को इन दोनों संभावनाओं का जवाब देने के लिए तैयार रहना होगा।
पहली संभावना यह है कि सुप्रीम कोर्ट मुकदमे का फैसला मुसलमानों के हक़ में कर दे। इससे समाज के अंदर अवश्य ख़ुशी होगी कि देश की उच्च अदालत ने एक ऐतिहासिक गलती को स्वीकार कर लिया है। तथापि अगर यह मामला हुआ तो फिर मुसलमान क्या करेंगे? क्या फिर उन्हें मांग करना चाहिए कि उसी जगह पर मस्जिद निर्माण की जाए जहां मौजूद थी? व्यावहारिक रूप से बात करें तो, हालांकि यह कानून मुसलमानों के हक़ में फैसला कर दे, इसके बावजूद वह उसी जगह पर मस्जिद निर्माण नहीं कर सकेंगे। इसकी वजह यह है कि राम मंदिर हिन्दुओं के लिए भी एक जज्बाती मसला है और वह कभी ऐसा नहीं होने देंगे। अगर मुसलमान इस मसले पर डटे रहें तो देश को बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ेगी। और आज के राजनीतिक प्रसंग की रूप रेखा के मद्देनज़र यह मुसलमानों के लिए इंसेदाद ए पैदावरी साबित हो सकता है।
इसलिए किसी अच्छे फासिले की स्थिति में मुसलमानों को फैसले का स्वागत करना चाहिए लेकिन उन्हें भी हिन्दुओं को ज़मीन तोहफे के तौर पर देने पर राज़ी होना चाहिए। ऐसा करते समय उन्हें अपने विरोधी पर किसी तरह कि कोई शर्त भी नहीं रखनी चाहिए। उन्हें केवल सद्भावना के तौर पर ज़मीन का तोहफा देना चाहिए। इस तरह का कार्य बुजदिलाना कार्य नहीं होगा बल्कि यह ताकत की हैसियत से होगा। यह पहलु भारत में हिन्दू मुस्लिम संबंधों में भी एक अहम मोड़ बन सकता है, जो इस समय विभिन्न कार्यों के कारण अत्यंत निराशा जनक है।
दूसरी संभावना यह है कि सुप्रीम कोर्ट मंदिर के हक़ में फैसला करे। मुसलमानों को निश्चित रूप से इस गह्तना का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि ऐसा लगता है कि यह अर्शों पुराने मुकदमे का ग़ालिब गुमान नतीजा हो सकता है। इस परिदृश्य में मुसलमानों के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं होगा कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरे भरोसे के साथ स्वागत करें। अगर मुक़दमे का यही फैसला रहा तो मुसलमानों के अन्दर कुछ ऐसे भाग हैं जो शायद मायूसी का एहसास करें। इसकी एक वजह यह मालुम होती है कि उन्हें यकीन है कि कानून उनके हक़ में फैसला करेगा। तथापि इस तरह के मुकदमे अधिकतर राजनीतिक विचार के जरिये चलाई जाती हैं और इस बात का बहुत इमकान है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रभावित किया जा सकता है। मुसलमानों के पास ख़ुशी से ज़मीनी तर्क करने के सिवा कोई चारा नहीं है। चाहे वह केस जीत जाएं या हार जाएं। मुसलमनों को उस धरती से अलग हो जाना चाहिए जिस पर कभी बाबरी मस्जिद की इमारत खड़ी थी। लेकिन अगर इमानदारी और इखलास के साथ किया जाए तो यह मुसलमानों के लिए मामले की बंदिश लाने के लिए काफी नहीं होगा।
