सपनों का सफर: बनारस के ढाब आईलैंड के नौजवान खाड़ी देशों में ‘रोटी’ की तलाश में झोंक देते हैं पूरी उम्र, मझधार में सैकड़ों 'सुहागिन विधवाएं'-ग्राउंड रिपोर्ट

Written by विजय विनीत | Published on: December 18, 2024
"हमारी जैसी औरतों की जिंदगी बहुत कठिन है। हमारे पति महीने-दो महीने में पैसे भेज देते हैं, लेकिन वो वहां किस हाल में हैं, कौन जानता है? यहां हमारे हिस्से में खेती-बारी का काम आया है, लेकिन उससे गुजारा मुश्किल है।"


नखवां बस्ती के लोग जो गल्फ की नौकरी से नहीं बदले इनके हालात

उत्तर प्रदेश के बनारस से करीब 28 किमी दूर है ढाब आईलैंड, जिसकी सीमाएं चंदौली को छूती हैं। पूर्वांचल का यह ऐसा टापू है जहां सूरज की रोशनी भले ही हर सुबह गंगा के पानी पर चमकती हों, लेकिन यहां की औरतों की जिंदगी अंधेरे से भरी पड़ी है। एक ऐसा अंधेरा, जिसमें इंतजार है, अकेलापन है और टूटे हुए सपने हैं। नीलम, रूपवती और काजल जैसी सैकड़ों महिलाएं इस अंधेरे की गवाह हैं। उनकी आंखों में एक अजीब सी उदासी है, जो बरसों से अपने पति के इंतजार में ठहर गई हैं।

34 साल की नीलम के पति दिलीप कुमार दुबई में रहते हैं। शादी के बाद ही उन्होंने परदेश की राह पकड़ ली थी। दिलीप का घर ढाब आईलैंडड की नखवां बस्ती में है। वो सालों से गल्फ में कारपेंटरी करते रहे, लेकिन इनके घर पर अभी तक प्लास्टर भी नहीं लग सका है। नीलम बताती हैं, "हमारी जैसी औरतों की जिंदगी बहुत कठिन है। हमारे पति महीने-दो महीने में पैसे भेज देते हैं, लेकिन वो वहां किस हाल में हैं, कौन जानता है? यहां हमारे हिस्से में खेती-बारी का काम आया है, लेकिन उससे गुजारा मुश्किल है।"

नीलम की जिंदगी का सबसे बड़ा दर्द यह है कि शादी के बाद उन्हें पति के साथ कहीं जाने का मौका नहीं मिला। वह कहती हैं, "हम भी चाहते थे कि पति के साथ घूमने जाएं, कुछ दिन उनके साथ बिताएं। लेकिन हमारी मजबूरी और हमारी किस्मत शायद यही है। हमारी जिंदगी तो विधवाओं से भी बदतर है। हम सुहागिन होकर भी विधवाओं जैसा जीवन जी रहे हैं।"

नीलम के दो छोटे बच्चे हैं। इनके पति दिलीप का सपना है उन्हें पढ़ा-लिखाकर बड़ा अफसर बनाने की, लेकिन उन्हें बेहतर शिक्षा देने का सपना अधूरा है। नीलम कहती हैं, "हम कान्वेंट स्कूल में बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन इतना पैसा कहां है? अपने घर का प्लास्टर तक नहीं करा पाए हैं। हमारे पति दुबई में कारपेंटर का काम करते थे, लेकिन वहां काम मिलना मुश्किल है। मजबूरी में उन्हें गड्ढे खोदने पड़ रहे हैं।"

रात के सन्नाटे में जब घर की दीवारें चुप हो जाती हैं, तब नीलम की सिसकियां गूंज उठती हैं। वह कहती हैं, "रात गुजरती है तो पति की बहुत याद आती है। लेकिन हमारी सिसकियों को भला कौन सुनेगा? हमारे आंसुओं का कोई अंत नहीं है। पति की याद में जब वो बहते हैं, तो बहते ही चले जाते हैं...।"

