डॉक्टर ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा कि चार साल पहले जब किराए का मकान ढूंढ रहे थे, तो उस वक्त की तुलना में अब जाति के आधार पर मना करने की प्रवृत्ति ज्यादा हो गई है।
प्रतीकात्मक तस्वीर, साभार: सोशल मीडिया
जातिगत भेदभाव कम होने के बजाय और बढ़ता जा रहा है। एक डॉक्टर द्वारा हाल ही में किए गए सोशल मीडिया पोस्ट से यह जाहिर होता है कि उच्च शिक्षा और बेहतर प्रोफेशन होने के बावजूद लोग जाति के आधार पर भेदभाव का सामना कर रहे हैं।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, Reddit प्लेटफार्म पर किए गए इस पोस्ट में डॉक्टर ने अपनी परेशानी का अनुभव साझा किया, वे आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में अरिलावा हेल्थ सिटी के पास किराए का घर ढूंढ रहे हैं। उन्होंने बताया कि कई मकान मालिकों ने उनसे सबसे पहले उनकी जाति के बारे में पूछा। उन्होंने कहा, "जब मैंने बताया कि मैं अनुसूचित जाति (SC) से हूं, तो उन्होंने घर देने से मना कर दिया। कोई बात नहीं। मैं अब इसका आदी हो गया हूं और खुश हूं कि उन्होंने तुरंत मना कर दिया। कम से कम समय बर्बाद नहीं हुआ।"
इस कड़ी में एक घटना जो उनके लिए खास तौर से निराशाजनक रही। यह घटना तब हुई जब दो दिन की बातचीत के बाद, मकान मालिक ने उनकी आधार कार्ड मांगी ताकि किराए का एग्रीमेंट बनाया जा सके। जैसे ही मकान मालिक ने डॉक्टर का सरनेम देखा, उन्होंने जाति पूछी और फिर मना कर दिया। डॉक्टर ने निराश हो कर कहा, "उसने भी आखिर में मना कर दिया... समय और पैसे दोनों की बर्बादी हो गई।" उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने पहले से ही फर्नीचर और पूजा स्थल का ऑर्डर दे दिया था, जिसे अब मना करना पड़ा।
डॉक्टर ने अपने पुराने अनुभव का साझा करते हुए कहा कि चार साल पहले जब वह आखिरी बार किराए का घर ढूंढ रहे थे, तब की तुलना में अब जाति के आधार पर मना करने की प्रवृत्ति अधिक हो गई है। उन्होंने बताया कि, "दिलचस्प बात यह है कि अब जाति के आधार पर मना करने वालों की संख्या में इजाफा हो गया है।" इससे स्पष्ट होता है कि शहरी इलाकों में भी निचली जातियों के लोगों को अभी भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
बार-बार मना किए जाने को लेकर डॉक्टर परेशान हो गए। इस क्रम में उन्होंने एक नैतिक दुविधा भी साझा की। उनकी पत्नी ऊंची जाति से हैं, और वह सोच रहे थे कि क्या उन्हें अपनी पत्नी की जाति बताकर अपनी जाति छिपा लेनी चाहिए ताकि उन्हें किराए पर मकान मिल सके।
डॉक्टर ने अपनी पोस्ट में यह भी साफ किया कि सभी मकान मालिकों ने जाति के आधार पर उन्हें मना नहीं किया। कुछ घर उनके बजट से बाहर थे। उन्होंने बताया, "मैंने मड्डिलापलेम से लेकर येनडाडा और विशालाक्षी नगर तक घर ढूंढे, लेकिन 99% घर मेरे बजट से बाहर हैं।" उनके बजट में 2बीएचके के लिए 10,000 रुपये और 3बीएचके के लिए 15,000 रुपये है।
इसके बावजूद जाति के कारण मना करना उनके लिए एक बड़ी बाधा बनी रही। डॉक्टर ने अरिलावा हेल्थ सिटी के पास सस्ते मकान के विकल्पों पर सलाह मांगी और व्यंगात्मक लहजे में लिखा कि क्या उन्हें अपनी पत्नी की जाति बताकर अपनी जाति छिपा लेनी चाहिए ताकि उन्हें घर मिल सके। हालांकि, उन्होंने यह भी चिंता जताई कि अगर मकान मालिक को बाद में सच्चाई का पता चला तो क्या इससे कोई समस्या हो सकती है: "क्या इससे भविष्य में कोई परेशानी होगी अगर मकान मालिक को पता चले कि उनके घर में बिना उनकी मंजूरी के एक निचली जाति का व्यक्ति रहता है?"
