अगर अपने समाज की नब्ज पहचानते हैं तो आपको इस बात का यकीन होगा कि आम सवर्ण आरक्षण को बेहद हिकारत के भाव से देखते आये हैं। आज से दो-तीन दशक पहले जातिसूचक गालियां होती थीं, उनकी जगह अब `कोटा वाले' इस्तेमाल करने से काम चल जाता है।
मैं व्यक्तियों की बात नहीं कर रहा हूं लेकिन आम सवर्ण भावना यही है कि आरक्षण ने देश का बेड़ा गर्क रखा है। आरक्षण की वजह से अयोग्य लोग मेरिट वालों का हक मार रहे हैं और इसलिए मेरा भारत महान नहीं बन पा रहा है।
कहने का मतलब यह है कि एसटीएसी और ओबीसी आरक्षण देश की बड़ी सवर्ण आबादी के मन में एक किस्म का पवित्रता बोध भरता है कि देखो हम उनके जैसे नहीं हैं।
फेसबुक और व्हाट्स एप शेयर होनेवाले हज़ारों पोस्टर याद कीजिये जिसमें कहा गया है कि हम गरीब हैं लेकिन आरक्षण की भीख नहीं मांगते हैं। मौजूदा दौर में जहां कम से कम बड़े शहरों में जाति व्यवस्था टूटती दिखाई दे रही है, आरक्षण अगड़ी जातियों के लिए अपनी पवित्रता बचाये रखने का जरिया था।
अब मोदी सरकार ने सवर्णों से उनका यह पवित्रता बोध भी छीन लिया है। इसके बदले में सवर्णों का क्या मिला है? उन्हें वही मिला है, जो उनके पास पहले से था। दस परसेंट गरीब सवर्ण कोटा के जो पैमाने तय किये गये हैं, उसमें अगड़ों की 90 फीसदी आबादी जा जाती है।
यह कोटा मौजूदा 49.5 परसेंट नहीं बल्कि बाकी बचे 50.5 परसेंट में से निकाला गया है। इस 50.5 परसेंट के सबसे बड़े लाभार्थी पहले से ही सवर्ण थे। तो क्या वाकई रातो-रात की गई नई आरक्षण व्यवस्था से सवर्णों को कोई फायदा होगा? आर्थिक आधार एक इतना मुश्किल पैमाना है, जिसका मानकीकरण लगभग असंभव है। देश की बड़ी आबादी आजकल निजी क्षेत्र में काम कर रही है, जहां आमदनी तेजी से बदलती रहती है। ऐसे में भला आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण सरकार भला किस तरह ढूंढेगी?
एसटीएसी एक्ट पर संविधान संशोधन के बाद पैदा हुई नाराजगी मोदी सरकार को डरा रही है। ऐसे में उसने एक ऐसा बैलेसिंग एक्ट ढूंढने की कोशिश की है, जिसका फ्लॉप होना अवश्यंभावी है। सवर्णों के एक तबके में `पीड़ित' भाव हमेशा से रहा है। उन्हे जब इसका अंदाज़ा होगा कि सरकार उन्हें मूर्ख भी मानती है, तो किस तरह की प्रतिक्रिया होगी?
शिक्षा और रोजगार में आबादी के आधार पर प्रतिनिधित्व का सवाल लंबे समय से सुलग रहा है। सुप्रीम कोर्ट के 49.5 परसेंट कैप का हवाला देकर सरकारें इस मामले को ठंडा करती आई हैं। अब यह सारे सवाल फिर खुलेंगे। लोकसभा चुनाव में जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने की मांग उठेगी। मंडल और कमंडल की लड़ाई फिर से जोर पकड़ेगी। कमंडल को लेकर बीजेपी दुविधा में है। लेकिन आरजेडी जैसी पार्टियों ने बता दिया है कि मंडल को लेकर उनके मन में कोई संशय नहीं है। ऐसे में आनेवाले दिनों के राजनीतिक घटनाक्रम बेहद दिलचस्प होंगे।
मैं व्यक्तियों की बात नहीं कर रहा हूं लेकिन आम सवर्ण भावना यही है कि आरक्षण ने देश का बेड़ा गर्क रखा है। आरक्षण की वजह से अयोग्य लोग मेरिट वालों का हक मार रहे हैं और इसलिए मेरा भारत महान नहीं बन पा रहा है।
कहने का मतलब यह है कि एसटीएसी और ओबीसी आरक्षण देश की बड़ी सवर्ण आबादी के मन में एक किस्म का पवित्रता बोध भरता है कि देखो हम उनके जैसे नहीं हैं।
फेसबुक और व्हाट्स एप शेयर होनेवाले हज़ारों पोस्टर याद कीजिये जिसमें कहा गया है कि हम गरीब हैं लेकिन आरक्षण की भीख नहीं मांगते हैं। मौजूदा दौर में जहां कम से कम बड़े शहरों में जाति व्यवस्था टूटती दिखाई दे रही है, आरक्षण अगड़ी जातियों के लिए अपनी पवित्रता बचाये रखने का जरिया था।
अब मोदी सरकार ने सवर्णों से उनका यह पवित्रता बोध भी छीन लिया है। इसके बदले में सवर्णों का क्या मिला है? उन्हें वही मिला है, जो उनके पास पहले से था। दस परसेंट गरीब सवर्ण कोटा के जो पैमाने तय किये गये हैं, उसमें अगड़ों की 90 फीसदी आबादी जा जाती है।
यह कोटा मौजूदा 49.5 परसेंट नहीं बल्कि बाकी बचे 50.5 परसेंट में से निकाला गया है। इस 50.5 परसेंट के सबसे बड़े लाभार्थी पहले से ही सवर्ण थे। तो क्या वाकई रातो-रात की गई नई आरक्षण व्यवस्था से सवर्णों को कोई फायदा होगा? आर्थिक आधार एक इतना मुश्किल पैमाना है, जिसका मानकीकरण लगभग असंभव है। देश की बड़ी आबादी आजकल निजी क्षेत्र में काम कर रही है, जहां आमदनी तेजी से बदलती रहती है। ऐसे में भला आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण सरकार भला किस तरह ढूंढेगी?
एसटीएसी एक्ट पर संविधान संशोधन के बाद पैदा हुई नाराजगी मोदी सरकार को डरा रही है। ऐसे में उसने एक ऐसा बैलेसिंग एक्ट ढूंढने की कोशिश की है, जिसका फ्लॉप होना अवश्यंभावी है। सवर्णों के एक तबके में `पीड़ित' भाव हमेशा से रहा है। उन्हे जब इसका अंदाज़ा होगा कि सरकार उन्हें मूर्ख भी मानती है, तो किस तरह की प्रतिक्रिया होगी?
शिक्षा और रोजगार में आबादी के आधार पर प्रतिनिधित्व का सवाल लंबे समय से सुलग रहा है। सुप्रीम कोर्ट के 49.5 परसेंट कैप का हवाला देकर सरकारें इस मामले को ठंडा करती आई हैं। अब यह सारे सवाल फिर खुलेंगे। लोकसभा चुनाव में जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने की मांग उठेगी। मंडल और कमंडल की लड़ाई फिर से जोर पकड़ेगी। कमंडल को लेकर बीजेपी दुविधा में है। लेकिन आरजेडी जैसी पार्टियों ने बता दिया है कि मंडल को लेकर उनके मन में कोई संशय नहीं है। ऐसे में आनेवाले दिनों के राजनीतिक घटनाक्रम बेहद दिलचस्प होंगे।