नखवां बस्ती की नीलम

ढाब आईलैंड पर ऐसी नीलम अकेली नहीं हैं। यहां की हर औरत की कहानी एक-दूसरे से मिलती-जुलती है। मंजू के पति भी गल्फ में नौकरी करते थे। बीमारी ने उनकी जान ले ली और वो विधवा हो गईं। मंजू बताती हैं, "शादी के बाद ससुराल की सारी जिम्मेदारियां मेरे कंधों पर आ गई हैं। सास-ससुर की देखभाल, देवर की शादी, ननदों की विदाई – सब कुछ उन्होंने अकेले संभाला है। पति विदेश में रहते थे। तीन-चार साल में वो एक बार ही गांव लौटते थे। उनके निधन के बाद हमारी मांग भी सूनी हो गई। हमारी कशमकश समझने वाला कोई नहीं हैं।"

ढाब की नखवां बस्ती की रूपवती की आवाज़ में भी वही दर्द है। वह कहती हैं, "जब औरतें एक साथ बैठती हैं, तब हम अपने दुख साझा करती हैं। हम सबकी कहानी एक है – सुहागिन होते हुए भी विधवा का जीवन जी रहे हैं।

औरतें किसे सुनाएं अपना दुखड़ा

रूपवती की आंखें अब सूनी हो चुकी हैं। रोते-रोते आंसू भी सूख गए हैं, और जिंदगी पहाड़ सी लगने लगी है। कोरोना के समय रूपवती का पति सियाराम दुबई में फंस गए थे। कंपनी ने न सिर्फ उसकी पगार रोक दी, बल्कि उसका पासपोर्ट भी जब्त कर लिया। यह अकेली रूपवती की कहानी नहीं है। यह गंगा के बीच बसे ढाब आईलैंड की सैकड़ों महिलाओं का सच है। वह कहती हैं, "हम तो सुहागिन हैं, लेकिन पति का इंतजार ही हमारा जीवन बन गया है। अरमानों का गला घोंट देना हमारी नियति है। हमें किससे अपना दुखड़ा सुनाएं?"

ढाब, गंगा नदी में उभरे एक छोटे से टापू पर बसा है। करीब 52 हजार की आबादी वाले इस द्वीप पर करीब एक हजार से अधिक ऐसी महिलाएं हैं, जिनके पति खाड़ी देशों में फंसे हैं। ये महिलाएं रोज उम्मीद और मायूसी के बीच झूल रही हैं। रूपवती बताती हैं,"पहले हर महीने बीस-पच्चीस हजार रुपये बैंक में आते थे। कोरोना के समय हमें फांकाकशी का शिकार होना पड़ा। कंपनी ने हमारे पति की पगार रोक दी थी। बच्चे भूख से बिलखते रहे और और मेरे पास उन्हें दो वक्त की रोटी देने तक का इंतजाम नहीं था।"

माला देवी की कहानी भी रूपवती से अलग नहीं है। लाकडाउन के समय उनके पति संतोष निषाद बहरीन में फंसे थे। उनके घर में अंधेरा पसरा था और माला के आंसू भी सूख गए थे। माला कहती हैं, "पति हमेशा तसल्ली देते रहते हैं कि सब ठीक हो जाएगा। लेकिन कब तक? यही सवाल हर रोज हमें खाता है। हमारी नियति है पति का इंतजार और अरमानों का गला घोंटना।"

खाड़ी देशों में फंसे ढाब आईलैंड के कामगारों की जिंदगी भी आसान नहीं है। काम के दबाव और आर्थिक तंगी के बावजूद वे अपनी परेशानी यहां की महिलाओं से छिपा लेते हैं ताकि उन्हें और चिंता न हो। लेकिन यह झूठा दिलासा कब तक टिकेगा? यह दर्द सिर्फ नीलम, मंजू, माला और रूपवती का नहीं है। पूरे ढाब की सैकड़ों महिलाएं अपने पतियों के लौटने की उम्मीद में तनहाई और तनाव के अंधेरे में जी रही हैं। ये महिलाएं न केवल अपने अरमानों को कुचल रही हैं बल्कि अपने बच्चों के भविष्य के लिए संघर्ष कर रही हैं।