बाबरी मस्जिद मसले की बंदिश नहीं हो सकती जब तक मुस्लिम धारणा की रूप रेखा के संबंध में गहरी छानबीन ना कर ली जाए और यह कि अतीत में हमने कहाँ और कैसे गलतियां की हैं। मुस्लिम राजनीतिक जीवन के बड़े भाग में हमने ऐसे चुनाव किये हैं जो बहुलतावाद और कानून की हुकमरानी के लिए अलाभप्रद साबित हुए हैं। मुसलमानों ने सेकुलरिज्म के लिबादे में आकर अपने गैर मामूली मुराआत का मुतालबा किया है।
हमें केवल शाह बानो के प्रतिरोधक घटनाओं पर विचार करने की आवश्यकता है कि किस तरह का मुतालबा मुसलमानों ने राज्य से किया। असल में मुस्लिम नेतृत्व ने इस देश की पार्लियामेंट और उच्च न्यायालय को बताया कि वह अपने धार्मिक नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। संक्षिप्त यह कि कानून बनाने की पेश रफ्त जो देश व्यक्तिगत नियमों में सुधार के के जरिये करना चाहता था उसे मुस्लिम नेतृत्व धार्मिक लोगों और तथाकथित ‘सेकुलर’ मुस्लिम नेताओं सहित सबने गैर इस्लामी करार दिया था।
अगर एक कम्युनिटी जो देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक है, अपने व्यक्तिगत नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने का निर्णय करता है और दोसरी ओर बहुसंख्यक समाज के धार्मिक नियमों के अन्दर लगातार सुधार आते हैं तो फिर अल्पसंख्यक बिरादरी और उसके मज़उमा धार्मिक विकल्पों के खिलाफ प्रतिक्रिया का सामने आना तो तय है।
अगर मुसलमान यह इस्तिदलाल करते हैं कि उनका अकीदा संविधान से उपर है (जैसा कि उन्होंने शाह बानो फैसले के बीच किया था) तो हिन्दुओं को यह बहस करने से क्या चीज रोकती है कि यह उनकी आस्था का मामला है कि इसी जगह पर मंदिर मौजूद था जहां कभी बाबरी मस्जिद की इमारत खड़ी थी। अल्पसंख्यक की हैसियत से, मुसलामानों को सबसे पहले कानून ए हुकूमत और कानून ए मसावात पर विश्वास करना चाहिए था। उन्हें चाहिए था कि वह संवैधानिक जमानतों के लिए लड़ने वाले पहले अफ़राद होते।
मगर फिर भी हमने देखा है कि मुसलमानों से जो उम्मीद थी उन्होंने बिलकुल उसका उलटा किया। यह सच है कि मौजूदा राजनीतिक आबोहवा इसके पीछे बहुत सारे कारण रखती है, लेकिन इसके असबाब की हकीकत की तलाश करने पर मालूम होगा कि मुस्लिम धार्मिक रहनुमाओं ने इसमें एक किरदार अदा किया है।
मुसलमानों ने ऐसा बर्ताव क्यों किया इसकी एक वजह यह है कि वह समझते हैं कि इस्लाम सारे ज़मानों के लिए कामिल और मुकम्मल है। इस प्रकार की सोच का मसला यह है कि यह स्वतः किसी भी प्रकार की सुधार का विरोधी है। और यह कि इस्लाम कुरआन और हदीस के जरिये समझा जाता है इसी लिए यह दलील दी जाती है कि मौजूदा संदर्भ में इन पवित्र शिक्षाओं की रूप रेखा या उनके मुनासिब होने के बारे में कोई बहस नहीं हो सकती है। सदियों की शिक्षाओं के प्रभाव से मुसलमानों का अकीदा है कि उनकी पवित्र किताबों को दोसरे सभी अकीदों और परम्पराओं पर एक ख़ास बरतरी प्राप्त है। ऐसे माहौल में जहां अक्सरियत का यह अकीदा है कि इसी हकीकत के विभिन्न राहें हैं जबकि इस्लाम का मुतवासिल सिद्धांत यह है कि उन की राह ही निजात की राह है। मुसलमानों का मानना है कि उनके अलावा सारे लोग जहन्नम में जाएंगे। उनका यह सिद्धांत ना केवल यह मानता है कि गैर मुस्लिम गुमराह हैं और यह कि वह उनके दीनी व मज़हबी समझ के मामले में कमतर हैं। इस तरह के व्यवहार से बहुसंख्यक वर्ग में प्रतिक्रिया का जन्म लेना तो बिलकुल तय है।
