‘फ़ेक न्यूज़’ के रिपब्लिक में लेखिका को सूली चढ़ाता ‘राष्ट्रवादी’ ऐंकर !

Written by Media Vigil | Published on: May 25, 2017
मशहूर लेखिका अरुंधति राय का उपन्यास THE MINISTRY OF UTMOST HAPPINESS अगले महीने प्रकाशित होने जा रहा है। बुकर प्राइज़ से सम्मानित ‘गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ के 19 साल बाद आ रहे उनके इस उपन्यास को लेकर हर तरफ़ उत्सुकता है। इसे पूरा करने में अरुंधति इस कदर व्यस्त रहीं कि पिछले दो-तीन सालों में उनकी सार्वजनिक उपस्थिति बहुत कम रही। ना देश को मथने वाले तमाम सवालों पर उन्होंने कोई लंबा निबंध ही लिखा जो उनके फ़िक्शन जितने ही मशहूर होते हैं।


पर 22 मई को देश के सबसे बड़े राष्ट्रवादी पत्रकार अर्णव गोस्वामी अपने रिपब्ल्कि चैनल में बता रहे थे कि अरुंधति राय “8 मई को श्रीनगर गई थीं।” .. “’वे भारत के टुकड़े करवाना चाहती हैं।”… “उन्होंने भारतीय सेना को गाली दी है।”… “एक किताब पर इनाम पाने वाली इस लेखिका के मंसूबों को पूरा नहीं होने दिया जाएगा।”… हवाला दिया जा रहा था कि अरुंधति ने किसी इंटरव्यू में कहा है कि “भारत 7 नहीं 70 लाख की सेना कश्मीर में तैनात करके भी अपना लक्ष्य नहीं प्राप्त कर सकता।”


यह दृश्य भारतीय टीवी पत्रकारिता के दुर्भाग्य और पतन की इंतेहा के लिए याद किया जाएगा। सच्चाई यह है कि अरुंधति ने कहीं ऐसा बयान नहीं दिया और ना ही वे अरसे से कश्मीर ही गईं। हाँ, वे मोदी सरकार और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की कट्टर आलोचक हैं। कश्मीर से लेकर आदिवासी इलाकों में मानवाधिकारों के हनन का सवाल उठाती रही हैं।



आख़िर अर्णब को यह जानकारी मिली कहाँ से ? रिपब्लिक के स्क्रीन पर तमाम पाकिस्तानी वेबसाइटों में छपे अरुंधति के बयान की कतरनें दिखाई जा रही थीं। सोर्स ? इस सवाल का जवाब है -फ़ेक न्यूज़ !

इस प्रकरण से हालात की गंभीरता का बस अंदाज़ा लगाया जा सकता है। झूठ को सच मानकर गरमा-गरम तक़रीर करने वाले लोगों को पहले भीड़ और फिर हत्यारों में तब्दील कर सकते हैं। आज निशाने पर अरुंधति हैं, कल कोई और हो सकता है।

परेश रावल एक गंभीर अभिनेता माने जाते थे, बीजेपी के सांसद बनने से पहले। लेकिन वे अरुंधति को सेना की जीप में बाँधकर घुमाने की दुंदिभी बजा रहे थे। हवाला 9 अप्रैल की उस घटना का था जिसमें सेना के मेजर गोगोई ने एक व्यक्ति को सेना की जीप पर बाँध दिया था ताकि पत्थरबाज़ हमला ना करें। तमाम लोगों ने इसे मानवाधिकार का हनन और कश्मीर में अलगाव बढ़ाने वाला क़दम बताया। दूसरी तरफ़ सेना ने मेजर को सम्मानित किया है। मोदी सरकार मेजर के साथ है जिसके ख़िलाफ़ स्थानीय प्रशासन कार्यवाही कर रहा है।

परेश ने भी वही किया जो अर्णब कर रहे थे। उनका ट्वीट देखिए


परेश रावल ने अब अपना यह ट्वीट हटा लिया है।  शुरुआत 17 मई को हुई थी जिसमें उन्होंने अरुंधति के कथित बयान का सोर्स बताया था।
 


परेश ने जिस पोस्टकार्ड.इन के फ़ेसबुक पेज का हवाला दिया था, उसने 17 मई को शीर्षक दिया था- 70 लाख हिंदुस्तानी सेना कश्मीर की आज़ादी गैंग को हरा नहीं सकती। ख़बर में कहा गया था—यह महिला जो ख़ुद को पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता कहती है, दशकों से आतंकवादियों के पक्ष में खड़ी है। हाल ही में उसने पाकिस्तानी अख़बार द टाइम्स ऑफ इस्लामाबाद को इंटरव्यू है जिसमें आतंकवादियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई को लेकर भारत सरकार की आलोचना की गई है। अपने इंटरव्यू में अरुंधति ने कहा है-

“भारत कश्मीर घाटी पर कब्ज़े का मंसूबा पूरा नहीं कर सकता चाहे वह सैनिकों की संख्या 7 से बढ़ाकर 70 कर दे। कश्मीर में भारत विरोधी भावनाएँ वर्षों से जड़ जमाए हुए हैं।”    



यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि यह फ़ेक न्यूज़ है। लेकिन ‘पोस्टट्रुथ’ के दौर में न्यूज़ एक हथियार है, जिसे गढ़ा भी जा सकता है, सत्य का महत्व नहीं है। परेश रावल हों या अर्णब गोस्वामी, अपनी-अपनी ‘लोकेशन’ के हिसाब से यह ख़बर उन्हें काम की लगी और वे ले उड़े।