इन महिलाओं का जीवन सुहागिन होकर भी विधवाओं जैसा है। घर में जब बच्चे बीमार होते हैं अथवा कोई विपत्ति आती है तो 'सुहाग' उनसे दूर होते हैं। कई बार हालात इतने भयावह हो जाते हैं कि वो चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। अकेले ढाब में करीब 1100 महिलाएं इस संकट से गुजर रही हैं। मालती देवी कहती हैं, "हर रोज एक नई चिंता जन्म लेती है। पति की चिंता, बच्चों का पेट और कर्ज का बोझ। अब कोई रास्ता नहीं दिखता।"


न घर के, न घाट के

ढाब आईलैंड की औरतें जिस अकेलेपन और मानसिक तनाव से गुजर रही हैं, उसे शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है। कम उम्र में शादी, जल्दी मां बनना और फिर पतियों का परदेश चले जाना। यह सिलसिला वर्षों से चलता आ रहा है। नीलम कहती हैं, "कम उम्र में लड़कियों की शादी करा देना सबसे बड़ी समस्या है। फिर मां बनने के बाद जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। पति दूर रहते हैं, ऐसे में हम अंदर ही अंदर टूटते रहते हैं। पति हमें पैसे भेजते हैं, लेकिन सरकार से हमें कोई मदद नहीं मिलती। हमारे पति वहां किस हाल में हैं, हमें नहीं पता। हमें तो बस अकेले जीना आ गया है।"

नखवा बस्ती के 63 वर्षीय राधेश्याम निषाद दोहा, कतर, आबूधाबी, दुबई, कुबैत के अलावा ओमान में काम कर चुके हैं। इनके चार बच्चे हैं। पत्नी निर्मला देवी नहीं रहीं। वह कहते हैं, "गल्फ की नौकरी कुत्तों की तरह होती है। भारतीय कामगार जब बीमार होते हैं तो आधी कमाई इलाज में ही खर्च हो जाती है। गल्फ में सालों नौकरी करने के बाद अब हमें एहसास होता है कि थोड़ा ही खाओ, लेकिन अपने देश में रहो।"

राधेश्याम कहते हैं, "ढाब के कामगारों की पत्नियां नहीं चाहती हैं कि उनके पति विदेश में रहें। गल्फ में काम करने वाले कामगारों के हालात आज तक नहीं बदले। ढाब आईलैंड की उन सभी औरतों के चेहरों पर थकान और निराशा साफ दिखती है जिनके पति विदेश में हैं।"


ढाब की औरतों की जिंदगी मुसीबतों का दूसरा नाम बन चुकी है। यहां हर घर का कोई न कोई आदमी खाड़ी देशों में मजदूरी करता है। किसी का पति कुवैत में है, तो किसी का सऊदी अरब में। सालों-साल उनके इंतजार में ये औरतें दिन काटती हैं। गांव में बची सैकड़ों औरतें सुहागिन होकर भी विधवा जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं। उनके जीवन में अकेलापन, तनाव और अवसाद घर कर चुका है।

नखवां बस्ती की औरतें अपनी बेबसी बयान करते हुए कहती हैं, "हमारे पति कई सालों से गल्फ में हैं। अकेलेपन और चिंता ने मुझे अंदर से तोड़ दिया है।" इस बस्ती की सैकड़ों औरतों की पीड़ा साफ झलकती है जिनके पति रोटी की तलाश में परदेस गए हैं। हालात इतने खराब हैं कि ये महिलाएं अपनी मानसिक और शारीरिक जरूरतों को नजरअंदाज कर केवल अपने बच्चों की परवरिश में जुटी हैं।

