जिस भेद-भाव ने एकलव्य से अंगूठे के रूप में उसका परिश्रम, उसकी प्रतिभा छीनी थी, क्या वह आज भी भारतीय समाज में व्यापक नहीं है? रोहित से लेकर कई दलित, प्रतिभावान युवक भारतीय विश्विद्यालयों में खुद को अकेला पाते है। अपने साथ वे न समाज को और न ही गुरु द्रोणाचार्य को खड़ा पाते है। ऐसे में कितने एकलव्य स्वयं ही अपना अस्तित्व मिटा देने पर मजबूर हो रहे है। एक युवा प्रतिभा द्वारा बनाई हुई इस करुण गाथा को एक बार फिर देखिये, और सोचिये - क्या हम आज भी एकलव्य का अंगूठा गुरु-दक्षिणा में नहीं मांग रहे ?
अर्जुन-एकलव्य, आज भी ?
जिस भेद-भाव ने एकलव्य से अंगूठे के रूप में उसका परिश्रम, उसकी प्रतिभा छीनी थी, क्या वह आज भी भारतीय समाज में व्यापक नहीं है? रोहित से लेकर कई दलित, प्रतिभावान युवक भारतीय विश्विद्यालयों में खुद को अकेला पाते है। अपने साथ वे न समाज को और न ही गुरु द्रोणाचार्य को खड़ा पाते है। ऐसे में कितने एकलव्य स्वयं ही अपना अस्तित्व मिटा देने पर मजबूर हो रहे है। एक युवा प्रतिभा द्वारा बनाई हुई इस करुण गाथा को एक बार फिर देखिये, और सोचिये - क्या हम आज भी एकलव्य का अंगूठा गुरु-दक्षिणा में नहीं मांग रहे ?