दरअसल, इन दिनों ऐसी तमाम वेबसाइटें सक्रिय हैं, जिनका मक़सद ही झूठ फैलाना और मोदी विरोधियों को सबक सिखाना है चाहे वे नेता हों या अभिनेता, लेखक हों या फ़िल्मकार या अन्य बुद्धिजीवी। पोस्टकार्ड.इन की यह ख़बर ठीक इसी अंदाज में हिंदुत्ववादी वेबसाइटों में छपीं। ज़ाहिर है, सोशल मीडिया में एक ही तरह की ख़बर अलग तमाम जगह दिखने लगे तो वह सत्य ही मान ली जाती है।



अर्णब गोस्वामी या इसी मुद्दे पर आग उगलने वाले सीएनएन आईबीएन के भूपेंद्र चौबे, अगर पत्रकारिता के कुछ बुनियादी उसूलों का इस्तेमाल करते, तो समझ जाते कि अरुंधति से जुड़ी ख़बर दरअसल अफ़वाह है। लेकिन उन्हें इसकी ज़रूरत नहीं। इस फ़ेक न्यूज़ का फ़ायदा पाकिस्तान की कुछ वेबसाइटों ने भी उठाया। भारत की कई गंभीर समझी जाने वाली वेबसाइटों में भी यह छप गई और उनकी शर्मिंदगी की वजह बनी।

हालात ये है कि फ़ेक न्यूज़ के ज़रिए अरुंधति राय ही नहीं, किसी भी शख़्स की हत्या कराई जा सकती है। भूलना नहीं चाहिए कि परेश रावल के बाद ‘राष्ट्रवादी’ गायक अभिजीत ने भी ट्वीट किया था कि ‘अरुंधति राय को जीप पर ना बाँधकर गोली से उड़ा देना चाहिए। ‘ ट्विटर ने उनका अकाउंड सस्पेंड कर दिया है।

झारखंड में हाल ही में व्हाट्सऐप के ज़रिए बच्चा चोरी की अफ़वाह उड़ाकर कई निर्दोषों को मार डाला गया। गाय के नाम पर भी यही सब हो रहा है। कुल मिलाकर भारत एक सभ्य और सहिष्णु समाज की छवि खोता जा रहा है। यह आज़ादी के बाद आगे बढ़ रही गाड़ी को बैक गियर में डालना है। बात सिर्फ़ अरुंधति राय जैसी लेखिका की नहीं है। ‘भारत’ नाम के विचार पर मँडराते ख़तरे की है।


 
अरुंधति राय निर्भीक विचारक होने को सही ‘अर्थ’ देती  हैं। बिना किसी भेद (इसमें सरहद का भेद भी है) वे सिर्फ न्याय-अन्याय पर विचार करती हैं। स्वाभाविक है सत्ता के निशाने पर रहती हैं। यूपीए के दौर में उनके लेखों की गूँज संसद तक पहुँची थी। चाहे बस्तर पर लिखा हो या कश्मीर पर।
2008 में ‘आउटलुक’ में उन्होंने कश्मीर पर अपना चर्चित और विचारोत्तेजक लिखा था। उन्होंने श्रीनगर की अपनी यात्रा की याद करते हुए लिखा था कि अगर ‘हरे झंडे को भगवा से बदल दिया जाए और इस्लाम की जगह हिंदुत्व का इस्तेमाल किया जाए तो कश्मीर में वही हो रहा है जो बीजेपी पूरे भारत में करना चाहती है।’

इस लेख में सिर्फ भारत सरकार की नीतियों की आलोचना नहीं की थी, ‘आज़ादी’ माँगने वालों पर भी गंभीर सवाल खड़े किए थे। उन्होंने सवाल किया था-

‘जिन्हें कुरान के हिसाब से चलना है, उन्हें तो आज़ादी होगी, लेकिन उनका क्या होगा जो कुरान से निर्देश नहीं पाना चाहते ? क्या जम्मू के हिंदुओं और दूसरे अल्पसंख्यकों को भी आत्मनिर्णय का अधिकार होगा ? क्या निर्वासित होकर ग़रीबी और तमाम दूसरी तक़लीफों में जीवन बसर कर रहे कश्मीरी पंडितों को वापस आने का अधिकार हगा या आज़ाद कश्मीर में अल्पसंख्यकों के साथ वही होगा जो भारत में हुआ है ? समलैंगिकों और नास्तिकों का क्या होगा ? चोरों, लफंगों और समाज की नैतिक संहिता को  ना मानने वाले लेखकों का क्या होगा ? क्या सऊदी अरब की तरह उन्हें मौत की सज़ा दी जाएगी? क्या यह ख़ूनी चक्र चलता रहेगा।  इतिहास में पढ़ने के लिए तमाम मॉडल हैं जो कश्मीर के विचारकों, बुद्धिजीवियों और राजनेताओं ने सुझाए हैं। इनका कश्मीर किसकी तरह होगा ? अल्जीरिया ? ईरान ? दक्षिण अफ्रीका? स्विटज़रलैंड? पाकिस्तान ?’  

आप अरुंधति से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनके बारे में झूठी अफ़वाह फैलाने वालों के बारे में कोई दोराय नहीं हो सकती। वे घृणा के सौदागर हैं। दंगाई राजनीति के एजेंट हैं ! फ़ासीवाद के हरकारे हैं ! अफ़सोस कि पत्रकार भी समझे जाते हैं।

बर्बरीक
 

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