ढाब आईलैंड में छोटी उम्र में लड़कियों की शादी के तुरंत बाद पति खाड़ी देशों में कमाने चले जाते हैं, और यहां उनकी पत्नियां जल्दी मां बन जाती हैं। इस जिम्मेदारी और अकेलेपन ने इन महिलाओं की मानसिक स्थिति को बुरी तरह प्रभावित किया है। "हम इधर के हैं, न उधर के।" यह वाक्य नीलम बार-बार दोहराती हैं, जैसे उनकी जिंदगी का सार यही हो।

ढाब की एक महिला जिनके पति गल्फ में करते हैं नौकरी

सऊदी और दुबई की मजबूरी

ढाब आईलैंड की औरतें, जिंदगी के हर दिन एक नई उम्मीद लेकर जीती हैं कि शायद अगले महीने उनके पति लौट आएं, शायद उनकी आवाज में वो अपनापन सुनाई दे, जिसकी कमी से उनकी जिंदगी सूनी हो गई है। लेकिन यह इंतजार कभी खत्म नहीं होता। सैकड़ों आंखें उस पार से आने वाले जहाजों को तकती हैं, लेकिन लौटते हैं सिर्फ सपने और कुछ गहरी उदासियां।

पूर्वांचल, खासकर ढाब इलाका खाड़ी देशों के कुशल श्रमिकों पर निर्भर है। यहां के युवाओं के लिए रोजगार के अवसर नगण्य हैं। साल 1970 के दशक से शुरू हुई प्रवासी श्रम की यह परंपरा अब तक जारी है। बुर्ज खलीफा और अन्य गगनचुंबी इमारतों में इन श्रमिकों का पसीना बहा, लेकिन कोरोना के बाद हालात बदल गए। गल्फ के देशों में भारतीय कामगारों का शोषण बढ़ गया है। वहां कम पगार पर दिन-रात खटने पर मजबूर किया जाता है। कंपनियां कुशल श्रम कराने की बात कहकर गल्फ देशों में लेकर जाती हैं और वहां किसी को ऊंट चुगाने का काम दे दिया जाता है तो किसी से गड्ढा खुदवाने और सड़कें बनाने का काम में लगा दिया जाता है।


ढाब आईलैंड की नखवां बस्ती की हर गली, हर घर से कोई न कोई दुबई, सऊदी अरब, कतर, या बहरीन में काम करता है। हालात ने इन श्रमिकों को न सिर्फ वहां बेबस बना दिया है, बल्कि उनके परिवारों को यहां भूख और कर्ज के जाल में फंसा दिया है। बालकराम बताते हैं, "सरकारें सुनती नहीं हैं। एजेंट धोखा देते हैं। टूरिस्ट वीजा पर भेजते हैं और वहां मजदूरी करवाते हैं। जब काम बंद होता है तो कोई जिम्मेदारी लेने वाला नहीं बचता।"

सर्वाधिक विदेशी मुद्रा लाता है ढाब

ढाब, बनारस का ऐसा इलाका है, जहां यूपी में सर्वाधिक विदेशी मुद्राएं आती हैं। इस इलाके के युवाओं को दुबई, कतर और सउदी अरब की सपनीली दुनिया सबसे ज्यादा रिझाती है। ढाब आईलैंड के करीब एक हजार से अधिक नौजवान अपने परिवार को छोड़कर दुबई, शारजाह, मस्कट, दोहा-कतर, लीबिया आदि देशों में मजूरी करते हैं। ढाब के ज्यादातर लोग गल्फ देशों में मकान बनाने का काम करते हैं। कुछ ईंट चिनाई का काम करते हैं तो कई कारपेंटरी। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मकानों की सेंटरिंग और बढ़ईगीरी के हुनर के उस्ताद माने जाते हैं।