बाबरी मस्जिद और दोसरे विभिन्न समस्याएं जिसने इस समस्या को जन्म दिया है, उनमें हकीकी बंदिश तभी लगेगी जब मुसलमान वास्तविक तौर पर कुछ बुनियादी बरतरी वाली धार्मिक सिद्धांत जिनका वह अकीदा रखते हैं उन पर प्रश्न उठाना प्रारम्भ कर देंगे। हम इसे इस कुबूलियत के साथ शुरू कर सकते हैं कि इस्लाम उन विभिन्न राहों में से एक हैं जो निजात हासिल करने का जरिया है और यह कि बहोत सारे दोसरे धार्मिक अकीदे भी मौजूद हैं जिनमें सभी समान रूप से अमल और विश्लेषण के काबिल हैं।
(नोट- अरशद आलम का यह लेख न्यू एज इस्लाम से साभार प्रकाशित किया गया है।)
यह बात भी ना भूलें कि हम एक ऐसी मस्जिद की बात कर रहे हैं जिसे टीवी कैमरों के मुकम्मल नज़ारे में ढा दिया गया था। राजनीतिक रहनुमाओं पर ऐसे मुकदमात हैं जिन्होंने बाबरी मस्जिद के ढाए जाए में मुख्य भूमिका निभाई थी लेकिन वह सभी मुकदमें आज भी पुरे नहीं हैं। जिन लोगों ने भीड़ को मस्जिद तबाह करने की तलकीन की वह देश के आला कार्यालयों पर काबिज़ हो गए। अदालत के अंदर मजबूती के साथ जो समस्या उठी वह मस्जिद की आपराधिक तबाही नहीं बल्कि यह प्रशन उठा कि मस्जिद पहले मुसलामानों की ही थी।
किसी आखिरी फैसले के परिणाम में मुसलमानों को चाहिए कि वह अपनी प्रतिक्रिया के साथ तैयार रहें। यह कहना बहुत अच्छा है कि मुसलमान सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पासदारी करेंगे, लेकिन यह भी एक वास्तविकता है कि यह मुसलमानों के लिए एक जज़्बाती मसला है। मुसलामानों के लिए बंदिश किसी कानूनी फैसले के जरिये नहीं आएगी यह केवल इस मसले के संबंध में योजनाबद्ध जवाब के जरिये ही संभव है। इस फैसले के आने में दो संभावनाएं हैं और मुसलमानों को इन दोनों संभावनाओं का जवाब देने के लिए तैयार रहना होगा।
पहली संभावना यह है कि सुप्रीम कोर्ट मुकदमे का फैसला मुसलमानों के हक़ में कर दे। इससे समाज के अंदर अवश्य ख़ुशी होगी कि देश की उच्च अदालत ने एक ऐतिहासिक गलती को स्वीकार कर लिया है। तथापि अगर यह मामला हुआ तो फिर मुसलमान क्या करेंगे? क्या फिर उन्हें मांग करना चाहिए कि उसी जगह पर मस्जिद निर्माण की जाए जहां मौजूद थी? व्यावहारिक रूप से बात करें तो, हालांकि यह कानून मुसलमानों के हक़ में फैसला कर दे, इसके बावजूद वह उसी जगह पर मस्जिद निर्माण नहीं कर सकेंगे। इसकी वजह यह है कि राम मंदिर हिन्दुओं के लिए भी एक जज्बाती मसला है और वह कभी ऐसा नहीं होने देंगे। अगर मुसलमान इस मसले पर डटे रहें तो देश को बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ेगी। और आज के राजनीतिक प्रसंग की रूप रेखा के मद्देनज़र यह मुसलमानों के लिए इंसेदाद ए पैदावरी साबित हो सकता है।