यह व्यक्तिगत अनुभव इस बात को उजागर करता है कि जातिगत भेदभाव आज भी बड़े शहरों में मौजूद है, जहां लोग मानते हैं कि यह अब नहीं है। एक योग्य डॉक्टर होते हुए भी व्यक्ति को उसकी पेशेवर पहचान या स्वभाव के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी जाति के आधार पर आंका गया। इससे यह साफ होता है कि जाति आधारित पूर्वाग्रह अभी भी समाज के हाशिए पर खड़े समुदायों को प्रभावित कर रहे हैं।
प्रतीकात्मक तस्वीर, साभार: सोशल मीडिया
जातिगत भेदभाव कम होने के बजाय और बढ़ता जा रहा है। एक डॉक्टर द्वारा हाल ही में किए गए सोशल मीडिया पोस्ट से यह जाहिर होता है कि उच्च शिक्षा और बेहतर प्रोफेशन होने के बावजूद लोग जाति के आधार पर भेदभाव का सामना कर रहे हैं।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, Reddit प्लेटफार्म पर किए गए इस पोस्ट में डॉक्टर ने अपनी परेशानी का अनुभव साझा किया, वे आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में अरिलावा हेल्थ सिटी के पास किराए का घर ढूंढ रहे हैं। उन्होंने बताया कि कई मकान मालिकों ने उनसे सबसे पहले उनकी जाति के बारे में पूछा। उन्होंने कहा, "जब मैंने बताया कि मैं अनुसूचित जाति (SC) से हूं, तो उन्होंने घर देने से मना कर दिया। कोई बात नहीं। मैं अब इसका आदी हो गया हूं और खुश हूं कि उन्होंने तुरंत मना कर दिया। कम से कम समय बर्बाद नहीं हुआ।"
इस कड़ी में एक घटना जो उनके लिए खास तौर से निराशाजनक रही। यह घटना तब हुई जब दो दिन की बातचीत के बाद, मकान मालिक ने उनकी आधार कार्ड मांगी ताकि किराए का एग्रीमेंट बनाया जा सके। जैसे ही मकान मालिक ने डॉक्टर का सरनेम देखा, उन्होंने जाति पूछी और फिर मना कर दिया। डॉक्टर ने निराश हो कर कहा, "उसने भी आखिर में मना कर दिया... समय और पैसे दोनों की बर्बादी हो गई।" उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने पहले से ही फर्नीचर और पूजा स्थल का ऑर्डर दे दिया था, जिसे अब मना करना पड़ा।
डॉक्टर ने अपने पुराने अनुभव का साझा करते हुए कहा कि चार साल पहले जब वह आखिरी बार किराए का घर ढूंढ रहे थे, तब की तुलना में अब जाति के आधार पर मना करने की प्रवृत्ति अधिक हो गई है। उन्होंने बताया कि, "दिलचस्प बात यह है कि अब जाति के आधार पर मना करने वालों की संख्या में इजाफा हो गया है।" इससे स्पष्ट होता है कि शहरी इलाकों में भी निचली जातियों के लोगों को अभी भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
बार-बार मना किए जाने को लेकर डॉक्टर परेशान हो गए। इस क्रम में उन्होंने एक नैतिक दुविधा भी साझा की। उनकी पत्नी ऊंची जाति से हैं, और वह सोच रहे थे कि क्या उन्हें अपनी पत्नी की जाति बताकर अपनी जाति छिपा लेनी चाहिए ताकि उन्हें किराए पर मकान मिल सके।
डॉक्टर ने अपनी पोस्ट में यह भी साफ किया कि सभी मकान मालिकों ने जाति के आधार पर उन्हें मना नहीं किया। कुछ घर उनके बजट से बाहर थे। उन्होंने बताया, "मैंने मड्डिलापलेम से लेकर येनडाडा और विशालाक्षी नगर तक घर ढूंढे, लेकिन 99% घर मेरे बजट से बाहर हैं।" उनके बजट में 2बीएचके के लिए 10,000 रुपये और 3बीएचके के लिए 15,000 रुपये है।
इसके बावजूद जाति के कारण मना करना उनके लिए एक बड़ी बाधा बनी रही। डॉक्टर ने अरिलावा हेल्थ सिटी के पास सस्ते मकान के विकल्पों पर सलाह मांगी और व्यंगात्मक लहजे में लिखा कि क्या उन्हें अपनी पत्नी की जाति बताकर अपनी जाति छिपा लेनी चाहिए ताकि उन्हें घर मिल सके। हालांकि, उन्होंने यह भी चिंता जताई कि अगर मकान मालिक को बाद में सच्चाई का पता चला तो क्या इससे कोई समस्या हो सकती है: "क्या इससे भविष्य में कोई परेशानी होगी अगर मकान मालिक को पता चले कि उनके घर में बिना उनकी मंजूरी के एक निचली जाति का व्यक्ति रहता है?"
यह व्यक्तिगत अनुभव इस बात को उजागर करता है कि जातिगत भेदभाव आज भी बड़े शहरों में मौजूद है, जहां लोग मानते हैं कि यह अब नहीं है। एक योग्य डॉक्टर होते हुए भी व्यक्ति को उसकी पेशेवर पहचान या स्वभाव के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी जाति के आधार पर आंका गया। इससे यह साफ होता है कि जाति आधारित पूर्वाग्रह अभी भी समाज के हाशिए पर खड़े समुदायों को प्रभावित कर रहे हैं।