ढाब आईलैंड से खाड़ी देशों में काम करने के लिए जाने का चलन दशकों से चला आ रहा है। अरब सागर के उस पार बसे खाड़ी देशों में काम करना ढाब इलाके के लोगों के लिए सपनों की दुनिया है। करीब 2700 लोगों की आबादी वाली नखास बस्ती में शायद ही कोई घर होगा, जिसके परिवार का कोई आदमी गल्फ में नहीं गया होगा। नखवां बस्ती के राम कुंवर साल 1976 में जब दुबई गए थे तब वहां बहुत काम था। दुबई में उन्होंने बुर्ज खलीफा जैसी इमारतों को खड़ा किया। बरसों तक अपना पसीना बहाया।


राम कुंवर कहते हैं, "बीमारी ने हमें घेर लिया तो कंपनी ने हमारा साथ छोड़ दिया। 09 जनवरी 2023 में हम घर लौट आए। करीब डेढ़ दशक पहले हमारे पुत्र प्रमोद गल्फ में नौकरी करते थे और अब वो रमचंदीपुर के प्रधान हैं। पहले की तरह खाड़ी देशों में अब काम नहीं रह गया है। पूर्वांचल में नौकरी की संभावना न होने के कारण लाचारी में बड़ी संख्या में लोग वहां फंसे हैं। हमारे परिवार के कपिलदेव (कतर) के अलावा सुरेंद्र, अनुज और वीरेंद्र दुबई में कारपेंटरी का काम करते हैं।"

नखवां बस्ती के गुल्लू मल्लाह, शंकर, अर्जुन समेत तमाम नौजवान गल्फ देशों में नौकरी करते हैं। इसी बस्ती के गोपाल ने दुबई की बहुमंजिल इमारत बुर्ज खलीफा में बतौर इलेक्ट्रिशियन काम किया। वह बताते हैं, "हम दो-तीन साल में एक मर्तबा घर आते थे तो पत्नी हमें हर बार परदेश जाने से रोका करती थी। लेकिन मजबूरी में हमारे कदम आगे बढ़ जाते थे।"

55 वर्षीय मुनीब कुमार निषाद की कहानी भी दर्दनाक है। वह कहते हैं, "खाड़ी देशों में कई साल गुजारने के बाद साल 2019 में हम घर लौट आए। मेरे छोटे भाई सिपाही प्रसाद निषाद दस साल पहले दुबई गए थे। गल्फ देशों में वैसी स्थिति नहीं है, जैसी पहले हुआ करती थी। पहले काम का दबाव कम था, लेकिन अब कंपनिया बैल की तरह खटा रही हैं। हमारी कहीं सुनवाई नहीं होती। गल्फ देशों में भारतीय कामगारों को “खरजी” के नाम से जाना जाता है।"

"खाड़ी देशों में काम कराने वाली कंपनियां श्रमिकों का पासपोर्ट और जरूरी सभी अभिलेख अपने पास रख लेती हैं। ये कंपनियां चाहती हैं तभी श्रमिक अपने वतन लौट पाते हैं। आमतौर पर छुट्टी भी मुश्किल से मिलती है। मेरे परिवार के 35 वर्षीय मुन्ना कतर में कारपेंटर हैं। ढाब के श्रमिकों की मजबूरी यह है कि डाट-फटकार सुनते हुए काम करना हमारी मजबूरी होती है।"



कठिन है श्रमिकों की ज़िंदगी

सामाजिक कार्यकर्ता बल्लभाचार्य का मानना है कि यह समस्या सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक भी है। महिलाएं अवसाद में जा रही हैं, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है। ढाब आईलैंड की ये औरतें कहती हैं कि उनके पति विदेशों में मेहनत कर रहे हैं, लेकिन वहां भी उनका शोषण होता है। नखवां बस्ती में मरीजों के उपचार के लिए सालों पहले एक अस्पताल बनवाया गया था, जो अब खंडहर में तब्दील हो गया है। जब से अस्पताल की इमारत खड़ी हुई, यहां न तो कोई डाक्टर आया और न ही कर्मचारी। इस इमारत में गंजेड़ी-शराबी जुटते हैं और जुआ होता है। सरकारी इमारत अब ढहने की कगार पर है।