इसलिए किसी अच्छे फासिले की स्थिति में मुसलमानों को फैसले का स्वागत करना चाहिए लेकिन उन्हें भी हिन्दुओं को ज़मीन तोहफे के तौर पर देने पर राज़ी होना चाहिए। ऐसा करते समय उन्हें अपने विरोधी पर किसी तरह कि कोई शर्त भी नहीं रखनी चाहिए। उन्हें केवल सद्भावना के तौर पर ज़मीन का तोहफा देना चाहिए। इस तरह का कार्य बुजदिलाना कार्य नहीं होगा बल्कि यह ताकत की हैसियत से होगा। यह पहलु भारत में हिन्दू मुस्लिम संबंधों में भी एक अहम मोड़ बन सकता है, जो इस समय विभिन्न कार्यों के कारण अत्यंत निराशा जनक है।
दूसरी संभावना यह है कि सुप्रीम कोर्ट मंदिर के हक़ में फैसला करे। मुसलमानों को निश्चित रूप से इस गह्तना का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि ऐसा लगता है कि यह अर्शों पुराने मुकदमे का ग़ालिब गुमान नतीजा हो सकता है। इस परिदृश्य में मुसलमानों के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं होगा कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरे भरोसे के साथ स्वागत करें। अगर मुक़दमे का यही फैसला रहा तो मुसलमानों के अन्दर कुछ ऐसे भाग हैं जो शायद मायूसी का एहसास करें। इसकी एक वजह यह मालुम होती है कि उन्हें यकीन है कि कानून उनके हक़ में फैसला करेगा। तथापि इस तरह के मुकदमे अधिकतर राजनीतिक विचार के जरिये चलाई जाती हैं और इस बात का बहुत इमकान है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रभावित किया जा सकता है। मुसलमानों के पास ख़ुशी से ज़मीनी तर्क करने के सिवा कोई चारा नहीं है। चाहे वह केस जीत जाएं या हार जाएं। मुसलमनों को उस धरती से अलग हो जाना चाहिए जिस पर कभी बाबरी मस्जिद की इमारत खड़ी थी। लेकिन अगर इमानदारी और इखलास के साथ किया जाए तो यह मुसलमानों के लिए मामले की बंदिश लाने के लिए काफी नहीं होगा।
बाबरी मस्जिद मसले की बंदिश नहीं हो सकती जब तक मुस्लिम धारणा की रूप रेखा के संबंध में गहरी छानबीन ना कर ली जाए और यह कि अतीत में हमने कहाँ और कैसे गलतियां की हैं। मुस्लिम राजनीतिक जीवन के बड़े भाग में हमने ऐसे चुनाव किये हैं जो बहुलतावाद और कानून की हुकमरानी के लिए अलाभप्रद साबित हुए हैं। मुसलमानों ने सेकुलरिज्म के लिबादे में आकर अपने गैर मामूली मुराआत का मुतालबा किया है।
हमें केवल शाह बानो के प्रतिरोधक घटनाओं पर विचार करने की आवश्यकता है कि किस तरह का मुतालबा मुसलमानों ने राज्य से किया। असल में मुस्लिम नेतृत्व ने इस देश की पार्लियामेंट और उच्च न्यायालय को बताया कि वह अपने धार्मिक नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। संक्षिप्त यह कि कानून बनाने की पेश रफ्त जो देश व्यक्तिगत नियमों में सुधार के के जरिये करना चाहता था उसे मुस्लिम नेतृत्व धार्मिक लोगों और तथाकथित ‘सेकुलर’ मुस्लिम नेताओं सहित सबने गैर इस्लामी करार दिया था।