बल्लभाचार्य कहते हैं, "ढाब के सैकड़ों परिवारों का जीवन खाड़ी देशों से आने वाली कमाई पर टिका है। सरकारें इन प्रवासी श्रमिकों की ओर से आंखें मूंदे बैठी हैं। इनकी श्रम शक्ति का इस्तेमाल विदेशों में तो होता है, लेकिन संकट के समय ये बेबस और अकेले छोड़ दिए जाते हैं। नौकरी के मौके न होने के कारण ही पूर्वांचल के हजारों युवा मजबूरी में खाड़ी देशों की ओर जाते हैं। सरकार ने कामगारों की पत्नियों के अवसाद पर ध्यान नहीं दिया तो नखवां बस्ती की औरतों की कहानियां आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक दहकता सच बन जाएंगी। ढाब की औरतों का संघर्ष, सिस्टम की खामोशी का प्रतीक है। सवाल अब यह है कि इन सुहागिनों की जिंदगी में रोशनी कब लौटेगी? कब लौटेंगे पिया? कब खत्म होगी यह पीड़ा? यह सवाल आज भी ढाब की सैकड़ों औरतों की आंखों में तैर रहा है।"


दुबई में काम करते हुए जिंदगी के कई दशक गुजार देने वाले नखवां बस्ती के बालक राम बेबाकी से स्वीकार करते हैं, "गल्फ सिंड्रोम एक हकीकत है। बहरीन, कतर, यूनाइटेड अरब अमीरात और ओमान में भी बनारस के सैकड़ों कामगार हैं। खाड़ी देशों में लोगों के सपने बसते हैं। लाचारी में ढाब की सैकड़ों औरतों के ख्वाब और सपने कुचल रहे हैं।"

"तेल की दौलत से मालामाल ये देश भले ही ढाब इलाके के सैकड़ों कामगारों की मंजिल रहे हों, लेकिन इस आईलैंड के कामगारों की जिंदगी बेहद कठिन हो गई है। जब तक अपने घर में नौकरी के पर्याप्त अवसर नहीं होंगे, तब तक गरीबी और मुफलिसी में जीवन गुजारने वालों को सऊदी अरब, दुबई, कतर जैसे खाड़ी देश अपनी तरफ खींचते रहेंगे।"


मुश्किल में मुकद्दर

करीब साढ़े सात किमी दायरे में फैले ढाब आईलैंड पर पांच खूबसूरत गांव बसे हैं। ये गांव हैं रमचंदीपुर, गोबरहां, मोकलपुर, मुस्तफाबाद (आंशिक) और रामपुर (आंशिक)। यहां सर्वाधिक आबादी मल्लाह, यादव और दलितों की है। इनके अलावा गोंड, कहार, नाई, धोबी, गुसाई, मुसलमान, राजभर के अलावा राजपूत, ब्राह्मण जातियों के लोग रहते हैं। यह पूर्वांचल का वो ग्रामीण इलाका है जहां के बाशिंदे सर्वाधिक विदेशी मुद्रा कमाते हैं।

ढाब आईलैंड का आकार लगातार सिकुड़ता जा रहा है। साथ ही इससे सटे चंदौली जिले के कुरहना, कैली, महडौरा, भोपौली समेत कई गांवों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। ढाब आईलैंड को बचाने के लिए कुछ साल पहले गंगापुर और रामचंदीपुर में तटबंध बनाए गए। रामचंदीपुर में 245 मीटर में आठ कटर बनाए गए हैं। गंगापुर में भी कटर बनाने का काम पूरा हो चुका है। इस परियोजना पर करीब 6.28 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। सिंचाई विभाग का दावा है कि तटबंध बनने से रामचंदीपुर, गंगापुर धराधर, गोबरहा, रामपुर, मिसिरपुरा, अम्बा, छितौनी, चांदपुर, मुस्तफाबाद आदि गांव पूरी तरह सुरक्षित हो हो गए हैं, लेकिन कटान का सिलसिला थमा नहीं है।

बनारस जिले का ढाब आईलैंड चंदौली लोकसभा सीट का हिस्सा है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र से बिल्कुल सटा हुआ है। करीब दस साल तक इस इलाके के सांसद रहे भाजपा के डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय केंद्र सरकार के काबीना मंत्री रहे, लेकिन ढाब को पर्यटन विलेज बनाने में तनिक भी दिलचस्पी नहीं ली। इस इलाके के लोगों को शिकायत है कि इलाकाई विधायक अनिल राजभर भी यूपी सरकार के कैबिनेट मंत्री हैं, लेकिन इन्हें भी ढाब के विकास की तनिक भी चिंता नहीं है।


ग्रामीणों का कहना है कि बनारस को ढाब आईलेंड से जोड़ने वाले निषादराज ब्रिज पर बड़े-बड़े गड्ढे हो गए हैं। यूपी विधानसभा में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले अनिल राजभर ब्रिज की मरम्मत पर तनिक भी ध्यान नहीं दे रहे हैं, जबकि इस बाबत उन्हें कई मर्तबा अगवत कराया गया। ढाब आईलैंड के लोग चाहते हैं की यूपी और केंद्र सरकार दोनों मिलकर इसे पर्यटक विलेज के रूप में विकसित करें, लेकिन ग्रामीणों की मुश्किलें कम होती नहीं दिख रही हैं।

वर्तमान समय में, रिंगरोड बनने के बाद ढाब आईलैंड सीधे बाबतपुर एयरपोर्ट से जुड़ चुका है। मुस्तफाबाद के पूर्व प्रधान राजेंद्र सिंह कहते हैं कि विश्व प्रसिद्ध सारनाथ और फूलों व फलों की खेती के लिए मशहूर चिरईगांव भी ढाब आईलैंड के नजदीक हैं, जहां पर्यटक और सैलानी आसानी से घूम सकते हैं। संसाधनों के दोहन और पर्यटन के नजरिये से इस आईलैंड को विकसित किया जाए तो ढाब आने वाले दिनों में एक आकर्षक क्षेत्र बन सकता है और यहां के युवाओं को गल्फ में नौकरी करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

ढाब आईलैंड के विकास का खाका खींचते हुए राजेंद्र कहते हैं, " इस आईलैंड पर करीब चार सौ एकड़ सरकारी जमीन खाली पड़ी है। पर्यटन विकास के लिए किसी की खेती की जमीन के अधिग्रहण की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। इसे पर्यटक विलेज के रूप में भी विकसित किया जा सकता है। होटल और रेस्त्रा खोलने के लिए उद्यमियों को आमंत्रित किया जाए तो यह इलाका अपनी खूबसूरती की वजह से हनीमून कपल्स और वाटर स्पोर्ट्स लवर्स के बीच पसंदीदा स्थान बन सकता है।"


"मालदीव की तरह ढाब आईलैंड के सोते में सैलानियों के लिए स्विमिंग, कयाकिंग और वेकबोर्डिंग जैसी कई मनोरंजक वाटर एक्टिविटीज शुरू की जा सकती है। रीफ स्कुवा डाइविंग के लिए भी यह इलाका अच्छा है। नमो घाट से गंगा के रास्ते ढाब आईलैंड की दूरी उतनी ही है, जिनती रामनगर की है। दुर्योग की बात यह है कि पर्यटन की दृष्टि से इस इलाके के विकास के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कई अर्जियां भेजी जा चुकी हैं, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।"

विकास की कीमत चुका रहा ढाब!