अगर एक कम्युनिटी जो देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक है, अपने व्यक्तिगत नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने का निर्णय करता है और दोसरी ओर बहुसंख्यक समाज के धार्मिक नियमों के अन्दर लगातार सुधार आते हैं तो फिर अल्पसंख्यक बिरादरी और उसके मज़उमा धार्मिक विकल्पों के खिलाफ प्रतिक्रिया का सामने आना तो तय है।
अगर मुसलमान यह इस्तिदलाल करते हैं कि उनका अकीदा संविधान से उपर है (जैसा कि उन्होंने शाह बानो फैसले के बीच किया था) तो हिन्दुओं को यह बहस करने से क्या चीज रोकती है कि यह उनकी आस्था का मामला है कि इसी जगह पर मंदिर मौजूद था जहां कभी बाबरी मस्जिद की इमारत खड़ी थी। अल्पसंख्यक की हैसियत से, मुसलामानों को सबसे पहले कानून ए हुकूमत और कानून ए मसावात पर विश्वास करना चाहिए था। उन्हें चाहिए था कि वह संवैधानिक जमानतों के लिए लड़ने वाले पहले अफ़राद होते।
मगर फिर भी हमने देखा है कि मुसलमानों से जो उम्मीद थी उन्होंने बिलकुल उसका उलटा किया। यह सच है कि मौजूदा राजनीतिक आबोहवा इसके पीछे बहुत सारे कारण रखती है, लेकिन इसके असबाब की हकीकत की तलाश करने पर मालूम होगा कि मुस्लिम धार्मिक रहनुमाओं ने इसमें एक किरदार अदा किया है।
मुसलमानों ने ऐसा बर्ताव क्यों किया इसकी एक वजह यह है कि वह समझते हैं कि इस्लाम सारे ज़मानों के लिए कामिल और मुकम्मल है। इस प्रकार की सोच का मसला यह है कि यह स्वतः किसी भी प्रकार की सुधार का विरोधी है। और यह कि इस्लाम कुरआन और हदीस के जरिये समझा जाता है इसी लिए यह दलील दी जाती है कि मौजूदा संदर्भ में इन पवित्र शिक्षाओं की रूप रेखा या उनके मुनासिब होने के बारे में कोई बहस नहीं हो सकती है। सदियों की शिक्षाओं के प्रभाव से मुसलमानों का अकीदा है कि उनकी पवित्र किताबों को दोसरे सभी अकीदों और परम्पराओं पर एक ख़ास बरतरी प्राप्त है। ऐसे माहौल में जहां अक्सरियत का यह अकीदा है कि इसी हकीकत के विभिन्न राहें हैं जबकि इस्लाम का मुतवासिल सिद्धांत यह है कि उन की राह ही निजात की राह है। मुसलमानों का मानना है कि उनके अलावा सारे लोग जहन्नम में जाएंगे। उनका यह सिद्धांत ना केवल यह मानता है कि गैर मुस्लिम गुमराह हैं और यह कि वह उनके दीनी व मज़हबी समझ के मामले में कमतर हैं। इस तरह के व्यवहार से बहुसंख्यक वर्ग में प्रतिक्रिया का जन्म लेना तो बिलकुल तय है।
बाबरी मस्जिद और दोसरे विभिन्न समस्याएं जिसने इस समस्या को जन्म दिया है, उनमें हकीकी बंदिश तभी लगेगी जब मुसलमान वास्तविक तौर पर कुछ बुनियादी बरतरी वाली धार्मिक सिद्धांत जिनका वह अकीदा रखते हैं उन पर प्रश्न उठाना प्रारम्भ कर देंगे। हम इसे इस कुबूलियत के साथ शुरू कर सकते हैं कि इस्लाम उन विभिन्न राहों में से एक हैं जो निजात हासिल करने का जरिया है और यह कि बहोत सारे दोसरे धार्मिक अकीदे भी मौजूद हैं जिनमें सभी समान रूप से अमल और विश्लेषण के काबिल हैं।
(नोट- अरशद आलम का यह लेख न्यू एज इस्लाम से साभार प्रकाशित किया गया है।)