बनारस के आंचलिक पत्रकार प्यारेलाल यादव कहते हैं, "ढाब आईलैंड की धरती बेहद उपजाऊ है। बनारस में दूध और सब्जियों की सर्वाधिक आपूर्ति इसी ढाब से ही होती है। यहां के ज्यादातर लोग बागवानी करते हैं या फिर पशुपालन। ये धंधा भी अब आसान नहीं रह गया है। जंगली सुअर और घड़रोज बाग-बगीचे और सब्जियों की फसलें बर्बाद करने लगे हैं। ग्रामीणों की कड़ी मेहनत और बुलंद हौसलों के बावजूद ढाब आईलैंड में विकास सपना है। कुछ साल पहले तक यह आईलैंड समूची दुनिया से कट जाता था। सावन-भादों में न बिजली मिलती थी और न मोबाइल नेटवर्क। बनारस के नक्शे पर इस टापू के गांव दिखते ही नहीं थे।"

"अखिलेश सरकार ने मुस्तफाबाद के पास एक शानदार पुल बनाकर ढाब आईलैंड के लोगों की मुश्किलें थोड़ी आसान की, लेकिन दुश्वारियां कम नहीं हुई हैं। ढाब आईलैंड को गंगा ने तब से ज्यादा रेतना शुरू किया है जब से जलपोत चलाने के लिए नदी की ड्रेजिंग कराई गई। रिंग रोड बननी शुरू हुई तो भ्रष्टाचार में डूबी सरकारी मशीनरी ने विकास के बहाने ठेकेदारों और माफियाओं को मिट्टी के अवैध खनन की छूट दे दी।"


प्यारेलाल कहते हैं, "सरकार की घोर उपेक्षा के चलते ठेकेदार और माफिया भी इस आईलैंड का वजूद मिटाने में जुट गए हैं। रिंगरोड के विकास के नाम पर टापू के किनारे पोकलेन लगाकर चौतरफा बड़े पैमाने पर अवैध ढंग से मिट्टी निकाली गई है, जिससे यहां बड़े-बड़े गड्ढे हो गए हैं। ढाब इलाके में अवैध खनन जारी रहा तो यह आईलैंड ऐसे लोगों की जन्मस्थली के रूप में याद रखा जाएगा जो पूर्वाचल में सबसे पहले किसी खूबसूरत टापू पर विस्थापित हुए थे।"

बनारस में कई मर्तबा बाढ़ और शक्तिशाली तूफान आए, लेकिन ढाब के बाशिंदों को सुरक्षित ठौर पर जाने की जरूरत नहीं पड़ी। बनारस में गंगा ने इकलौते टापू पर कई पीढ़ियों से हजारों परिवारों को शरण दे रखी है, लेकिन पिछले एक दशक में गंगा तेजी से इस टापू का अस्तित्व मिटाने में जुटी हैं। गोबरहां के पास गंगा तेजी से इस आईलैंड को काट रही हैं। इसी तरह का कटान मुस्तफाबाद में भी हो रहा है।

रमचंदीपुर, गोबरहां, मोकलपुर, मुस्तफाबाद और रामपुर गांव में सैकड़ों बीघा जमीन गंगा लील चुकी है। जोखन सिंह कहते हैं, " ढाब की कहानी में सिर्फ औरतों के आंसू ही नहीं, इस आईलैंड का वजूद भी खिसकता और सिसकता नजर आ रहा है। गंगा के किनारे रेत की दीवारें अब इन गावों की सरहद को बचाने में सक्षम नहीं रह गई हैं। ढाब के मूल निवासी उस समस्याओं की कीमत चुका रहे हैं जो उन्होंने खड़ी नहीं की है। सरकार ने हम पर अपनी समस्या लादी है और अब वह चाहती है कि हम खुद ही सब कुछ उठाकर यहां से चले जाएं। आखिर ये किस तरह की सरकार है? "

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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